जनरल परवेज मुशर्रफ के पाकिस्तान लौटने की जैसे ही घोषणा हुई थी, हमने कहा था कि चूहा पिंजरे की तरफ दौड़ रहा है.
पिछले तीन हफ्तों ने इस कथन को सत्य साबित किया है. यदि मुशर्रफ कल अदालत के सामने फौजी कमांडो की फुर्ती नहीं दिखाते तो उनके पिंजरे की ईद मन जाती. पाकिस्तानी जेल के पिंजरे में पूर्व प्रधानमंत्री तो फंसे हैं, कभी कोई तानाशाह नहीं फंसा.
फिलहाल मुशर्रफ को उनके घर में ही नजरबंद किया गया है लेकिन किसी तानाशाह की अकड़ ढीली करने के लिए यह क्या कम है कि उसे छोटी-मोटी अदालतों में मुज़रिम की तरह पेश होना पड़ता है. बृहस्पतिवार को सजा सुनते ही जब वे भागे तो लोगों ने जमकर मजे लूटे. देखो, वो कौन भाग रहा है? देखो, देखो, मुशर्रफ भाग रहा है. इस तरह के नारे सुनकर मुशर्रफ पर क्या बीती होगी, यह वे ही बता सकते हैं.
मुशर्रफ की पार्टी, ‘अखिल पाक मुस्लिम लीग’ के मुख्य संयोजक मोहम्मद अमजद ने सफाई भी किस अदा से दी है. वे कहते हैं कि अदालत में रावलपिंडी की ‘बार एसोसिएशन’ के ढेरों वकील भीड़ लगाए हुए थे. उन वकीलों से मुशर्रफ की रक्षा जरूरी थी. क्यों जरूरी थी? क्योंकि वे सर्वोच्च न्यायालय की ब्रिगेड 111 है. यह ब्रिगेड 111 क्या है? यह पाकिस्तानी फौज की वही ब्रिगेड है, जिसे तख्ता-पलट के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यानी पाकिस्तान की अदालत तख्तापलट करने पर आमादा है और सारे वकील इस षडयंत्र में शामिल हैं. यह अमजद नहीं, मुशर्रफ की सोच है.
कुछ हद तक यह सोच ठीक है. पाकिस्तानी राज्य का कुछ पैदाइशी चरित्र ही ऐसा है कि जिसके हाथ में भी जरा-सी सत्ता आ जाती है, वह दूसरे के हाथ तोड़ने के लिए कमर कस लेता है. आज पाकिस्तान की अदालतों का हौंसला आसमान पर है. मुशर्रफ के जाने के बाद न सिर्फ सभी बर्खास्त हुए जज बहाल हुए बल्कि जजों ने जरदारी सरकार को नाकों चने चबवा दिए. एक प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया, दूसरे के घुटने टिकवा दिए और राष्ट्रपति आसिफ जरदारी की छाती पर छुरा ताने रहे. यानी सरकार पर अदालत हावी है.
फौज पर भी अदालत हावी है. यदि हावी नहीं होती तो मुशर्रफ पाकिस्तान छोड़कर भागते क्यों? जजों और वकीलों के आंदोलन ने फौजी तानाशाह के होश ढीले कर दिए थे. अदालतों के भाव इसलिए भी बढ़ गए कि ओसामा बिन लादेन की हत्या ने फौज की छवि पैंदे में बिठा दी. अमेरिका के ड्रोन हमलों में फौज की मिलीभगत ने उसका रौब-दाब खत्म-सा कर दिया. ऐसे माहौल में पाकिस्तानी न्यायपालिका सबसे ऊपर हो गई है. अगर वह तख्त पर बैठे प्रधानमंत्री को धूल चटा सकती है तो एक भागे हुए जनरल की उसके सामने क्या बिसात है?
इस वक्त पाकिस्तान की न्यायपालिका लगभग निरंकुश है. शासन के तीनों अंग जब-जब शक्तिशाली हो जाते हैं, वे निरंकुश हो जाते हैं. अपने माकूल वक्त में मुशर्रफ ने बलूच नेता अकबर बुगती की हत्या करवा दी, पख्तून और बलूच क्षेत्रों में बमबारी करवाई, लाल मस्जिद को खून से लाल कर दिया और पाकिस्तानी अदालतों का सूंपड़ा ही साफ कर दिया. माना जाता है कि बेनजीर की हत्या भी उन्हीं के इशारे पर हुई है.
नवाज शरीफ और उनके भाई शाहबाज का देशनिकाला भी उन्होंने ही करवाया. अब न्यायपालिका की बारी है. उसने भी कोई कमी नहीं रखी है. पहले तो उसने मुशर्रफ को जमानत दे दी लेकिन फिर उनके देश छोड़ने पर पाबंदी लगा दी. अदालत ने कार्यवाहक सरकार से पूछा है कि वह मुशर्रफ पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाती? सरकार ने कहा कि उसका मुख्य काम सिर्फ चुनाव ठीक से करवा देना है तो अदालत ने खुद ही मुशर्रफ को देशद्रोह का आरोपी बना दिया और गिरफ्तारी के आदेश दे दिए.
मुशर्रफ ने चार जगह से चुनाव के पर्चे भरे थे. अदालत ने चारों पच्रे निरस्त कर दिए. अब वे क्या करेंगे? अगर वे चुनाव लड़ भी लेते तो क्या कर लेते? पांच-दस सीटें जीत कर वे सिर्फ अपनी चमड़ी थोड़ी-बहुत बचा सकते थे. सांसद के विशेषाधिकार शायद उन्हें कुछ हद तक बचाते रह सकते थे? लेकिन अब तो उन्हें वह भी नसीब नहीं है. अब यदि उनकी पार्टी उम्मीदवार खड़े करेगी तो उसे वोट कौन देगा?
क्या पाकिस्तान की जनता को पता नहीं है कि बड़े शोर-गुल के बावजूद मुशर्रफ के स्वागत के लिए कराची हवाई अड्डे पर मुश्किल से डेढ़-दो हजार लोग ही आए जबकि कराची मुहाजिरों (भारत से आए मुसलमानों) का शहर है. नवाज शरीफ पंजाब के पर्याय हैं. उनका तख्ता-पलट करनेवाले जनरल को पंजाब में कौन पूछेगा? बेनजीर की हत्या का जिस पर शक है, उसे सिंध क्यों सिर पर बिठाएगा? बुगती की हत्या से सारे बलूच बिलबिलाए बैठे हैं. पख्तून और सीमांतवासी लोग ड्रोन आक्रमणों के लिए मुशर्रफ को ही जिम्मेदार ठहराते हैं.
जहां तक फौज के समर्थन का प्रश्न है, जब तक जनरल लोग नौकरी में रहते हैं, उन्हें लोग घुड़सवार कहते हैं. उनसे डरते हैं. उन्हें सलाम करते हैं. लेकिन जैसे ही वे सेवानिवृत्त होते हैं, घोड़े से उतरते हैं, जनता उन्हें घोड़े की लीद के बराबर भी नहीं समझती. उनका आत्मविास जड़मूल से हिल जाता है.
जनता की बात जाने दें, फौजी लोग ही उन्हें नहीं पूछते. फौजी वर्दी को सलाम करता है. वर्दी उतरी नहीं कि वे आम आदमी बन जाते हैं. यदि पाकिस्तानी फौज मुशर्रफ के साथ होती तो क्या जजों की हिम्मत होती, मुशर्रफ को तंग करने की? सेनापति जनरल कयानी पहले दिन ही कह चुके थे कि वे फौज को अपनी मर्यादा में रखने के पक्षधर हैं. इसमें शक नहीं कि उन्हें मुशर्रफ ने ही नियुक्त किया था. लेकिन उन्हें नियमानुसार नियुक्त होना ही था. मेहरबानी तो जरदारी सरकार की है कि उन्हें तीन साल की अतिरिक्त नियुक्ति मिली.
वे मुशर्रफ की वजह से अपना जलवा फीका क्यों करेंगे? और हम अगर मान लें कि मुशर्रफ फौज में लोकप्रिय हैं, तो भी चुनाव में फौज क्या कर लेगी? क्या वह जनता की सीने पर बंदूक रखकर मुशर्रफ की पार्टी के लिए वोट उठवाएगी? इसीलिए मुशर्रफ के लिए सबसे उचित यही होगा कि वे सबसे पहले नवाज शरीफ से माफी मांगे और फिर पाकिस्तान की जनता से! उसके बाद यदि लोग उन्हें चैन से टिकने दें तो पाकिस्तान में रहें. वरना वे फिर लंदन चले जाएं. उन पर इतने मुकदमे चलेंगे कि वे चौपट हो जाएंगे. क्या वे अपनी महत्वाकांक्षा को मर्यादा में रखेंगे?
मुशर्रफ को तो अपने बारे में फिर से सोचना ही होगा. पाकिस्तान के नेताओं और जजों को भी इस वक्त जरा दूरंदेशी से काम लेना होगा. वे चाहें तो मुशर्रफ से अपना बदला निकाल सकते हैं. उनके एक-एक कुकर्म के लिए कई-कई सजा दे सकते हैं. उन्हें फांसी पर लटका सकते हैं. इसके पीछे उनका यह तर्क हो सकता है कि इस डर के मारे भविष्य में कोई तानाशाह पैदा नहीं होगा. सुनने में यह ठीक लगता है लेकिन कोई यह बताए कि यदि कोई तानाशाह तिल-तिलकर मरे तो जनता पर ज्यादा असर होगा या एक झटके से फांसी से मरने पर? फांसी का झटका क्षणिक होता है जबकि अब जो झटके मुशर्रफ रोज खा रहे हैं और खाते रहेंगे, उनका असर कहीं अधिक व्यापक और गहरा होगा. इसके अलावा पाकिस्तान के राज्यतंत्र को यह भी सीखना होगा कि उसका कोई भी अंग अतिवादी न बने. मर्यादा में रहे.
Leave a Reply