डॉ. वेदप्रताप वैदिकराष्ट्रीय सहारा, 29 जनवरी 2010 | श्रीलंका में राष्ट्रपति का चुनाव बहुत ही नीरस होनेवाला था लेकिन अचानक सारी दुनिया की नज़रें उस पर गड़ गइंर्| तमिल उग्रवादियों का समूल-नाश करनेवाले राष्ट्रपति महिंद्र राजपक्ष की विजय इतनी एकतरफा और प्रचंड होती कि वह अपने आप में एक मिसाल बन जाती लेकिन इसी डर से सारे नेता खिसक गए और उन्होंने राष्ट्रपति राजपक्ष से उनके ही सेनापति शरत फोन्सेका को भिड़ा दिया| जनरल फोन्सेका ने दावा किया कि लिट्टे और तमिल उग्रवादियों को खत्म करने का प्रमुख श्रेय उनको ही है, क्योंकि राजपक्ष तो राष्ट्रपति के रूप में सिर्फ जुबान चलाते रहे, असली लड़ाई तो उन्होंने और उनके बहादुर जवानों ने लड़ी है| फोन्सेका को न केवल प्रमुख विरोधी दल (यू एन पी) का समर्थन मिला बल्कि उग्र सिंहलवादी कम्युनिस्ट पार्टी – जनता विमुक्ति पेरामून तथा लिट्टे समर्थक तमिल गिरोह का सहारा भी मिला| फोन्सेका को सबसे बड़ा टेका लगाया पूर्व राष्ट्रपति चंदि्रका कुमारतुंग ने| चंदि्रका खुद श्रीलंका फ्रीडम पार्टी की नेता रही हैं लेकिन उन्होंने यूएनपी के फोन्सेका को चुनाव के चार-पाँच दिन पहले खुला समर्थन दे दिया| इसके बावजूद फोन्सेका हार गए| बुरी तरह हारे| उन्हें जितने वोट मिले (41 लाख) उससे डेढ़ गुने (60 लाख) राजपक्ष को मिले| 2005 के पिछले चुनाव में राजपक्ष सिर्फ एक लाख 80 हजार वोट से जीते थे| इस बार उनकी जीत 10 गुना ज्यादा वोटों से हुई है| यह कम बड़ी सफलता नहीं है|यदि जनरल फोन्सेका जीत जाते तो श्रीलंका के लोकतंत्र् को जबर्दस्त धक्का लगता| नागरिकतंत्र् पर सैन्यतंत्र् हावी हो जाता| सारे दक्षिण एशिया में भारत के अलावा श्रीलंका एकमात्र् ऐसा देश है, जहां लोकतंत्र् की मशाल कभी नहीं बुझी लेकिन अब डर यह है कि राजपक्ष का रवैया कहीं तानाशाह की तरह न हो जाए| उनके दोनों भाई पहले से सरकार में ऊँचें पदों पर हैं| उन पर और उनके रिश्तेदारों पर भाई-भतीजावाद और भ्रष्टचार के आरोप लगते रहे हैं| अपनी दूसरी अवधि में राजपक्ष को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा| इस समय उनकी भूमिका राष्ट्रपति से भी ऊँची याने राष्ट्रनायक की होगी| उन्हें न केवल जनरल फोन्सेका के समर्थकों का विश्वास अर्जित करना है, अपितु देश के तमिल और अल्पसंख्यकों को अपने साथ लेना है| यह ठीक है कि उत्तर और पूर्व के तमिल और मुस्लिम इलाकों में राजपक्ष को बहुत कम वोट मिले हैं लेकिन इससे कुपित होने की बजाय इसे चुनौती समझकर आगे बढ़ा जाना चाहिए| सच्चाई तो यह है कि इन क्षेत्रें में मतदान सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत हुआ है जबकि राष्ट्रीय औसत 70 प्रतिशत के आस-पास है| दूसरे शब्दों में इस चुनाव ने श्रीलंका की असली समस्या याने सिंहल-तमिल मनमुटाव को हल करने की दिशा में अभी तक कोई सहायता नहीं की है| श्रीलंका के कुछ तमिल और मुस्लिम मित्रें ने पिछले सप्ताह मुझसे कहा कि राजपक्ष और फोन्सेका में फर्क क्या है ? दोनों ही हमारे दुश्मन हैं| एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ| यदि राजपक्ष अपनी दूसरी अवधि में सिर्फ श्रीलंका के आर्थिक विकास और सुरक्षा की बात करते रहे और उन्होंने तमिलों के दुख दूर नहीं किए तो यह निश्चित है कि कुछ वर्षों में लिट्टे नया अवतार धारण करके दुबारा श्रीलंका की छाती पर आ बैठेगा| उन्होंने अपने चुनाव-घोषणा पत्र् में ‘एकात्मक राज्य’ का नारा इतनी जोर से दिया है कि तमिल लोग डर गए हैं| उन्हें डर है कि स्वायत्ता की बजाय कहीं भयंकर दमन ही उनके भाग्य में न लिखा हो| लिट्टे पर विजय के पश्चात लगभग तीन लाख तमिल नागरिकों ने तथाकथित शरणार्थी शिविरों में जो यातनाएं भुगती हैं, उनके कारण राजपक्ष की अन्तरराष्ट्रीय छवि मलिन हुई है| यदि राजपक्ष श्रीलंका को सिंहल उग्रवादी सोच के शिकंजे से मुक्त कर सकें और इस बहुजातीय राष्ट्र को सचमुच संघीय और विकेंदि्रत बना सकें तो दक्षिण एशिया में यह राष्ट्र आर्थिक प्रगति और राष्ट्रीय सौमनस्य का नमूना बन सकता है| सिंहल-तमिल मुठभेड़ के पहले याने अब से 30-35 साल पहले तक श्रीलंका कई मामलों में भारत से भी आगे था लेकिन तीन दशक के गृहयुद्घ ने उसे तबाह कर दिया है| यदि विश्व बैंक उसे लगभग 10 हजार करोड़ की आपात सहायता नहीं देता तो उसकी अर्थ-व्यवस्था का दम घुट जाता| यदि राजपक्ष श्रीलंका में मानव अधिकारों की समुचित रक्षा करें तो उन्हें यूरोपीय आर्थिक समुदाय का कोप-भाजन क्यों होना पड़े ? यदि वे अपने तमिलों को न्याय दिलाएंगें तो भारत में भी उनकी लोकपि्रयता बढ़ेगी, हालांकि तमिल उग्रवादियों का सफाया करने में भारत ने उनका निरंतर साथ दिया है| तमिल आतंकवाद का खात्मा करने के कारण पश्चिमी राष्ट्रों के बीच भी राजपक्ष की छवि निखरी है लेकिन अब उसे कायम रखने के लिए उन्हें तमिलों को न्याय दिलाने के लिए कटिबद्घ होना होगा| श्रीलंका की एकता, समरसता और लोकतांत्र्िक जीवन-पद्घति को सुद्दढ़ बनाने में भारत कभी पीछे नहीं रहेगा| भारत ने श्रीलंका के साथ न केवल मुक्त व्यापार की व्यवस्था कर रखी है बल्कि गत वर्ष उसे लगभग 500 करोड़ रू. की सहायता भी दी है| भारत उसे सैन्य सहायता भी देने के लिए तैयार है लेकिन श्रीलंका लालच में फंसकर यदि चीन और पाकिस्तान को अपने सिर पर बिठाने की कोशिश करेगा तो दोनों निकट पड़ौसियों में दूरियां बढ़ सकती हैं, जैसा कि इंदिरा-जयवर्दन काल में हुआ था| राजीव गांधी -काल में अपनी कुर्बानियोें के बावजूद भारत को सिंहलों और तमिलों, दोनों का गुस्सा झेलना पड़ा लेकिन पिछले डेढ़ दशक में भारत ने इन दोनों समुदायों का प्रेम और आभार अर्जित किया है| नए श्रीलंका के निर्माण में भारत की यह भूमिका बुनियादी सिद्घ होगी|
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं और ‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका’ नामक ग्रंथ के रचियता हैं)
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