Dainik Hindustan, 19 Nov 2009 : बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद मेरी यह तीसरी अमेरिका यात्रा है, इस यात्रा के दौरान मैंने जितनी चिंता अफगानिस्तान के बारे में देखी, पहले कभी नहीं देखी। पिछले कुछ समय से ओबामा-प्रशासन के अनेक अधिकारी, कुछ सीनेटर और कांग्रेसमैन, विदेशी राजदूतगण, और प्रोफेसर निरंतर पूछ रहे हैं कि अफगानिस्तान के चक्रव्यूह से अमेरिकी अभिमन्यु को बाहर कैसे निकाला जाए?
मुझे लगता है कि इसके लिए एक पांच सूत्री कार्यक्रम बनाना होगा। पहला सूत्र यह है कि ओबामा घोषणा करें कि फलां तारीख को अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें वापस चली आएंगी। एक भी लड़ाकू अमेरिकी सिपाही उस तारीख के बाद अफगानिस्तान में नहीं रहेगा। यह तारीख मेरी राय में 31 दिसंबर 2010 होनी चाहिए। अमेरिकी फौजों का अर्थ है, समस्त विदेशी फौजें। इस घोषणा का अमेरिका में चमत्कारी असर होगा। ओबामा को लगेगा कि वे दूसरी बार चुनाव जीत गए हैं। अमेरिका के डेमोकेट्र और रिपब्लिकन सभी उनके साथ हो जाएंगे।
उधर अफगानिस्तान में भी हर्ष की लहर दौड़ जाएगी, क्योंकि अफगान जनता अपनी छाती पर विदेशी सैनिकों को कभी बर्दाश्त नहीं करती। डेढ़ सौ साल में वह तीन बार ब्रिटिश सेना और एक बार सोवियत सेना को कड़ुआ सबक सिखा चुकी है, अफगान लोगों ने शुरू में पश्चिमी सेनाओं (इसाफ) का स्वागत जरूर किया था, लेकिन अब वे मानते हैं कि तालिबान की वापसी का मुख्य कारण यह विदेशी सेनाओं की उपस्थिति ही है।
दूसरा सूत्र। यदि एक वर्ष में सारी विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान से निकल जाएं तो क्या हामिद करजई सरकार टिक पाएगी? क्या अफगानिस्तान में अराजकता नहीं फैल जाएगी? बिल्कुल फैल जाएगी। तो क्या किया जाए? कम से कम पांच लाख जवानों की फौज और पुलिस दल खड़े किए जाएं। ये सब अफगान हों। 36 साल पहले जब जाहिरशाह का तख्तापलट हुआ था तो अफगान फौज और पुलिस की संख्या लगभग दो लाख थी।
अब जनसंख्या दुगुनी हो गई है और 30 साल से निरंतर युद्ध की स्थिति बनी हुई है। यदि पांच लाख जवानों की फौज खड़ी की जाए तो फिर किसी बेरोजगार नौजवान को कंधार या काबुल की सड़कों पर भटकते हुए आप नहीं देख पाएंगे। पांच लाख अफगान जवानों की फौज पर जो खर्च होगा, वह पांच हजार पश्चिमी फौजियों से भी कम होगा। अफगान राष्ट्रीय फौज का पूरा खर्च पांच साल तक अमेरिकी और नाटो दोनों उठाएं तो भी वे रोज करोड़ों डॉलर की बचत करेंगे। यदि अफगानिस्तान से विदेशी फौजों की वापसी हो जाए तो तालिबान का औचित्य अपने आप खत्म हो जाएगा। अफगान जवानों और अफसरों को प्रशिक्षण देने का काम भारत बखूबी कर सकता है। तुरंत कुछ लड़ाकू जवानों की जरूरत हो तो एशिया और अफ्रीका के जवानों को भेजा जा सकता है।
तीसरा सूत्र! तालिबान और अलकायदा जिंदा है, अफीम की आमदनी से। अफगानिस्तान में दुनिया की सबसे ज्यादा अफीम पैदा होती है। अफीम की आमदनी अफगान सरकार के कुल बजट से भी ज्यादा है। वह भ्रष्टाचार की जननी भी है। या तो अफीम की खेती पर पूर्ण रोक लगा दी जाए या भारत की तरह उस पर कठोर सरकारी नियंत्रण हो।
चौथा सूत्र। अफगानिस्तान को मिलने वाली अरबों डॉलर की मदद पर अफगान-सरकार का नियंत्रण नहीं के बराबर है। खुद राष्ट्रपति हामिद करजई का कहना है कि कुल विदेशी मदद की सिर्फ चार प्रतिशत राशि पर उनकी सरकार का नियंत्रण है। शेष 96 प्रतिशत राशि ‘प्रांतीय पुनर्निर्माण दलों’ (पीआरटी) को दे दी जाती है। इससे भ्रष्टाचार और लापरवाही को तो बढ़ाती ही है, केंद्र सरकार को प्रभावहीन बना देती है यह अफगान-संप्रभुता पर प्रश्न-चिन्ह भी लगाती है। विदेशी मदद और विदेशी फौजों के संचालन का अंतिम और औपचारिक अधिकार हामिद करजई सरकार के हाथ में होना चाहिए।
पांचवां सूत्र। करजई सरकार एक तरफ हिंसावादियों से डटकर जरूर लड़े लेकिन यह जरूरी है कि वह उनसे बातचीत का रास्ता भी खोले। आखिर वे भी मादरे-वतन के बेटे हैं। तालिबान और अलकायदा के नेताओं से अब से 10-12 साल पहले मुझे लंबी बातचीत का मौका मिला है। मेरा मानना है कि वे तर्कशील हैं। उनसे बातचीत हो सकती है। उनसे बातचीत किन मुद्दों पर और कैसे हो, यह अलग विषय है।
इन पांच सूत्रों पर एक साथ काम किया जाए तो अगले एक साल में अमेरिका अफगान-दलदल में से खुद को बाहर निकाल सकता है। इन पांच सूत्रों को लागू करते समय अफगान सरकार की छवि यदि संप्रभु और सर्वशक्तिमान सरकार की नहीं बनी तो सफलता मिलना मुश्किल है। इस छवि को सुदृढ़ बनाने के लिए यह जरूरी है कि करजई सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध बेमिसाल कदम उठाए।
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यक्ष हैं
अफगानिस्तान : चक्रव्यूह से कैसे निकले अभिमन्यु
Dainik Hindustan, 19 Nov 2009 : बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद मेरी यह तीसरी अमेरिका यात्रा है, इस यात्रा के दौरान मैंने जितनी चिंता अफगानिस्तान के बारे में देखी, पहले कभी नहीं देखी। पिछले कुछ समय से ओबामा-प्रशासन के अनेक अधिकारी, कुछ सीनेटर और कांग्रेसमैन, विदेशी राजदूतगण, और प्रोफेसर निरंतर पूछ रहे हैं कि अफगानिस्तान के चक्रव्यूह से अमेरिकी अभिमन्यु को बाहर कैसे निकाला जाए?
मुझे लगता है कि इसके लिए एक पांच सूत्री कार्यक्रम बनाना होगा। पहला सूत्र यह है कि ओबामा घोषणा करें कि फलां तारीख को अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें वापस चली आएंगी। एक भी लड़ाकू अमेरिकी सिपाही उस तारीख के बाद अफगानिस्तान में नहीं रहेगा। यह तारीख मेरी राय में 31 दिसंबर 2010 होनी चाहिए। अमेरिकी फौजों का अर्थ है, समस्त विदेशी फौजें। इस घोषणा का अमेरिका में चमत्कारी असर होगा। ओबामा को लगेगा कि वे दूसरी बार चुनाव जीत गए हैं। अमेरिका के डेमोकेट्र और रिपब्लिकन सभी उनके साथ हो जाएंगे।
उधर अफगानिस्तान में भी हर्ष की लहर दौड़ जाएगी, क्योंकि अफगान जनता अपनी छाती पर विदेशी सैनिकों को कभी बर्दाश्त नहीं करती। डेढ़ सौ साल में वह तीन बार ब्रिटिश सेना और एक बार सोवियत सेना को कड़ुआ सबक सिखा चुकी है, अफगान लोगों ने शुरू में पश्चिमी सेनाओं (इसाफ) का स्वागत जरूर किया था, लेकिन अब वे मानते हैं कि तालिबान की वापसी का मुख्य कारण यह विदेशी सेनाओं की उपस्थिति ही है।
दूसरा सूत्र। यदि एक वर्ष में सारी विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान से निकल जाएं तो क्या हामिद करजई सरकार टिक पाएगी? क्या अफगानिस्तान में अराजकता नहीं फैल जाएगी? बिल्कुल फैल जाएगी। तो क्या किया जाए? कम से कम पांच लाख जवानों की फौज और पुलिस दल खड़े किए जाएं। ये सब अफगान हों। 36 साल पहले जब जाहिरशाह का तख्तापलट हुआ था तो अफगान फौज और पुलिस की संख्या लगभग दो लाख थी।
अब जनसंख्या दुगुनी हो गई है और 30 साल से निरंतर युद्ध की स्थिति बनी हुई है। यदि पांच लाख जवानों की फौज खड़ी की जाए तो फिर किसी बेरोजगार नौजवान को कंधार या काबुल की सड़कों पर भटकते हुए आप नहीं देख पाएंगे। पांच लाख अफगान जवानों की फौज पर जो खर्च होगा, वह पांच हजार पश्चिमी फौजियों से भी कम होगा।
अफगान राष्ट्रीय फौज का पूरा खर्च पांच साल तक अमेरिकी और नाटो दोनों उठाएं तो भी वे रोज करोड़ों डॉलर की बचत करेंगे। यदि अफगानिस्तान से विदेशी फौजों की वापसी हो जाए तो तालिबान का औचित्य अपने आप खत्म हो जाएगा। अफगान जवानों और अफसरों को प्रशिक्षण देने का काम भारत बखूबी कर सकता है। तुरंत कुछ लड़ाकू जवानों की जरूरत हो तो एशिया और अफ्रीका के जवानों को भेजा जा सकता है।
तीसरा सूत्र! तालिबान और अलकायदा जिंदा है, अफीम की आमदनी से। अफगानिस्तान में दुनिया की सबसे ज्यादा अफीम पैदा होती है। अफीम की आमदनी अफगान सरकार के कुल बजट से भी ज्यादा है। वह भ्रष्टाचार की जननी भी है। या तो अफीम की खेती पर पूर्ण रोक लगा दी जाए या भारत की तरह उस पर कठोर सरकारी नियंत्रण हो।
चौथा सूत्र। अफगानिस्तान को मिलने वाली अरबों डॉलर की मदद पर अफगान-सरकार का नियंत्रण नहीं के बराबर है। खुद राष्ट्रपति हामिद करजई का कहना है कि कुल विदेशी मदद की सिर्फ चार प्रतिशत राशि पर उनकी सरकार का नियंत्रण है। शेष 96 प्रतिशत राशि ‘प्रांतीय पुनर्निर्माण दलों’ (पीआरटी) को दे दी जाती है। इससे भ्रष्टाचार और लापरवाही को तो बढ़ाती ही है, केंद्र सरकार को प्रभावहीन बना देती है यह अफगान-संप्रभुता पर प्रश्न-चिन्ह भी लगाती है। विदेशी मदद और विदेशी फौजों के संचालन का अंतिम और औपचारिक अधिकार हामिद करजई सरकार के हाथ में होना चाहिए।
पांचवां सूत्र। करजई सरकार एक तरफ हिंसावादियों से डटकर जरूर लड़े लेकिन यह जरूरी है कि वह उनसे बातचीत का रास्ता भी खोले। आखिर वे भी मादरे-वतन के बेटे हैं। तालिबान और अलकायदा के नेताओं से अब से 10-12 साल पहले मुझे लंबी बातचीत का मौका मिला है। मेरा मानना है कि वे तर्कशील हैं। उनसे बातचीत हो सकती है। उनसे बातचीत किन मुद्दों पर और कैसे हो, यह अलग विषय है।
इन पांच सूत्रों पर एक साथ काम किया जाए तो अगले एक साल में अमेरिका अफगान-दलदल में से खुद को बाहर निकाल सकता है। इन पांच सूत्रों को लागू करते समय अफगान सरकार की छवि यदि संप्रभु और सर्वशक्तिमान सरकार की नहीं बनी तो सफलता मिलना मुश्किल है। इस छवि को सुदृढ़ बनाने के लिए यह जरूरी है कि करजई सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध बेमिसाल कदम उठाए।
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यक्ष हैं
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