Dainik Bhaskar, 10 Aug 2011 : ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी हेलिकॉप्टर पहली बार गिरा है। इसके पहले भी नाटो फौजों के कई हेलिकॉप्टर गिर चुके हैं, लेकिन पिछले शुक्रवार को वरदक प्रांत में जो हेलिकॉप्टर गिरा है, उसने नाटो सेनाओं को हिला दिया है। पहली बार उसके 31 सिपाही एक साथ मारे गए हैं। उनके साथ सात अफगान भी मारे गए हैं। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई ने तो श्रद्धांजलि अर्पित की ही है, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी शोक संवेदना का बयान जारी करना पड़ा है।
इस दुर्घटना को असाधारण महत्व मिलने के कई कारण हैं। पहला तो यही कि अफगानिस्तान से नाटो फौजों की विदाई की शुरुआत को अभी दो हफ्ते भी नहीं हुए और यह अपशगुन हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि तालिबान की ताकत और उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। ओसामा बिन लादेन की हत्या के बावजूद तालिबान और अलकायदा अपने मोर्चे पर डटे हैं।
अमेरिकियों का यह दावा भी खोखला सिद्ध हो रहा है कि तालिबान के साथ उनकी सीधी बातचीत हो रही है। अगर बातचीत हो रही है तो यह खून-खराबा कैसे हो रहा है? या तो बातचीत किन्हीं नकली तालिबान के साथ हो रही है या तालिबान के अनेक गुट बन गए हैं, जिनका एक-दूसरे से कोई समन्वय नहीं है। ताजा घटना का संदेश यह है कि अमेरिकी वापसी का मार्ग कंटकाकीर्ण है।
इस घटना पर समस्त अफगान विशेषज्ञों का ध्यान इसलिए भी केंद्रित हो रहा है कि यह हेलिकॉप्टर कंधार, कुनर, पख्तिया या जलालाबाद में नहीं गिरा। ये वे प्रांत हैं, जो पाकिस्तान की सीमा के निकट हैं। ये इलाके लगभग अराजक हैं, लेकिन वरदक प्रांत तो काबुल के पश्चिम में है। वह अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित सूबा है।
अफगानिस्तान के वर्तमान रक्षा मंत्री इसी प्रांत के हैं। यदि राजधानी से सटे प्रांत में तालिबान इतनी गुस्ताखी कर सकते हैं तो क्या उस परिदृश्य की कल्पना भी की जा सकती है, जब विदेशी फौजों की वापसी हो जाएगी? क्या काबुल में कोई भी सरकार कुछ दिन भी टिक पाएगी? यह अबूझ पहेली है।
वरदक में तालिबान ने अमेरिकी हेलिकॉप्टर क्या गिराया, उन्होंने अमेरिकी आत्मविश्वास पर भी सीधी चोट कर दी। ओसामा कांड के बाद अमेरिकियों का मनोबल ऊंचा हो गया था। अब जबकि अमेरिका अपने आर्थिक दलदल में फंसा हुआ है, इस घटना ने उन्हें यह संदेश दिया है कि वे 2014 में भी अफगानिस्तान से पिंड नहीं छुड़ा सकेंगे।
इसका संकेत ओबामा के बयान से भी मिलता है। इस घटना के पहले भी ओबामा के रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री घुमा-फिराकर कह चुके हैं कि अफगानिस्तान से अमेरिका की पूर्ण वापसी आसान नहीं है। इस घटना ने अमेरिकी जनता को बता दिया है कि उसके सैनिक-औद्योगिक प्रतिष्ठान ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। कर्ज में डूबी अमेरिकी जनता को अफगान युद्ध का खर्च अभी कुछ वर्ष और भुगतान करना होगा।
इस हेलिकॉप्टर प्रसंग ने उन गुप्त चोटों को हरा कर दिया है, जो सीधे अमेरिकियों को तो नहीं लगी थीं, लेकिन जिन्होंने पूरे अफगान प्रशासन को प्रकंपित कर दिया था। पिछले कुछ हफ्तों में राष्ट्रपति करजई के भाई की हत्या हुई और उसके कुछ दिन बाद ही उनके अपने एक अत्यंत विश्वस्त अफसर को मार गिराया गया। तालिबान स्वयं पठान हैं और इसके बावजूद उन्होंने पठान नेताओं और अफसरों की हत्या करने में कोई झिझक नहीं दिखाई।
उन्होंने इस साल जून माह तक 383 विदेशी फौजियों की हत्या कर दी और खुलेआम धमकी दी है कि उनकी हत्या सूची में तथाकथित बड़े-बड़े अफगान नेताओं के नाम भी हैं। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि वे तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक कि अफगान मादरे वतन के सीने पर एक भी विदेशी सैनिक के बूट जमे होंगे।
डर यही है कि तालिबानी हिंसा कहीं सांप्रदायिक दंगों का रूप धारण न कर ले। तालिबान प्राय: गिलजई पठान हैं। वे अन्य पठानों से भी लड़ सकते हैं और ताजिक, उज्बेक, हजारा आदि गैरपठान जातियों से तो उनका बैर जगजाहिर ही है। अमेरिकी वापसी की खबर ज्यों-ज्यों गर्म होती है, अफगानिस्तान के सामाजिक ढांचे के छिन्न-भिन्न होने की आशंका भी बलवती होने लगती है।
अफगानिस्तान का दुर्भाग्य यह है कि पिछले 40 साल से वह तूफानी लहरों में फंसा है। जाहिरशाह के बाद के अफगानिस्तान ने अपने आप को सदा अस्थिरता के दौर में पाया है। इस अस्थिरता को गहराने में सबसे बड़ा योगदान पाकिस्तान का है। आज भी पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपने पैरों पर खड़ा नहीं देखना चाहता। वह यह जरूर चाहता है कि अमेरिका अफगानिस्तान को खाली कर दे ताकि उस शून्य को पाकिस्तान भर दे, लेकिन पाकिस्तान में इतिहास बोध का अभाव है।
क्या उसे पता नहीं कि वह अफगानिस्तान पर तो कब्जा क्या कर पाएगा, उसका सिंधु नदी तक का इलाका भी उसके हाथ से खिसक जाएगा। अफगान उस पर कब्जा कर लेंगे। जिस राष्ट्र ने तीन युद्धों में अंग्रेजों के घुटने टिकवा दिए, सोवियत संघ की कमर तोड़ दी और जिसने दस साल से अमेरिकियों के छक्के छुड़ा रखे हैं, क्या वह पाकिस्तान जैसे लचर-पचर राष्ट्र का उपनिवेश बन सकता है? अफगानिस्तान ने तो 1948 में पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने तक का विरोध किया था।
ऐसे शूरवीर देश को कोई भी विदेशी सत्ता ठंडा नहीं कर सकती। अफगान संकट को हल करने की दवा सिर्फ एक ही है। उसके पास स्वदेशी फौज, प्रशासन और संवैधानिक ढांचा हो। विदेशी सहायता और हस्तक्षेप से कभी-कभी तात्कालिक उपचार तो हो जाता है, लेकिन वह अफगान मानस पर गहरे घाव छोड़ जाता है। अमेरिका यदि सोचता है कि जहां ब्रिटिश और सोवियत साम्राज्य फेल हो गए, वहां वह सफल हो जाएगा तो पक्का मानिए कि अकेला अफगानिस्तान उसे दिवालिया बना देगा।
न वह अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा कर सकता है और न ही वह उसे भगवान भरोसे छोड़ सकता है। उसकी गरिमापूर्ण वापसी का मार्ग बहुत सरल है, लेकिन उस मार्ग को पहचानना अमेरिका जैसे राष्ट्र के लिए जरा कठिन है। यदि भारत जैसे नि:स्वार्थ राष्ट्र की मदद से अमेरिका अगले एक वर्ष में पांच लाख जवानों की अफगान फौज खड़ी कर दे तो न केवल उसकी ससम्मान वापसी हो सकती है, बल्कि अफगानिस्तान दक्षिण एशिया की समृद्धि का सूत्रधार भी बन सकता है।
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