Dainik Bhaskar, 19 Jan 2005 : महमूद अब्बास ने फ्ऎलस्तीन के राष्ट्रपति का चुनाव क्या जीता, सारे अरब जगत में आशा और उमंग की लहरें दौड़ा दीं। यह ठीक है कि यासर अराफ्ऎात की तरह अब्बास सारी दुनिया में चमचमाने वाली कुतुब मीनार नहीं है लेकिन उन्हें दुनिया उस बंदरगाह की तरह देख रही है, जिसमें शांति के जहाज को पनाह मिल सकती है। इसीलिए बुश, पूतिन, श्रोडर तथा दुनिया के सभी महत्वपूर्ण नेता अब्बास की विजय का भरपूर स्वागत कर रहे हैं। इसमें शक नहीं कि अराफ्ऎात की गिनती अरब जगत के बड़े नेताओ में होने लगी थी और फ्ऎलस्तीनी आंदोलन में भी उनका एकछत्र वर्चस्व जीवन भर बना रहा लेकिन उनका यह भूषण ही दूषण बन गया था। पिछले तीन चार वर्षों में यदि अमेरिका अफ्ऎगानिस्तान और एराक में नहीं उलझता तो यह लगभग निश्चित था कि वह फ्ऎलस्तीन में तख्ता पलट करवा देता। उसने अराफ्ऎात को जितनी खुली धमकियाँ दी थीं, उतनी उसने उनके पहले फ्ऎिदेल कास्त्रो और बाद में सद्दाम हुसैन को ही दी थीं। इस्राइल और अमेरिका ने मिलकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं कि अराफ्ऎात रमल्ला के अपने मुख्यालय में ही कैद होकर रह गए थे। ओस्लो और वाशिंगटन शांति समझौतों के पिता अराफ्ऎात को अशांति, आतंक और अकड़ का प्रतीक बना दिया गया था। अमेरिका की टेक यही थी कि जब तक अराफ्ऎात फ्ऎलस्तीन के राष्ट्रपति रहेंगे, समझौते की संभावना खॅूंटी पर टंगी रहेगी। अराफ्ऎात के निधन पर अमेरिका और इस्राइल ने चैन की साँस ली लेकिन तब भी फ्ऎलस्तीन-इस्राइल सम्वाद की दिशा क्या होगी, यह अनिश्चित-सा ही था। अब महमूद अब्बास की विजय ने नए अध्याय का सूत्रपात कर दिया है।
इसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि अब्बास प्रचंड बहुमत से जीते हैं। उन्हें दो-तिहाई बहुमत मिला है। उनके विरुद्ब सात उम्मीदवार थे। केवल एक उम्मीदवार को 20 प्रतिशत मत मिले। शेष बुरी तरह हारे। यदि अब्बास को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो भी वे अवश्य जीतते, क्योंकि वे अराफ्ऎात के उत्तराधिकारी और उनकी पार्टी अल फ्ऎतह के उम्मीदवार थे लेकिन वैसी हालत में वे इस लायक नहीं रहते कि इस्राइल के साथ आत्मविश्वासपूर्वक बात कर पाते। उनकी हालत वैसी ही नाजुक हो जाती, जैसी कि इस्राइली प्रधानमंत्री एरियल शेरों की है, जो कि एक गठबंधन सरकार चला रहे हैे।
अब्बास की प्रचंड विजय इस बात का प्रमाण है कि फ्ऎलस्तीनी लोग आतंकवाद के समर्थक नहीं हैं। यदि आम फ्ऎलस्तीनी आतंकवाद समर्थक होते तो आतंकवादी संगठन `हमास’ और `इस्लामी जिहाद’ अपने उम्मीदवार जरुर खड़े करते। उन्होंने न सिर्फ्ऎ चुनाव नहीं लड़ा बल्कि वे चुनाव में बाधा भी नहीं डाल पाए। अर्थात् अब्बास की विजय फ्ऎलस्तीनी जनता की शांति कामना का प्रतीक है। यदि इस तथ्य को इस्राइली नीति निर्माता ठीक से समझ लें तो वे प्रत्येक फ्ऎलस्तीनी को आतंकवादी मानना बंद कर देंगे और यह समझ् दोनों पक्षों में विलक्षण सदभाव को जन्म देगी।
अपने चुनाव अभियान के दौरान अब्बास ने कुछ भाषण ऐसे जरुर दिए हैं, जो अराफ्ऎात की याद ताजा करते हैं लेकिन उन्होंने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। आतंक को उन्होंने गलत बताया है। अराफ्ऎात अपने अंतिम दिनों में इस मुद्दे पर जरा लड़खड़ाने लगे थे। इसीलिए शेरों उन्हें `मुख्य आतंकवादी’ या `आतंकवादियों का सरगना’ कहकर बदनाम करते थे । अब्बास के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता। असलियत यह है कि 2003 में अपने संक्षिप्त प्रधानमंत्रीकाल में अब्बास ने अराफ्ऎात के जीते जी ही अहिंसा को शांति समझौते का आधार घोषित किया था। अब अब्बास के शिखर पर पहुँचने से इस्राइलियों का शांति प्रक्रिया में विश्वास बढ़ेगा। यह अलग बात है कि `हमास’ और `जिहाद’ के नेता फ्ऎिलहाल अब्बास का विरोध नहीं कर रहे हैं लेकिन उन्होंने चुनाव के बाद भी यही कहा है कि उन्हें इस्राइल से न्याय की कोई आशा नहीं है। वह पश्चिमी तट की बस्तियाँ, पूर्व यरुशलम और गाजा पट्टी खाली नहीं करेगा और शरणार्थियों को भी नहीं लौटने देगा। फ्ऎलस्तीनी आतंकवादियों ने गाजा की यहूदी बस्तियों पर मिसाइल मारकर अपशकुन करने की कोशिश भी की है। शेरों दुबारा कोप-भवन में प्रविष्ट हो गए हैं। फ्ऎिलहाल उन्होंने बातचीत के द्वार बंद कर लिए हैं। अब्बास की सबसे बड़ी दुविधा यही है। एक तरफ्ऎ उन्हें इस्राइल के साथ ऐसा सम्वाद कायम करना है कि वह फ्ऎलस्तीनियों को सार्वभौम राज्य स्थापित करने दे और खुद को 1967 के पहले की सीमाओं में सिकोड़ ले और दूसरी तरफ्ऎ उसे `हमास’ और `जिहाद’ को काबू में रखना है कि वे आतंक न फ्ऎैलाएँ और अब्बास की कुर्सी न हिलाएँ। इसीलिए जीतने के बाद अब्बास ने जो बयान दिया है, उसमें उन्होंने `जिहादे असगर’ के समाप्त होने और ‘जिहादे अकबर’ को अब सम्पन्न करने की घोषणा की है याने युद्ब और हिंसा के परित्याग को आवश्यक बताया है। उन्होंने यह भी कहा है कि अब हिंसा का युद्ब समाप्त हो गया है और शांति का युद्ब शेष है।
अब्बास ने एरियल शेरों से मिलने में कोई झिझक नहीं दिखाई है। उन्होंने बेशर्त मुलाकात की बात कही है। वे शांति प्रक्रिया शीघ्रातिशीघ्र शुरु करना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में अब्बास के सफ्ऎल होने के आसार इसलिए भी बन रहे हैं कि अमेरिका उनका प्रशंसक है। कुछ लोग यह मानते हैं कि अमेरिकी दबाव के कारण ही अराफ्ऎात मजबूर हुए थे कि वे अब्बास को अपना प्रधानमंत्री बनाएँ। राष्ट्रपति बुश ने अब्बास को अमेरिका आने का निमंत्रण भी दिया है। अमेरिका की सक्रिय सहायता के बिना यह अरब इस्राइली विवाद आसानी से नहीं निपट सकता। लाखों फ्ऎलस्तीनी शरणार्थियों का पुनर्वास, यहूदी बस्तियों का तबादला और फ्ऎलस्तीन में राज्य व्यवस्था को कायम करना बच्चों का खेल नहीं है। उसके लिए अरबों डॉलर की जरुरत है। अरब राष्ट्रों के शेख और सुल्तान फ्ऎलस्तीनियों के साथ हमदर्दी तो रखते हैं लेकिन उनके लिए अपनी अण्टी ढीली करने के लिए तैयार नहीं होते। ऐसी स्थिति में संयुक्तराष्ट्र के तत्वावधान में यदि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय कोई पहल करे तो जाहिर है कि अमेरिका पीछे नहीं रहेगा। अमेरिका की सक्रिय भागीदारी के फ्ऎलस्वरुप इस्राइल पर भी कुछ लगाम लगेगी। अमेरिका एकमात्र देश है, इस्राइल जिसकी सुनता है। अब्बास की विजय ने शांति-प्रक्रिया को बहाल करने के लिए अनुकूल वातावरण तो बना दिया है लेकिन शांति का मार्ग अभी भी कई अंधेरी गलियों से होकर गुजरेगा। अब्बास को मौका मिला है, वह करने का, जो अराफ्ऎात न कर सके।
`हमास’ और `जिहाद’ जैसे आतंकवादी संगठनों पर अब्बास न प्रतिबंध लगा सकते हैं और न ही उन्हें बलपूर्वक काबू कर सकते हैं, यह तथ्य इस्राइल को समझना होगा। अब्बास की मजबूरी को समझे बिना यदि शेरों अब भी वही करेंगे जो उन्होंने रक्षा मंत्री के तौर पर सब्रा और शतीला में किया था तो वे शांति प्रक्रिया को कई वर्षों तक आगे खिसका देंगे। जाहिर है कि शेरों के हाथ उतने मजबूत नहीं हैं, जितने कि अब्बास के हैं। गाजा पट्टी से यहूदी बस्तियाँ हटाने के शेरों के इरादे के विरुद्ब खुली बगावत का एलान हो गया है। यहूदी फ्ऎौजी भड़क उठे हैं। दो वोटों के बहुमत से चल रही शेरों की सरकार भी अंदर से हिलने लगी है। इस नाजुक स्थिति में केवल अमेरिका ही फ्ऎलस्तीन की नाव को डूबने से बचा सकता है।
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