R Sahara, 16 Nov. 2004 : दुनिया के छह अरब लोगों की जिंदगी पर सिर्फ छह करोड़ लोग कितना असर डाल सकते हैं, इसका प्रमाण है, अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव| जॉर्ज बुश के पक्ष में मतदान करनेवालों की संख्या छह करोड़ भी नहीं है, लेकिन उन्होंने सारी दुनिया में सिहरन दौड़ा दी है| जहॉं तक दुनिया का सवाल है, वहॉं तो बुश अपना चुनाव लड़ने के पहले ही हार गए थे| जैसे प्रदर्शन बुश के खिलाफ यूरोप, एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में हुए थे, वैसे किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ कभी नहीं हुए| शीतयुद्घ के दौरान आधी दुनिया अमेरिका के खिलाफ हुआ करती थी लेकिन उन दिनों अमेरिका के खिलाफ़ प्रदर्शनों के लिए लोगों को उकसाया जाता था| आज तो दुनिया में दो ध्रुव नहीं हैं| इस एकध्रुवीय दुनिया में लोग अपने आप उत्तेजित हुए और उन लोगों में पुराने यूरोप और खुद अमेरिका के लोग भी शामिल थे| एराक़ पर कब्जा करनेवाले बुश की जीत का स्वागत विभिन्न सरकारें जरूर कर रही हैं लेकिन दुनिया के आम लोग हतप्रभ हैं| उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि वे क्या कहें? अमेरिका लोकतंत्र तो है लेकिन यह कैसा लोकतंत्र है, जो बुश-जैसे आदमी को अपना नेता चुन लेता है? हिटलर के जर्मनी और बुश के अमेरिका में क्या फर्क है? हिटलर को भी जर्मन जनता ने चुनकर ही भेजा था| पिछली बार जब बुश राष्ट्रपति बने तो जनता ने उन्हें चुना नहीं, उनके भाई याने फ्लोरिडा के राज्यपाल और सर्वोच्च न्यायालय ने मिलकर उन्हें नियुक्त किया था| इस बार अमेरिका के लोगों ने बुश को 35 लाख वोटों (और निर्वाचक मंडल के बहुमत) से जिताकर दुनिया को क्या संदेश दिया है? क्या यह नहीं कि अमेरिका के मुॅंह में लोकतंत्र है और बगल में फाशीवाद है? अमेरिका की प्रतिष्ठा को जितनी ठेस बुश के चुनाव ने पहॅुंचाई है, पिछले सवा दो सौ साल में किसी अन्य चुनाव ने नहीं पहॅुंचाई| अमेरिकी जनता चाहती तो बुश के साथ वही बर्ताव कर सकती थी, जो चर्चिल के साथ बि्रटेन की जनता ने किया था और आपातकाल के बाद भारत की जनता ने इदिरा गॉंधी के साथ किया था| यदि डेमोक्रेट उम्मीदवार जॉन केरी जीत जाते तो कोई आसमान नहीं टूट जाता| वे भी अमेरिकी राष्ट्रहितों की रक्षा डटकर करते लेकिन कम से कम दुनिया के लोगों को बताया जा सकता था कि अमेरिका की जनता कितनी प्रबुद्घ है| अब अमेरिका की जनता को क्या कहा जाए, उसने अपने मॅुंह पर बुश को पोत लिया है|
फिर भी अमेरिकी लोगों ने बहुत बुरा तो नहीं किया| सिर्फ 35 लाख वोट ही तो ज्यादा दिए हैं, बुश को ! 35 लाख वोट के बावजूद अगर ओहायो राज्य का निर्वाचक-मंडल बुश का साथ नहीं देता तो केरी के मुकाबले बुश वैसे ही हार जाते जैसे कि चार साल पहले बुश के मुकाबले 20 लाख वोट ज्यादा लेने के बावजूद अल-गोर हार गए थे| यह अमेरिकी चुनाव-पद्घति का तकनीकी पेंच है| इस पेंच के बावजूद बुश जीत गए लेकिन हम यह सोचें कि 30 करोड़ के देश में 35 लाख वोट की क़ीमत क्या है? एक प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा| कुल जनसंख्या के एक प्रतिशत से ज्यादा वोट की जीत भी कोई जीत है? आप सौ आदमियों से मिलें और उनमें से 51 सहमे हुए आदमी नीची नज़रें झुकाकर आपकी पीठ थपथपा दें और शेष 49 आदमी खौलते हुए समुद्र की तरह आप पर टूट पड़े ंतो क्या आपको इज्जतदार नेता माना जाएगा? अमेरिका के इस चुनाव में गली-गली और मुहल्ले-मुहल्ले में जैसा उफान था, पहले वैसा उफान कभी नहीं देखा गया| साढ़े 11 करोड़ लोगों ने पहले कभी मतदान नहीं किया| किसी उम्मीदवार को, लोकपि्रय-अभिनेता नेता रोनाल्ड रेगन को भी 5 करोड़ 86 लाख वोट नहीं मिले| बुश गर्व कर सकते हैं कि कई दशकों बाद वे ऐसे पहले राष्ट्रपति बने हैं, जिन्होंने सीनेट और प्रतिनिधि सदन में अपनी पार्टी की संख्या बढ़ाई है| इतना ही नहीं, वे इस अर्थ में अति समर्थ राष्ट्रपति हैं कि सीनेट और प्रतिनिधि सदन में उनकी पार्टी-रिपब्लिकन पार्टी-को स्पष्ट बहुमत है| अब वे बेखटके कोई भी कदम उठा सकते हैं|
क्या वजह है कि अमेरिकियों ने केरी की बजाय बुश को पसंद किया? सबसे पहले तो यह देखा जाए कि जिन लोगों ने बुश को चुना, वे कौन हैं? बुश को सबसे ज्यादा अमेरिका के मध्यवर्ती और दक्षिणी राज्यों का समर्थन मिला है| यदि ओहायो और आयोवा बुश को नहीं मिलते तो माना जाता कि वे केवल उन्हीं राज्यों में जीते हैं, जहॉं अब्राहम लिंकन के पहले गुलामी-प्रथा थी| ये ही वे राज्य हैं, जहॉं रिपब्लिकन पार्टी का गढ़ रहा है और ये ही वे इलाके हैं, जहॉं ईसाइयत और रंगभेद का जोर रहा है| इन राज्यों के लोगों से ही कभी जॉन केनेडी ने टक्कर ली थी| वे डेमोक्रेट थे और बुश रिपब्लिकन हैं| इस बार अमेरिकी चुनाव में कुल मतदाताओं की 77 प्रतिशत संख्या गोरों की थी| याने गैर-गोरे मतदाता केवल 23 प्रतिशत थे| गोरे मतदाताओं में से 58 प्रतिशत ने बुश को और सिर्फ 41 प्रतिशत ने केरी को वोट दिए| याने केरी को 17 प्रतिशत का घाटा हुआ| इस घाटे को कुछ हद तक भरा गया| लेकिन किसने भरा? गैर-गोरों ने| अमेरिका के काले या नीग्रो मतदाताओं में से 88 प्रतिशत ने केरी का समर्थन किया तो बुश का सिर्फ 11 प्रतिशत ने ! याने इस बार गोरों और गैर-गोरों के बीच दूरियॉं बढ़ीं|
बुश के समर्थकों ने अमेरिका के आदिम राष्ट्रवाद का आह्रवान किया और वे जीते| अमेरिका की स्थापना गोरों ने की, ईसाइयों ने की और बंदूक के जोर पर की |इन तीनों तत्वों का प्रतिनिधित्व करनेवाले लोगों ने बुश के सिर जीत का सेहरा बॉंध दिया| इस बार बुश के लिए अमेरिका के गिरजाघरों में जितनी प्रार्थनाऍं की गईं, पादरियों ने खुद के और अपनी थैलियों के मॅुंह जितने खोल दिए और बुश को विधर्मी मुसलमानों के सांस्कृतिक आक्रमण का सामना करनेवाला जैसा योद्घा बताया गया, उस स्थिति में जॉन केरी का टिकना कहॉं संभव था| वे वोट भी बुश की झोली में ही गिरे, जो परंपरावादी थे, परिवारवादी थे, समलैंगिक संबंधों और गर्भपात के विरोधी थे| बुश की विजय वंशवाद, मज़हबवाद और बंदूकवाद की विजय है| आधुनिक अमेरिका पर यह आदिम अमेरिका की विजय है| बुश और केरी तो प्रतीक-मात्र हैं| जब लहर ही उल्टी बह रही थी तो उसमें से केरी का तैर कर निकल जाना कैसे संभव था? जॉन केरी के वे आश्वासन भी कुछ काम न आए, जो लोगों को रोजगार देते, आउटसोर्सिंग को नियंत्र्िात करते, परमाणु-अप्रसार लागू करते, गरीबों को राहत दिलवाते और एराक़ के दलदल से अमेरिका को बाहर खींच लाते| ओहायो जैसा राज्य जहॉ ‘आउटसोर्सिंग’ के कारण डेढ़-दो लाख अमेरिकी बेरोजगार हुए हैं, उसने भी बुश का समर्थन कर दिया| आखिर क्यों किया?
इसका सबसे बड़ा कारण भय है| भय की राजनीति सफल हुई| बुश ने अमेरिका को डरा दिया| उन्होंने उसामा बिन लादेन, अल-क़ायदा, तालिबान और विश्व-आतंकवाद के दैत्य को दुबारा जिंदा किया और उन्हें चुनाव के ट्रेड टॉवर पर चढ़ा दिया| उसामा के (असली या नक़ली) बयान ने ऐन मतदान के वक्त जबर्दस्त मदद पहॅुंचाई| अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है लेकिन यह सबसे अधिक भयभीत देश भी है| अमेरिका अपनी सुरक्षा पर जितने पैसे खर्च करता है, दुनिया का कोई देश नहीं करता| साधारण अमेरिकी अपने घरों की रक्षा के बारे में जितने सतर्क होते हैं, दुनिया के कोई और लोग नहीं होते| अब से पहले अमेरिका पर किसी अन्य देश ने हमला नहीं किया| दूसरों के देशों पर अमेरिका हमला करता रहा| प्रथम और द्वितीय महायुद्घों में यूरोप के लाखों लोग मारे गए और अरबों रुपए का नुक्सान हुआ लेकिन अमेरिका का बाल भी बॉंका नहीं हुआ| वह दूर खड़ा तमाशा देखता रहा| विश्व-युद्घों के बाद अन्य महाद्वीपों में लगभग 150 छोटे-मोटे युद्घ हुए लेकिन अमेरिकी ज़मीन सर्वथा सुरक्षित रही| उल्टे, अमेरिका ने प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों को हथियार बेचे और डॉलर बनाए ! शत्रु हमेशा उससे दूर रहा लेकिन 11 सितंबर 2001 को एक अदृश्य शत्रु उसकी छाती पर आ बैठा| अन्य राष्ट्रों के शत्रु उनके पड़ौस में होते हैं लेकिन अमेरिका का शत्रु तो उसकी छाती पर सवार है| आतंकवाद के इस शत्रु का डर दिखाकर बुश ने अपनी गोटी गर्म कर ली| आज अमेरिकी मानस अपने दो-ढाई सौ साल पुराने अतीत में दुबारा लौट गया, जहॉं रेड इंडियनों और काले लोगों के डर के मारे वह अपने घर को किले में तब्दील कर लेता था और खुद को जुझारू योद्घा बना लेता था| बुश को जिताकर अमेरिकी लोगों ने दुनिया को बता दिया है कि वे अपने योद्घा को मझधार में डूबने नहीं देंगे| आतंकवाद के विरुद्घ अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई है और इस लड़ाई को गोरे, ईसाई और बंदूकधारी उसी तरह से लड़ेंगे, जैसे उन्होंने ढाई सौ साल पहले अमेरिका की सरजमीन पर वहॉं के स्थानीय लोगों से लड़ी थी|
अमेरिकी लोग इस लड़ाई में जीतने के लिए इतने अधिक आतुर हैं कि उन्हें एराक़ से लौटती हुई अमेरिकी सैनिकों की लाशें भी दिखाई नहीं पड़तीं, लाखों अमेरिकियों की बेरोजगारी भी उन्हें परेशान नहीं करती और उन्हें यह तथ्य भी लज्जित नहीं करता कि एक ऐसा व्यक्ति उनका राष्ट्रपति बन रहा है, जो दुनिया का सबसे कुख्यात मिथ्याभाषी बन गया है| यह कितने आश्चर्य की बात है कि तीन साल गुजर गए और आज तक जो व्यक्ति यह सिद्घ न कर सका कि ट्रेड-टॉवरों के गिरने का सद्दाम से क्या संबंध है और एराक़ में सर्वनाशी हथियार कहॉं छिपे हुए हैं, वह व्यक्ति अपना मॅुंह छिपाने की बजाय दुबारा अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया है| डर यही है कि डरे हुए राष्ट्र का यह नेता दुनिया को डराने के लिए कहीं कुछ और एराक़ न कर बैठे| अभी एक एराक़ ने ही अमेरिका का दम फुला दिया है| यदि ईरान और उत्तर कोरिया के छत्तों में भी बुश ने हाथ डाल दिया तो अमेरिका को दीवालिया होने से कोई बचा न सकेगा| एराक़ से मिलनेवाली तेल की कमाई तो अभी सपना ही है, अमेरिका की जेब से 400 बिलियन डॉलर पहले ही खिसक चुके हैं| अपने शत्रु को मारने के चक्कर में अमेरिका कहीं खुद को ही न मार बैठे| अमेरिका का शत्रु भी बड़ा अजीब है| शत्रुता पालने के लिए उसे कुछ खर्च नहीं करना पड़ता| ट्रेड टॉवर गिराने के लिए उसे कितना खर्च करना पड़ा? कुछ भी नहीं | उधर अमेरिका है, जिसे सद्दाम को गिराने के लिए 400 बिलियन का चक्कू खाना पड़ा है|
यदि बुश अपनी जीत का ग़लत मतलब लगा बैठेंगे तो वे अमेरिका को उत्तम शक्ति से अधम शक्ति बना देंगे, महत्तम शक्ति से लघुतम शक्ति में बदल देंगे और जो अभी तक स्वतंत्रता का पर्याय माना जाता है, उस अमेरिका को आतंकवाद का पर्याय बना देंगे| सिर्फ छह करोड़ लोेगों का नेता यदि छह अरब लोगों का भाग्य-विधाता बनना चाहता है तो यह उसकी हिमाकत ही है| इस खेल में खुद बुश चाहे जीत गए हों, अमेरिका निश्चय ही हार जाएगा| बुश ने अमेरिका का चुनाव किसी तरह जीत लिया है| देखना यह है कि अगले चार साल में वे दुनिया का चुनाव जीत पाते हैं या नहीं| बुश के चुनाव ने अमेरिका को एकबारगी फिर अपनी आदिम मॉंद में लौटा दिया है लेकिन बुश चाहें तो वे अपनी इस दूसरी और आखरी अवधि में उसे आदिम अंधेरों से मुक्त करवाकर 21वीं सदी की चॉंदनी में नहला सकते हैं|
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