Dainik Bhaskar, 20 Jan 2005 : अगर `द न्यूयार्कर’ में सेमौर हर्ष का लेख नहीं छपता तो लोग यही अंदाज लगाते कि राष्ट्रपति जॉर्ज बुश अपनी दूसरी पाली में पहले से अधिक संजीदा सिद्ब होंगे। वे दुबारा एराक़ नहीं रचाएँगे। किसी नए उसामा बिन लादेन की दाढ़ी नोंचने का काम नहीं करेंगे। किसी अराफ्ऎात के तख्ता-पलट की तदबीर नहीं खोजेंगे। किसी राष्ट्र की छाती पर `शैतान की आँत’ का बिल्ला नहीं टाँकेंगे। दादागीरी की अपनी कर्कश छवि में कुछ मधुर और सुहावने रंग भरेंगे लेकिन सेमौर हर्ष ने इन सब संभावनाओं पर पानी फ्ऎेर दिया है। हर्ष के मुताबिक बुश ने अपने जिरह-बख्तर दुबारा पहन लिये हैं और वे अपनी तलवार पर दुबारा धार चढ़ा रहे हैं। अफ्ऎगानिस्तान और एराक़ के बाद अब ईरान की बारी है। अब से लगभग तीन साल पहले ही जॉर्ज बुश ईरान को, उत्तर कोरिया और एराक़ के साथ-साथ, `बुराई की जड़’ का तमगा दे चुके हैं। ईरान को अब वे परमाणु और रासायनिक हथियारों से मुक्त करेंगे।
एराक़ के दल-दल में फ्ऎँसे बुश से यह आशा किसी को भी नहीं थी कि वे इस समय ईरान की तरफ्ऎ नज़रें भी उठाएँगे लेकिन सेमौर हर्ष ने लिखा है कि पिछले चार-पाँच माह में अमेरिका ने अपने जासूस ईरान में घुसा दिए हैं ताकि वह जान सके कि परमाणु और रासायनिक हथियार के भूमिगत गुप्त अड्डे कहाँ-कहाँ हैं? जासूसी के हिसाब से ईरान घाटे का सौदा है। अमेरिकियों को जितनी दिक्कत ईरान में होती है, उतनी कभी सोवियत संघ में भी नहीं हुआ करती थी। ईरान के शिया और आयतुल्लाह खुमैनी के चेले इतने खुर्राट हैं कि अमेरिकी कूटनीतिज्ञों और पत्रकारों को वे न्यूनतम सूचना भी एकत्रित नहीं करने देते। अब से लगभग पच्चीस साल पहले ईरानियों ने तेहरान स्थित अमेरिकी राजदूतावास पर बाकायदा कब्जा कर लिया था और उसका नाम `अमेरिकी जासूसखाना’ रख दिया था। उन दिनों ईरानी नेता अमेरिका को `बड़ा शैतान’ (शैतान-ए-बुजुर्ग) और सोवियत संघ को छोटा शैतान (शैतान-ए-कूचक) कहा करते थे। यह कटुता इस हद तक पहँुच गई है कि ईरान के सबसे कट्टर दुश्मन सद्दाम हुसैन को ध्वस्त करने के बावजूद अमेरिका के साथ ईरान की दोस्ती नहीं बन सकी। जैसे सद्दाम हुसैन के खिलाफ्ऎ अमेरिका ने पहले से गाँठ बाँध रखी थी, वैसे ही अमेरिकी आज तक नहीं भूले हैं कि जिमी कार्टर का गुप्त हमला ईरान के `पुश्ते-बदम’ में किस बुरी तरह विफ्ऎल हुआ था। छोटे-से ईरान ने सूपर्णखा की नाक काट ली थी।
अब ईरान से बदला लेने का वक्त आ गया है। इसमें पाकिस्तान सक्रिय मदद कर रहा है। हर्ष का कहना है कि ईरान पर हमला करने के लिए पड़ौस में सैनिक अड्डे तैय ार किए जा रहे हैं। पाकिस्तान को अभय-वचन मिल चुका है। उसे नाटो-सम मित्र-राष्ट्र का दर्जा दिया गया है, ए क्यू खान के भयंकर परमाणु-अपराधों की अनदेखी की जा रही है, पाकिस्तान के परमाणु शस्त्रागार को बिल्कुल नहीं छुआ जा रहा है और उसके सामने एफ्ऎ-16 लड़ाकू जहाजों का ीगाजर दुबारा लटका दी गई है। आखिर यह सब क्यों किया जा रहा है? इसीलिए कि जब ईरान पर अमेरिकी बलात्कार हो तो पाकिस्तान आँख पर पट्टी बाँध ले और आँख मींचकर अमेरिका की सहायता करता रहे। पाकिस्तान के बलूच प्रांत की सीमाएँ ईरान से लगी हुई हैं। इसके अलावा ईरान की सीमा के निकट अफ्ऎगानिस्तान का शिन्दंद नामक जो हवाई अड्डा है, उसके भी इस्तेमाल की अपुष्ट खबरें आ रही हैं। एराक में चुनाव सम्पन्न होते हा ीअमेरिका ईरान पर टूट पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं है। सेमौर हर्ष के अनुसार अमेरिकी रक्षा और विदेश मंत्रालयों के अफ्ऎसरों का मानना है कि बुश की जीत ने उनकी आतंकवाद-विरोधी फ्ऎौजी कार्रवाइयों पर मुहर लगा दी है। अगर एराक और अफ्ऎगानिस्तान के मामले में बुश गलत होते तो अमेरिकी जनता उन्हें दुबारा राष्ट्रपति क्यों बनाती? इसीलिए अब ईरान में घुसना राष्ट्रपति बुश का परम पवित्र कर्तव्य बन गया है। पश्चिम एशिया में अमेरिकी स्वाथौं का ीरक्षा की दृष्टि से यह काम इतना जरुरी है कि अमेरिका ने एक मुस्लिम राष्ट्र–पाकिस्तान को दूसरी मुस्लिम राष्ट्र–ईरान की पीठ में छुरा भोंकने के लिए तैयार कर लिया है। यदि पाकिस्तानी नेता अपनी ही संतान तालिबान की गर्दन दबोच सकते हैं तो उन्हें ईरानी शियाओं का खून बहाने में कोई झिझक क्यों होगी? यों भी पाकिस्तान में अब यह माना जाने लगा है कि जनरल ज़िया के जहाज को उड़ाने की साजिश पाकिस्तानी शियाओं ने ही की थी। अपने शियाओं को सबक सिखाने के साथ-साथ पाकिस्तान को माकूल मौका मिला है कि वह अपने मालिक का हुकुम भी बजा लाए।
अमेरिका और पाकिस्तान की यह साँठ-गाँठ भारत के लिए क्या गुल खिलाएगी, यह अभी से विचारणीय है। भारत-ईरान का बढ़ता हुआ सहयोग ठप्प भी हो सकता है। गैस और तेल की पाइप लाइनों की परियोजना खटाई में पड़ सकती हैं। ईरान के पास यदि सचमुच परमाणु हथियार हैं तो कोई आश्चर्य नहीं कि वह अमेरिका और पाकिस्तान पर पूर्वाघात कर दे। पाकिस्तान पर परमाणु हथियार चलेंगे तो भारत अछूता कैसे रहेगा? ईरान एराक नहीं है। वहाँ कोई सद्दाम नहीं है और एराक़ की तरह ईर्रानी जनता आपस में बँटी हुई नहीं है। यदि अमेरिका ने कब्जा कर लिया तो उसे नाकों चने चबाने पड़ेंगे। जो ईरानी लोग अपनी छाती पर सवार शहंशाह को फ्ऎँूक मारकर उड़ा सकते हैं, वे बुश के बस में कैसे आएँगे? गुस्साया हुआ ईरान मध्य एशिया को भी गर्म तवा बना देगा। लेबनान से लद्दाख तक फ्ऎैले हुए जांबाज शिया लोग अमेरिकी अड्डों और दूतावासों को उड़ाने की कोशिश भी करेंगे। यदि अमेरिका ईरान पर कब्जा करने में सफ्ऎल हो गया तो उसे एराक़ की शिया बहुसंख्या को दबाने में भी मदद मिलेगी और फ्ऎिर क्या वह विश्व के सबसे बड़े शक्ति-भंडार का एकछत्र स्वामी नहीं बन जाएगा? इस्राइल, सउदी अरब, एराक, ईरान, अफ्ऎगानिस्तान और पाकिस्तान जिसकी जेब में पड़े हों, ऐसा अमेरिका भारत, चीन और रुस की तरफ्ऎ दोस्ती का जो हाथ बढ़ाएगा, वह इस्पात का होगा या मखमल का, यह बताने की जरुरत नहीं है। डर सिर्फ्ऎ यही है कि ईरान कहीं अमेरिकी साम्राज्य के अंत का कारण न बन जाए।
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