NavBharat Times, 6 Nov 2004 : अफगानिस्तान के सर्वोच्च शासक को जनता चुने, यह अपने आप में अजूबा है। हामिद करज़ई को अपना राष्ट्रपति चुनकर अफगानों ने नए इतिहास की नींव रखी है। अब से लगभग ढाई सौ साल पहले (1747) आधुनिक अफगानिस्तान के संस्थापक अहमद शाह अब्दाली भी चुने हुए शासक थे लेकिन उन्हें कंधार में कबीलों के मुखियाओं ने गद्दी पर बैठाया था, आम जनता ने नहीं। अफगान-इतिहास की यह पहली घटना है कि उसके सर्वोच्च शासक को साधारण अफगानों ने अपने वोट से चुना है। आम अफगानों के लिए वोट भी कोई नई चीज नहीं है। 1964 के ज़ाहिरशाही संविधान के तहत अफगान जनता ने कई बार मतदान किया है लेकिन वह अपने सांसदों या अन्य प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, न कि अपने बादशाह या राष्ट्रपति या प्रधानमंत्राी चुनने के लिए। सीमित लोकतंत्रा के उन दस वर्षों (1963-1973) में पॉंच प्रधानमंत्राी नियुक्त किए गए लेकिन वे सब बादशाह ज़ाहिरशाह द्वारा नामजद थे। 1973 में सरदार दाऊद खान ने जो तख्ता पलट किया तो मानना चाहिए कि सही अर्थों में अब 30 साल बाद अफगानिस्तान में लोकतंत्रा लौटा है और अपूर्व ढंग से लौटा है।
30 साल की लंबी अस्थिरता के बाद बहुत कम लोगों को आशा थी कि अफगानिस्तान में शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव हो पाऍंगे। इसके कई कारण थे। पहला तो यही कि तालिबान और अल-क़ायदा के आतंकवादी अब भी सक्रिय हैं। उनका पूरी तरह सफाया नहीं हुआ है। वे करज़ई को ‘अमेरिकी कठपुतली` कहकर बदनाम कर रहे थे, चुनाव-बहिष्कार की अपील कर रहे थे और व्यापक हिंसा फैलाने की धमकियॉं दे रहे थे। दूसरा, अनेक वर्षोंं से युद्धरत अफगान-क्षत्राप हथियार डालने को तैयार नहीं थे। इस्माइल तूरन, दोस्तम, अमानुल्लाह आदि तालिबान-विरोधी होने के बावजूद काबुल की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। वे करज़ई को अफगानिस्तान का अंतरिम राष्ट्रपति नहीं, काबुल का महापौर कहा करते थे। बुलेट के जोर पर हुकूमत करनेवाले ये युद्धपिपासु क्षत्राप बेलेट के राज को घृणित हस्तक्षेप की संज्ञा देते थे। वे चुनाव को तमाशा समझते थे। तीसरा, पिछले तीन साल के अंतरिम प्रशासन को लोकप्रिय बनाने के लिए जितनी अन्तरराष्ट्रीय मदद मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। करज़ई-प्रशासन को उम्मीद थी कि कम से कम 20 बिलियन डॉलर मिलेंगे लेकिन उसे चार बिलियन डॉलर भी नहीं मिले। इतने कम डॉलरों की अमानत में भी खय़ानत हुई। कई गैर-सरकारी संस्थाऍं बीच में ही पैसा डकार गईं। काबुल के बाहर सड़कों, मकानों, पाठशालाओं, अस्पतालाओं वगैरह को देखकर लगता है कि मानो अफगानिस्तान में अब भी युद्ध जारी है। बेकारी, भुखमरी, अपराध, असुरक्षा का बोलबाला है। ऐसी स्थिति में कई लोग चुनाव को हवाई किला बता रहे थे। चौथा, यह भी माना जा रहा था कि अफगानिस्तान में न तो जनसंख्या का कोई ब्यौरा है और न ही मतदाता सूची। मतदान कैसे होगा? कौन कराएगा? अराजकता मच जाएगी। पॉंचवॉं, यह भय भी फैल दिया गया था कि मतदान की घोषणा के बावजूद मतदान नहीं होगा, क्योंकि करज़ई या कानूनी या किन्हीं अन्य उम्मीदवारों की हत्या हो जाएगी। करज़ई की हत्या का प्रयत्न हुआ भी !
इन सब शंकाओं और कुशंकाओं के बावजूद चुनाव हुए। पहले 18 उम्मीदवार खड़े हुए लेकिन दो ने अपने नाम वापस ले लिए। शेष 16 उम्मीदवारों में अफगानिस्तान की लगभग सभी प्रमुख जातियों के लोग आ गए। पठान, ताज़िक, उज़बेक, हजारा के अलावा औरतों का प्रतिनिधित्व भी हुआ। मसूदा जलाल भी उम्मीदवार थीं। करज़ई की जीत पहले से सुनिश्ति लग रही थी लेकिन यह संभावना भी थी कि शायद पठान वोट बॅंट जाऍंगे। स्वयं करज़ई पोपल कबीले के मुहम्मदजई हैं। तालिबान लोग प्राय: गिलज़ई हैं। लगता था कि गिलज़ई पठान करज़ई का विरोध करेंगे। ऐसे में ताज़िक उम्मीदवार युनुस कानूनी के जीतने के आसार बन सकते थे लेकिन करज़ई को मिले लगभग 55 प्रतिशत वोट यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें पठानों ने तो मिल-जुलकर अपना वोट दिया ही है, अन्य प्रमुख जातियों ने भी उनका समर्थन किया है। अफगानिस्तान में पठानों की बहुसंख्या है या वे जनसंख्या के आधे हैं या कम हैं इन मुद्दों पर कई वर्षों से काफी खींच-तान चलती रहती है लेकिन करज़ई की स्पष्ट विजय का संदेश यह भी है कि अफगानिस्तान की राजनीति में पठानों की प्रमुखता दुबारा स्थापित हो जाएगी।
करज़ई ने अपनी राजनीति से यह सिद्ध किया है कि वे केवल पठानों के नेता नहींं हैं बल्कि वे सारे अफगानिस्तान को अपने साथ लेकर चलना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने प्रसिद्ध योद्धा स्व. अहमदशाह मसूद के भाई अहमद-ज़िया को अपना उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार नामज़द किया। मसूद ताज़िक थे। वे ताज़िकों ही नहीं, समस्त अफगान जातियों के राष्ट्रनायक बन चुके हैं। करज़ई ने एक पत्थर से दो शिकार किए। अपने वर्तमान उपराष्ट्रपति जनरल फहीम जैसे ताकतवर प्रतिद्वंद्वी को उन्होंने दरकिनार कर दिया और बुरहानुद्दीन रब्बानी जैसे जबर्दस्त ताज़िक नेता को भी चुप कर दिया। पूर्व राष्ट्रपति रब्बानी ने चुनाव तक नहीं लड़ा। करज़ई के जोड़ीदार अहमद-ज़िया रब्बानी साहब के दामाद हैं। एक अर्थ में करज़ई ने सिर्फ पठानों और ताज़िकों का विश्वास ही नहीं जीता है बल्कि मसूद की विरासत और रब्बानी का आशीर्वाद लेकर अफगानों की भावनात्मक वैधता भी हासिल कर ली है। युनुस कानूनी को मिले 16.3 प्रतिशत और हजारा नेता मुहम्मद मोहक़िक को मिले 11.7 प्रतिशत वोट बताते हैं कि करज़ई के नेतृत्व ने अफगानिस्तान को जातीय आधार पर बॅंटने नहीं दिया है लेकिन उन्हें मिले 55 प्रतिशत वोट का ऑंकड़ा एक अंकुश की तरह है। उन्हें 80 या 90 प्रतिशत वोट नहीं मिले हैं। इसीलिए अब राष्ट्रपति बनने के बावजूद उन्हें अपना बर्ताव एक विविधतामय संयुक्त परिवार के मुखिया की तरह रखना होगा। यदि वे शासन की शक्तियों को सही अनुपात में विकेंद्रीकृत नहीं करेंगे तो जनता द्वारा चुने जाने के बावजूद तख्ता-पलट की संभावना बढ़ जाएगी। यह शुभ-संकेत है कि उनके विरोधी उम्मीदवारों ने चुनाव का बहिष्कार नहीं किया लेकिन चुनाव-परिणाम को वे आसानी से पचा नहीं पाऍंगे। अभी संसद, विधानसभाओं और स्थायी निकायों के चुनाव भी होने हैं। स्वयं करज़ई अब नए समीकरणों के आधार पर एक नई राष्ट्रीय लोकतांत्रिाक पार्टी का निर्माण भी कर सकते हैं। उन्हें अपना मंत्रिामंडल ऐसा बनाना होगा, जो अफगानिस्तान की आगामी राजनीति में प्रभावी सिद्ध हो सके और अगले कुछ माह में ठोस काम करके दिखा सके।
अमेरिकी चुनाव में जॉर्ज बुश की जीत करज़ई के हाथ मजबूत करेगी, इसमें शक नहीं है लेकिन करज़ई को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे बुश का मोहरा न बनें। ईरान की सीमा के निकट शिन्दन्द के अफगान हवाई अड्डे पर अमेरिकी सैनिक पहले से जमे हुए हैं। यदि बुश परमाणु हथियारों की आड़ में ईरान पर हमला बोलेंगे तो करज़ई भयंकर दुविधा में फॅंस जाऍंगे। उन्हें हर कदम फॅंूक-फॅूंककर रखना होगा। तूरन इस्माइल की बर्र्खास्तगी से ईरानी नेता पहले ही खफा हैं। वे पाकिस्तान और ईरान, दानों से अपने संबंध सहज रखें, यह उनकी सफलता के लिए जरूरी है। अमेरिका के अतिरिक्त दबाव से बचने के लिए उन्हें रूस, चीन और भारत से अपने संबंधों को पहले से भी अधिक घनिष्ठ करना होगा। यदि वे अफगानिस्तान को शांति और विकास के मार्ग पर चला सकें तो एक बार फिर अफगानिस्तान विश्व-राजनीति की धुरी बन सकता है और दक्षिण एशिया को दुनिया का सबसे ताकतवर इलाक़ा बनाने में अपना उल्लेखनीय योगदान कर सकता है। अपने लोकतांत्रिाक चुनाव के कारण अफगानिस्तान न केवल अपने पड़ौसी देशों के लिए अनुकरणीय हो गया है बल्कि दुनिया के सभी मुस्लिम देशों में उसका स्थान अनुपम बन गया है।
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