रा. सहारा, 5 अप्रैल 2007 : नेपाल राजनीति की अद्रभुत प्रयोगशाला बन गया है| वहाँ असंभव भी संभव हो रहा है| दो साल पहले तक कौन सोच सकता था कि माओवादी और लोकतंत्र्वादी एक ही थाल में जीम सकते हैं| जो लोग दस साल तक आपस में लड़े और जिनके कारण 13 हजार लोग मौत के घाट उतरे, वे एक ही मंत्र्िमंडल के सदस्य बन गए हैं| पाँच माओवादियों को लेकर गिरिजाप्रसाद कोइराला ने जो मंत्र्िमंडल खड़ा किया है, उसके बारे में तीन दिन पहले तक काठमांडो में यही कहा जा रहा था कि दिल्ली जाने के पहले तक यह अंतरिम मंत्र्िमंडल शपथ ही नहीं ले पाएगा, क्योंकि माओवादी उप-प्रधानमंत्र्ी का पद और अपने मंत्र्ियों के लिए खासमखास विभाग माँग रहे थे| कोइरालाजी की चतुराई है कि उन्होंने उप-प्रधानमंत्र्ी का पद ही खत्म कर दिया और मंत्र्ियों के विभागों का बँटवारा भी उसी प्रकार किया, जैसा कि किसी प्रधानमंत्र्ी को करना चाहिए| यह ठीक है कि उनकी पार्टी, नेपाली काँग्रेस, के सदस्यों की संख्या माओवादी और मार्क्स-लेनिनवादियों के मुकाबले सिर्फ 2 ज्यादा है याने नेपाली काँग्रेस के 85 सांसद हैं और इन पार्टियों के 83-83 हैं, फिर भी सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते नेपाली काँग्रेस संसद और सरकार का नेतृत्व कर रही है| स्वयं कोइरालाजी नए नेपाल के कर्णधार बन गए हैं| उनका व्यक्तित्व ही पुनर्जीवित संसद और अंतरिम सरकार को वैधता प्रदान कर रहा है, अन्यथा नेपाल के अनेक नरेशवादी नेता और अन्य विचारक यह कहते हुए भी पाए गए कि पुनर्जीवित संसद और यह अंतरिम सरकार दोनों ही अवैध हैं| इनके लिए संविधान में कोई प्रावधान नहीं है| वे यह भी पूछते हैं कि माओवादियों को बिना चुनाव लड़े ही संसद में 83 सीटें किस आधार पर दे दी गई हैं ? इन प्रश्नों का एक ही जवाब है कि क्रांतिकारी परिस्थितियों में जो भी कार्य सर्वसम्मति से संपन्न हो जाए, वह वैधानिक है| इस दृष्टि से अंतरिम सरकार का गठन स्वागतयोग्य कदम है|
अंतरिम सरकार तो बन गई लेकिन वह चलेगी कैसे? क्या माओवादी अपने पुराने दुश्मनों के साथ आवश्यक ताल-मेल बिठा सकेंगे ? नए मंत्र्िमंडल ने 20 जून तक नई संविधान सभा के चुनाव की घोषणा भी कर दी है| अगले ढाई माह का समय तो यह अंतरिक सरकार किसी तरह काट लेगी लेकिन संविधान-सभा के चुनाव में अगर पार्टियों की ताकत काफी कम-ज्यादा हो गई तो क्या इस अंतरिक सरकार का दुबारा रूपांतरण नहीं होगा और उस रूपांतरण को क्या वे दल बर्दाश्त कर पाएँगे, जिनकी शक्ति काफी घट जाएगी ? क्या संसद के अंदर और बाहर दुबारा घमासान की संभावनाएँ बढ़ नहीं जाएँगी ? इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ढाई माह में चुनाव का आयोजन कैसे होगा ? न मतदाता सूचियाँ तैयार हैं, न चुनाव-क्षेत्रें का सीमांकन हुआ है और न ही विभिन्न पार्टियों में आपसी ताल-मेल हुआ है| अभी तक नेपाली काँग्रेस के दो धड़ों का विलय भी नहीं हुआ है| कोइराला और देउबा-समर्थकों में अब भी दरार पड़ी हुई है| इसी प्रकार एमाले और माओवादी भी एक-दूसरे के विरुद्घ चले आ रहे हैं| यदि हम छोटी-मोटी पार्टियों को छोड़ भी दें तो भी संविधान सभा के चुनाव में चतुष्कोणीय संघर्ष साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा है| इस महासंग्राम में कौन कितना गिरेगा और कौन कितना उठेगा, फिलहाल कहा नहीं जा सकताद्व लेकिन काठमांडो के अनेक विश्लेषकों और साधारणजन की धारणा यह थी कि माओवादियों को 83 सीट मिलना असंभव है| डंडे के जोर पर माओवादियों ने नेपाल के ज्यादातर जिलों में अपना प्रभुत्व जरूर जमा लिया था लेकिन अब मुक्त मतदान की भट्ठी पर चढ़ते ही क्या यह प्रभुत्व पिघल नहीं उठेगा ? तब क्या माओवादी दुबारा हथियार की राह नहीं पकड़ लेंगे ?
वास्तव में माओवादी लोकतांत्र्िक प्रक्रिया में शामिल तो हो गए हैं लेकिन अब भी उनकी हिंसक गतिविधियाँ बंद नहीं हुई हैं| अभी तक 30852 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है लेकिन कुल 3428 हथियार जमा करवाए हैं| क्या उनके पास कुल इतने हथियार ही थे ? बाक़ी हथियार कहाँ हैं? उनका क्या उपयोग हो रहा है ? छावनियों में पंजीकृत माओवादियों पर पाँच करोड़ रु. प्रति माह खर्च हो रहा है और हर माओवादी को 60 रु. रोज़ भत्ता भी मिल रहा है| इसके बावजूद हिंसा और जबरन वसूली के समाचार आए दिन नेपाली अखबारों में छपते रहते हैं| संपन्न व्यापारियों के बच्चों का अपहरण तो रोज़मर्रा का किस्सा बन गया है| 10 साल से लड़ रहे माओवादी छापामारों को बंदूक और पैसे की लत पड़ गई है| नेताओं के आग्रह के बावजूद वे इस लत से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं| अगर अंतरिम सरकार इनके विरुद्घ कठोर कार्रवाई नहीं करेगी तो चुनाव कैसे संपन्न होगा| अभी गणतंत्र् का सपना देख रही अंतरिम सरकार को पहले ‘गनतंत्र्’ से निपटना होगा| उस स्थिति में माओवादियों का रवैया क्या होगा ?
चुनाव के पहले पार्टियाँ अपना-अपना घोषणा-पत्र् तैयार करेंगी| वे यह बताएँगी कि वे कैसा संविधान बनाएँगी ? नरेश के बारे में दोनों नेपाली काँग्रेसों का रवैया दो-टूक शब्दों में प्रकट होगा या नहीं, अभी कुछ पता नहीं| काठमांडो के ये प्रमुख दल अब भी मान रहे हैं कि चाहे राजा चला जाए लेकिन राजतंत्र् बचा रहे| ज्ञानेंद्र और उनके पुत्र् पारस को राजपाट से मुक्त कर नरेश के चार वर्षीय पौत्र् को सिंहासन पर बिठा दिया जाए और नरेश पद को संसद के मातहत कर दिया जाए| नेपाल के नेतागण नरेश से अब भी इतने भयभीत हैं कि उन्होंने अंतरिम संविधान में संशोधन करके उन्हें पहले ही अपदस्थ करने का प्रावधान कर दिया है| यदि नरेश संविधान सभा के चुनावों में दखलंदाजी करते पाए गए तो उन्हें संविधान बनने के पहले ही बर्खास्त कर दिया जाएगा| सभी दल यह मानते हैं कि नरेश ज्ञानेंद्र और उनसे भी ज्यादा युवराज पारस हाथ पर हाथ धरे हुए नहीं बैठे हैं| वे नेताओं, फौजियों, पत्र्कारों और राजनयिकों पर डोरे डाल रहे हैं| वे संविधान सभा में अपना इतना असर जरूर बना लेंगे कि राजंत्र् का समूलोच्छेद असंभव हो जाएगा| यों भी अमेरिकी राजदूत ने तो खुले-आम माओवादियों की भर्त्सना की है| उसने उन्हें सरकार में शामिल होने के बावजूद आतंकवादी कहा है| माओवादी मंत्र्ियों को अब भी अमेरिकी वीज़ा से वंचित रखा जाएगा| माओवादियों के प्रति विदेशी शक्तियों के इस कठोर रवैए से नरेश को बल जरूर मिलेगा| दिसंबर 2006 में एक टी.वी. चैनल के सर्वेक्षण में पाया गया कि 65 प्रतिशत लोगों ने नरेश को ही राज्याध्यक्ष बनाए रखने का समर्थन किया है| इस संबंध में भारत सरकार का रवैया पूर्ण निष्पक्षता का है| इसके बावजूद माओवादी अब भी भारत-विरोधी प्रचार में संलग्न रहते हैं| पिछले दिनों तराई में हुई 29 माओवादियों की हत्या के लिए बिहार के माफिया के माथे दोष मढ़ा जा रहा है| तराई के मधेशियाई लोग माओवादियों का ही नहीं, नेपाली काँग्रेस का भी डटकर विरोध कर रहे हैं| अंतरिम सरकार के विरोध में तराई के 22 जिलों में हड़ताल रखी गई| संविधान सभा में तराई के लोगों का कितना प्रतिनिधित्व होगा, यह भी ध्यातव्य है| तराई के मैथिल, भोजपुरी और अवधीभाषी लोगों का मानना है कि सारे राजनीतिक दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं| नए संविधान में वे तराई के लिए कुछ नहीं करेंगे| तराई में भी अलगाववाद के बीज उसी तरह पनप रहे हैं, जैसे श्रीलंका में पनप चुके हैं| नए नेपाल की अंतरिम सरकार के कष्ट अनंत हैं| पहले तो शांतिपूर्ण चुनाव, फिर संविधान सभा का गठन और फिर संविधान निर्माण और उससे भी बड़ी जिम्मेदारी नेपाल को गरीबी और हिंसा के दल-दल से उबारना–अंतरिम सरकार के सामने चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं|
(लेखक अभी-अभी नेपाल से लौटे हैं)
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