Nav Bharat Times, 17 Nov 2005 : अफगानिस्तान दक्षेस में आ गया, यह ढाका-सम्मेलन की सबसे बड़ी सफलता है| दक्षेस को बने, 20 साल हो गए लेकिन अफगानिस्तान और बर्मा उसके बाहर ही रहे| अफगानिस्तान और बर्मा के बिना क्या दक्षिण एशिया की कल्पना की जा सकती है? दक्षिण एशिया क्या है? वह प्राचीन भारत ही है| हजारों वर्षों से यह दक्षिण एशिया एक ही रहा है| उसके भूगोल, इतिहास, व्यापार, साहित्य, संस्कृति और यहां तक कि शासन में भी एकता और धारावाहिकता बनी रही है| इस एकता को अंग्रेज ने जो तोड़ा तो उसे हम आज तक नहीं जोड़ पाए| इसी एकता के पुनर्आह्रवान का नाम दक्षेस है| वर्तमान राष्ट्र्र-राज्यों की वास्तविकता को मान्य करते हुए खुरासान से अराकान तक और तिब्बत से मालदीव तक के विशाल क्षेत्र् को एकसूत्र् में जोड़ने का प्रयास ही दक्षेस का मुख्य लक्ष्य है| इस दृष्टि से अफगानिस्तान का दक्षेस-प्रवेश दक्षिण एशिया के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है|
दक्षेस जब शुरू हुआ तो अफगानिस्तान अस्थिरता के भयंकर दौर से गुजर रहा था| काबुल की खल्की-परचमी सरकार को दक्षिण एशियाई राष्ट्र्रों तक ने मान्यता नहीं दी थी| इस्लामी और तालिबानी सरकारों का भी लगभग यही हाल था| ये सरकारें गृहयुद्घ में फॅंसी हुई थीं| उन्हंे दक्षेस की तरफ देखने की फुर्सत नहीं थी| अब जबकि हामिद करज़ई के नेतृत्व में पिछले चार साल से थोड़ी-बहुत स्थिरता आई है, अफगानिस्तान ने दक्षेस में शामिल होने की इच्छा जताई| दक्षेस-राष्ट्र्रों ने सर्वसम्मति से उसे प्रवेश दे दिया है| इसके पहले काबुल में जो भी सरकारें बनीं, या तो भारत उनका विरोधी था या पाकिस्तान !
भारत और पाकिस्तान के संबंंध अब भी यह तय करेंगे कि दक्षेस में अफगानिस्तान की भूमिका क्या होगी| इसका उल्टा भी कुछ हद तक सही होगा याने भारत और पाकिस्तान को पास-पास लाने में अफगानिस्तान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है| यदि भारत-पाक संबंध खराब होते हैं तो अफगानिस्तान और भारत के बीच का रास्ता बंद हो जाता है| यदि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में किसी वजह से ठन जाए तो भी सीमा बंद हो जाती है| ऐसा तीन बार हो चुका है| अगर पाक-अफगान सीमा बंद हो जाए तो भारत-अफगान आवागमन तो अपने आप ठप्प हो ही जाता है| अफगानिस्तान और भारत के बीच में बैठा पाकिस्तान जब चाहे अपने दोनों पड़ौसियों में से दोनों के लिए या किसी एक के लिए सिरदर्द उपस्थित कर सकता है| उसने यह पहले कर दिखाया है लेकिन अगर अब वह ऐसा करेगा तो वह दक्षेस में फॅंसेगा| अफगानिस्तान और भारत दोनों एकजुट हो जाएंगे और पाकिस्तान अकेला पड़ जाएगा| इसीलिए अफगानिस्तान को दक्षेस का सदस्य बनाने के लिए पाकिस्तान ने कभी उत्साह नहीं दिखाया| इस बार ढाका में अफगानिस्तान के प्रवेश में अडंगा डालने के लिए पाकिस्तान ने नया दांॅव मारा| उसने नेपाल से कहलावाया कि चीन को जब तक पर्यवेक्षक या अतिथि-भागीदार का दर्जा न मिले तब तक अफगानिस्तान को दक्षेस का सदस्य न बनाया जाए| कितनी विचित्र् मांग थी, यह ! लेकिन इसके पीछे पाकिस्तान का यह सोच हो सकता है कि यदि अफगानिस्तान उसके सिरदर्द की तरह आ रहा है तो चीन को भारत के सिरदर्द की तरह क्यों नहीं लाया जाए? यह घटिया कूटनीति का उत्तम उदाहरण है| भारत ने चीन और जापान का कब विरोध किया? वह उन्हें अतिथि पर्यवेक्षक या भागीदार के तौर पर उसी तरह लाना चाहता रहा है, जिस तरह भारत इसी वर्ष शांघाइ सहयोग परिषद्र में शामिल हुआ है| चीन और जापान ही नहीं, ईरान, इंडोनेशिया तथा मध्य एशिया के पांचों गणतंत्र् भी इस श्रेणी में शामिल किए जाने चाहिए| बर्मा (म्यांमार) भी अपना एकांतवास तजकर शीघ्र ही दक्षेस में शामिल होगा, ऐसी आशा की जाती है|
अफगानिस्तान-प्रवेश को सांप्रदायिक दृष्टि से देखना उचित नहीं होगा| वह मुस्लिम राष्ट्र्र है, इसीलिए वह हमेशा पाकिस्तान का साथ देगा, यह सोचना गलत है| अभी 15 साल पहले तक वह पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिरदर्द था| कई बार दोनों देशों के बीच युद्घ के नगाड़े बज उठे| पाकिस्तान का आरोप था कि अफगानिस्तान उसे तोड़ना चाहता है| पाकिस्तान को तोड़कर वह पख्तूनिस्तान बनाना चाहता है| यह सही है| अफगानिस्तान ऐसा अकेला राष्ट्र्र था, जिसने पाकिस्तान के संयुक्तराष्ट्र्र-प्रवेश का विरोध किया था| लेकिन स्वतंत्र् दक्षिण एशिया के इतिहास में यह घड़ी पहली बार आई है, जबकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दोनों ही एक ही महाशक्ति के मित्र् हैं| दोनों ही अमेरिका के सहयात्र्ी हैं और भारत भी उसी दिशा में बढ़ रहा है| अब ऐसा नहीं है कि भारत और अफगानिस्तान तो गुट-निरपेक्ष हैं और पाकिस्तान सीटो और सेन्टो में है| विश्व राजनीति का यह नया पहलू भी अफगानिस्तान के दक्षेस-प्रवेश को अधिक सार्थक और रचनात्मक बनाएगा|
अफगानिस्तान की भू-सामरिक उपयोगिता विलक्षण है, इसीलिए प्रधानमंत्र्ी मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में एक नई मांग पर जोर दिया| उन्होंने कहा कि दक्षेस के देश अपनी सीमा में से तीसरे देशों को रास्ता देने की बात मानें| इसका सीधा फायदा नेपाल और अफगानिस्तान को मिलेगा| यदि थल-मार्ग खुला रहे तो अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत का योगदान अमेरिका से भी ज्यादा हो सकता है| इस समय अमेरिका के नेतृत्व में लगभग 20 हजार विदेशी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं| यदि सड़क के रास्ते अफगानिस्तान जाना सुलभ हो तो भारत अपने 50 हजार इंजीनियरों, डाक्टरों, तकनीशियनों, शिक्षकों, अफसरों और सलाहकारों को वहां भेज सकता है| अफगान लोग भारतीयों को काफी पसंद करते हैं| वे अमेरिकियों के मुकाबले बहुत सस्ते पड़ते हैं| पाकिस्तानियों के समान वहां के अंदरूनी मामलों से भारतीय कार्मिकों का कुछ लेना-देना नहीं होता है| भारतीयों की दक्षता और सद्व्यवहार की छाप वहां पहले से है| अमेरिकी पैसा और भारतीय श्रम का संगम हो जाए तो अगले पॉंच साल में अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण हो सकता है| थल मार्ग के खुलने से भारत और पाकिस्तान का भी जबर्दस्त फायदा होगा| अफगानिस्तान का रास्ता दक्षेस देशों के लिए खुला रहेगा तो भारत और पाक के लिए मध्य एशिया के द्वार खुल जाएंगे| गैस और तेल की पाइप लाइनें अपने आप चल पड़ेंगी| भारत यूरोप तक थल-मार्ग से सीधे पहुंच सकेगा| नेपाल का रास्ता दक्षिण एशिया और चीन को पास लाने में सहायक होगा| प्रधानमंत्र्ी का यह कहना बहुत सारगर्भित है कि औपनिवेशिक काल के पहले जो भारत था, उसके रास्ते अगर वर्तमान दक्षिण एशियाई राष्ट्र्रों के लिए पहले की तरह खुल जाऍं तो यह पिछड़ा हुआ दक्षिण एशिया, सम्पूर्ण एशिया का अग्रगण्य क्षेत्र् बन सकता है|
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