दैनिक भास्कर, 8 अगस्त 2012: जन-आंदोलन की दो पटरियों में से एक पटरी बिल्कुल उखड़ गई है। एक बाबा रामदेव की पटरी और दूसरी थी अन्ना हजारे की पटरी। अन्ना हजारे को हमारे कुछ पत्रकार भाई गांधीवादी कहते नहीं थकते, लेकिन बेचारे अन्ना ने अपने ताजा फैसले से गांधी को शीर्षासन करवा दिया। आजादी के बाद गांधी कहते थे कि कांग्रेस पार्टी की जरूरत नहीं है। उसे भंग करो। लोक-सेवक संघ बनाओ। अन्ना ने जन-आंदोलन को भंग कर दिया और कहा कि पार्टी बनाओ।
अन्ना की इस अदा पर मैं फिदा हूं। वह कहते हैं कि इस पार्टी से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैं इसमें नहीं हूं, लेकिन इसकी मदद पूरी करूंगा। गांव-गांव घूमूंगा। अच्छे उम्मीदवार चुनूंगा। चुनाव खुद नहीं लड़ूंगा, लेकिन उनको लड़वाऊंगा। वाह! क्या अद्भुत अदा है? लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। फारसी की एक कहावत है, जिसका भारतीय लहजे में अनुवाद करें तो यूं होगा कि ‘फेरे मैं पड़ूंगा, लेकिन बच्चे तुम पैदा करो।’ इस दुविधा में से पैदा हुई पार्टी का भविष्य क्या होगा, इसका अनुमान एक बच्चा भी लगा सकता है।
पार्टी बनाना गलत नहीं है। वास्तव में बहुत अच्छा है, लेकिन आप गए तो थे रामभजन को और ओटने लगे कपास। अरे भई, पार्टी ही बनानी थी तो पिछले अगस्त में ही बना लेते। क्या मालूम कागज (अखबार) और परदे (टीवी) के शेर सचमुच असली शेरों में बदल जाते, लेकिन अब जब मुंबई और दिल्ली के अनशनों ने ‘शेरों’ को मिमियाती भेड़ों में बदल दिया तो आपको पार्टी बनाने की सूझी। पार्टी के नाम से प्रचार का कुछ न कुछ जुगाड़ तो बैठ जाएगा, लेकिन आपके अचानक अनशन तोडऩे ने जनता को जो धक्का पहुंचाया है, उसका आजाद भारत में कोई सानी नहीं है। इन अनशनों ने भारत की जनता को जिस तरह बेदार किया था, यदि वे उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाए जाते तो देश अपूर्व परिवर्तन को प्राप्त होता। लेकिन आपने अपनी सेंत-मेंत में मिली प्रतिष्ठा को भी खोया और उससे भी दुखद यह है कि अनशन की पवित्रता और प्रतिष्ठा को भी रसातल में पहुंचा दिया। उन बहादुराना भाषणों का क्या हुआ कि अब मरकर ही उठेंगे? अब मर तो गए ही, उठने का भी कुछ पता नहीं। आमरण अनशन का ऐसा मरण हमने कभी नहीं देखा। अनशन की अंत्येष्टि से निकली राजनीतिक पार्टी आपको कितना उठाएगी, किसे पता है। जिस पार्टी के मूल में ही धूल पड़ी हो, वह शुभंकर कैसे बन सकती है? यह पार्टी या तो गहरी कायरता या गहरी हताशा की संतान है। यह क्या तीर मारेगी?
भारत के लोग अब अखबारों और टीवी के परदों पर इस तथाकथित पार्टी की कलाबाजियों का रस लेंगे। वे देखेंगे कि नेताओं को गरियाने वाले लोग खुद नेता बनने चले हैं। जो कल तक कहते थे कि आंगन ही टेढ़ा है, अब वे भी उसी आंगन पर नाचने को उतारू हो गए हैं। वे टेढ़े आंगन को सीधा करते-करते खुद टेढ़े हो जाएंगे। क्या ज्यादातर नेता राजनीति में आने के पहले साफ-सुथरे और आदर्शवादी नहीं होते हैं? जरूर होते हैं, लेकिन यह काजल की कोठरी है, इसमें घुसोगे तो आप भी काले हुए बिना नहीं रहोगे। इसमें घुसकर इसे जयप्रकाश और लोहिया जैसे महापुरुष साफ नहीं कर पाए तो कुछ कागजी शेर क्या कर लेंगे? कागज के गुड्डों को गलतफहमी हो गई है कि वे शेर हैं। गांधी की टोपी लगाकर क्या कोई गांधी बन जाता है? भगत सिंह जैसी मूंछें रखने से ही क्या कोई भगत सिंह बन जाता है? इसमें शक नहीं कि टीम अन्ना के प्रयासों से भ्रष्टाचार-विरोधी जन-आक्रोश को वाणी मिली, लेकिन टीम को यह भ्रम हो गया कि यह आंदोलन है और उसने ही इस आंदोलन को पैदा किया है। वास्तव में वह आंदोलन था ही नहीं। वह तो एक स्वत:स्फूर्त जन-आक्रोश था। वह आंदोलन बन सकता था, लेकिन जन-आक्रोश के आगे झंडा लेकर खड़े होने वाले लोगों ने इस अपूर्व अवसर को धीरे-धीरे गंवा दिया। वे यह भूल गए कि उन्होंने ‘आंदोलन’ खड़ा नहीं किया, बल्कि ‘आंदोलन’ ने उन्हें खड़ा किया।
आंदोलन की विफलता से जन्मी इस पार्टी को यह भ्रम भी है कि यह जयप्रकाश की जनता पार्टी बन जाएगी। जनता पार्टी आपातकाल के सफल और सतत संघर्ष से जन्मी थी। वह अखबार और टीवी की संतान नहीं थी। इसके अलावा उसके पास जयप्रकाश, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वटवृक्ष थे। इस पार्टी के पास ले-देकर एक अन्ना हैं, जो यह कहते नहीं थकते कि मैं चुनाव लडूं़ तो मेरी जमानत जब्त हो जाएगी। जो पल में माशा और पल में तोला हो जाते हैं। जो टोपी गांधी की लगाते हैं और भाषा दादाओं की बोलते हैं (बस एक ही चांटा?)। जो एक दिन नरेंद्र मोदी के भक्तिभाव में बह जाते हैं और दूसरे िन सेकुलरवादी बन जाते हैं। यानी वह सब कुछ हैं और कुछ भी नहीं। वह मूक प्रतीक यानी मिट्टी के माधव बने रहें और पुजारीगण अपनी दुकान चलाते रहें, वहां तक तो सब ठीक-ठाक है। लेकिन क्या ऐसे लोगों के सहारे कोई राष्ट्र राजनीति चलाने की बात सोच सकता है?
जहां कोई नेता नहीं, कोई संगठन नहीं, कोई व्यापक नीति नहीं, कार्यक्रम नहीं, संघर्ष की हिम्मत नहीं, पैसा नहीं, वहां पार्टी बनाने की बजाय यदि कोई सचमुच का आंदोलन खड़ा कर दिया जाता तो उसमें से कांग्रेस की तरह कोई बड़ी पार्टी निकलती, जो मरते-मरते भी जिंदा रहती और जिसका विकल्प अभी सवा सौ साल बाद भी कोई खड़ा नहीं कर पाया। भारत की राजनीतिक पार्टियां क्या हैं? वे सिर्फ चुनावी मशीन बनकर रह गई हैं।
आज भारत को ऐसी राजनीतिक पार्टी की जरूरत है, जिसके द्वार सबके लिए खुले हों। अब टीम अन्ना के बजाय ऐसी अन्ना पार्टी सामने आएगी, जिसने जन-संघर्ष के मुंह पर ताला ठोंक दिया है और देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं को अपना दुश्मन बना लिया है। जयप्रकाश ने कम से कम सत्ता को उलट दिया था, अब सत्ता-प्रेम ने अन्ना-आंदोलन को ही उलट दिया है।
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