Sahitya Amrit, 2005 : विद्यानिवासजी अपने ढंग के अनूठे आदमी थे| अब सोचता हॅूं कि अपने मित्र-मंडल में क्या उनके-जैसा कोई दूसरा है? कोई नहीं है| उनका व्यक्तित्व अनेक उत्कट विरोधाभासों का समागम था वे जितने पारम्परिक थे, उतने ही आधुनिक भी थे| सत्ता के प्रति उनमें जितनी हिकारत थी, उतनी ही ललक भी थी| विद्या-व्यसनियों की तरह निरीह दिखाई पड़ते थे तो अपने क्षेत्र में उपलब्ध पदों और पदवियों को पाने में वे ज़मीन-आसमान एक कर देते थे| किसी का कष्ट देखते ही विगलित हो जाते थे लेकिन अगर किसी को कष्ट देना उनको अभीष्ट हो तो फिर पाषाण की तरह निर्मम हो जाते थे| लिखा तो उन्होंने इतना कि 100 से अधिक किताबें छप गईं लेकिन वास्तव में किताबें तो उन्होंने मुश्किल से एक-दो ही लिखीं| शेष लेखों और व्याख्यानों के संग्रह हैं| इन लेखों और व्याख्यानों में उनकी अतलस्पर्शी मेधा जगह-जगह बिजली की तरह कौंधती है| यदि वे सचमुच एक जगह टिककर कुछ ग्रथ लिखते तो हिंदी को कुछ ऐसी निधि दे जाते, जो शायद अन्य देशी और विदेशी भाषाओं से हिंदी को अलग करती| हिंदी के साहित्यकारों को हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा पर तो अधिकार होता ही है लेकिन संस्कृतज्ञ होने के कारण विद्यानिवासजी की जैसी गति दर्शन, अध्यात्म, संस्कृति, कला, ज्योतिष आदि में थी, वैसी बहुत कम साहित्यकारों की होती है| वे भारतीय वाड.मय के मर्मज्ञ तो थे ही, पाश्चात्य दर्शन, आंग्ल-साहित्य और पाश्चात्य-जीवन की जानकारी भी उन्हें गहरी थी| इसीलिए उनके निबंधों में भारतीयता की जैसी तर्कसंगत, तुलनात्मक और सटीक व्याख्या मिलती है, हिंदी के बहुत कम निबंधकारों में दिखाई पड़ती है| उनके निबंधों में ऐसे असंख्य सूत्र बिखरे पड़े हैं कि उन्हें अगर कोई खोल सके और जोड़ सके तो दर्जनों मौलिक गं्रथों की रचना हो सकती है| उनके रहते ही यह काम हो जाता तो अच्छा होता लेकिन अब हो, यह ज्यादा जरूरी हो गया है| हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के लिए यह एक चुनौती है|
विद्यानिवासजी की प्रतिभा मुझे हमारे किसी भी पंडित या महापंडित से कम कभी नहीं लगी लेकिन उनके बारे में यह यक्ष-प्रश्न सदा बना रहा कि वे स्वयं कोई युगांतरकारी कार्य क्यों नहीं कर सके? यह ऐसा भयंकर प्रश्न है, जो उन पर ही नहीं, उनसे अगली पीढ़ी के कुछ अन्य प्रातिभ लोगों पर भी लागू होता है| दूसरे शब्दों में यह चिंता व्यक्तियों के बारे में नहीं, हिंदी-जाति के बारे में है| ऐसा लगता है कि अपनी प्रतिभा के प्रताप से जो लोग हिंदी को नए धरातल पर पहॅुंचा सकते हैं, उन्होंने अपना समय कपास ओटने में लगा दिया| या तो गोरखधंधों में उनका समय नष्ट हो गया या खेमेबाजी में| गोरखधंधा याने पदों, पदवियों, पैसों, सिफारिशों, गोष्ठियों, सम्मेलनों आदि के पीछे भागते रहना और खेमेबाजी में तो उचित-अनुचित का बोध तो स्थगित हो ही जाता है, अपना सृजनात्मक योगदान भी गौण हो जाता है| विद्यानिवासजी किस-किस पद पर नहीं रहे, शिक्षा-अधिकारी से लेकर उप-कुलपति तक और संपादक से लेकर सांसद तक ! पदों को प्राप्त करने और उन पर बने रहने में जितनी शक्ति खर्च होती है, उतनी गवेषणा और चिंतन में लगती तो पता नहीं, परिणाम कितने चमत्कारी होते| वासुदेवशरण अग्रवाल, राहुल सांकृत्यायन, रामबिलास शर्मा, युधिष्ठिर मीमांसक, विश्वनाथप्रसाद वर्मा, उदयवीर शास्त्री जैसे विद्वानों का उदाहरण हमारे सामने है| विद्यानिवासजी इनसे अलग थे, यह उनका दोष नहीं, यह उनकी अनिवार्यता थी| जिसकी जैसी माटी होती है, उसका वैसा ही घट बनता है| वे दूसरे ढंग की माटी के बने हुए थे| उनके विराट्र मस्तिष्क में कैसी-कैसी अद्रभुत योजनाऍं थीं? शब्द-कोष तो बनते ही आए हैं, वे हिंदी के लिए देशी और विदेशी भाषाओं के वाक्यानुवाद कोष बनाना चाहते थे| अगर वैसे कोष बन जाते तो आज कम्प्यूटर और मोबाइल फोन के ज़माने में हिंदी संचार-विश्व की अग्रणी भाषा बन जाती| हिंदू धर्म का विश्वकोष बने, यह विचार मैंने युवा मुनि चिदानंद के दिमाग में क्या रोपा, विद्यानिवासजी उसके पीछे पिल पड़े लेकिन वर्षों के द्राविड़ प्राणायाम के बावजूद उसका पहला खंड भी तैयार नहीं हुआ है| हिंदी भारत की वास्तविक राजभाषा बने, अंग्रेजी अपदस्थ हो, यह विद्यानिवासजी का सर्वाधिक पि्रय विषय था| इस विषय पर उन्होंने जैसा डंके की चोट लिखा है, कितने साहित्यकारों ने लिखा है? हमारे साहित्यकार यह समझने को तैयार नहीं कि अगर वे हिंदी के लिए नहीं लड़ेंगे तो वे स्वयं खत्म हो जाऍंगे| जब भाषा ही नहीं रहेगी तो साहित्य को क्या हवा में लटकाऍंगे? पाठक ही नहीं होंगे तो क्या साहित्य का अचार डलेगा? जिस डाल पर साहित्यकार बैठे हैं, वह रोज़ कट रही है और वे खर्राटे खींच रहे हैं| विद्यानिवासजी इस तरह के लोगों से बिल्कुल अलग थे| मेरे लिए यही उनकी पहचान थी| मैंने जब-जब आंदोलन छेड़े या सम्मेलन आयोजित किए, वे स्वत: आगे आए और उन्होंने जमकर पीठ ठोकी| यह ठीक है कि वे योद्घा नहीं थे, नेताओं के कान नहीं खींच सकते थे, हिंदी के खातिर कोई बड़ा खतरा मोल नहीं ले सकते थे लेकिन सत्य को तेजस्विता के साथ प्रस्तुत तो कर सकते थे| अपने भाषणों में वे जबर्दस्त तूफान उठाते थे| उफनते हुए आक्रोश को प्रकट करते थे| आंदोलनकारियों की उग्र भाषा बोलते थे| हिंदी में ऐसे पंडित कितने हैं? हिंदी समाज में फैली हुई नपुंसकता के वे विलोम थे| वे दिल दहलानेवाले प्रचंड वक्ता नहीं थे लेकिन यदि कोई धैर्यपूर्वक उन्हें सुन लेता तो उनके तर्को से उसका अंतरमन भी हिल सकता था| यह ठीक है कि वे हिंदी लेखकों के ‘खुद लिखें और उसे खुद पढ़ें’ संप्रदाय के अभिन्न अंग थे लेकिन उनके ललित निबंधों ने हिंदी संसार में दूर-दूर तक अपनी छाप छोड़ी है| उन्होंने हिंदी के संसार का विस्तार किया, हिंदी को संस्कार दिया और अपने पांडित्य से हिंदी के भंडार को भरा|
उनका व्यक्तित्व काठिन्य और माधुर्य का अद्रभुत समन्वय था| पांडित्य और रसिकता की जुगलबंदी का दूसरा नाम ही डॉ. विद्यानिवास मिश्र है| मोरिशस-प्रवास में उनके मुख से पता नहीं कितने दोहे, सवैए, पद, भजन और शेर सुने| लगभग दो-ढाई वर्ष तक रोज ही उनसे मिलना होता था| हम लोग पड़ौसी जो हो गए थे| हम लोग प्रेस एनक्लेव में थे, इसीलिए वे गीतांजलि एनक्लेव में आ गए थे| उसके पहले और बाद में बरसों-बरस मिलना होता रहा| वह विरल जरूर था लेकिन था, सदा आत्मीयतापूर्ण और लगभग अहेतुक ! उनके कर्मकांड, पांॅवछुवाई और पौराणिक विश्वासों में मेरी रंचमात्र भी आस्था नहीं थी लेकिन मुझे विद्यानिवासजी का व्यक्तित्व हमेशा आकर्षक लगा| मुझे तो वे कभी पराए लगे ही नहीं| पता नहीं क्यों, बहुत-से लोग उनसे आतंकित दिखाई पड़ते थे और कुछ लोग हमेशा उन पर मुक्का ताने रहते थे| अनेक लोग साष्टांग दंडवत की मुद्रा में भी रहते थे| हर आदमी की हर मुद्रा के पीछे अपना-अपना कारण रहा होगा| स्वयं विद्यानिवासजी कहा करते थे कि गॉंव के लोग वीतराग होते हैं और शहर के लोग क्रीतराग ! राग और द्वेष में फंसे हुए लोग कब कौनसी मुद्रा धारण करेंगे, यह जानना प्राय: कठिन ही होता है| दिल्ली में रहते हुए विद्यानिवासजी इस तरह के लोगों को सम्हालने में निष्णात हो गए थे| वे स्वयं सत्ताधारियों और पत्ताधारियों के प्रति अतिरिक्त आसक्ति प्रकट करते थे| मेरे मन में ये सब बातें प्रारंभ में काफी कौतूहल उत्पन्न करती थीं क्योंकि मैं उनमें राममनोहर लोहिया को खोजने की चेष्टा करता था लेकिन थोड़े दिनों में ही मैंे अपनी मृग-मरीचिका को पहचान गया| फिर भी मेरा यह विश्वास कभी टूटा नहीं कि जब कभी इस देश की सांस्कृतिक स्वतंत्रता का बिगुल बजेगा, हिंदी की बगावत का झंडा ऊंचा उठेगा और हिंदी समाज संघर्ष का आह्रवान करेगा तो विद्यानिवासजी मुझे पहली पंक्ति में खड़े मिलेंगे|
Leave a Reply