रा सहारा, 20 अप्रैल 2007 : संयुक्तराष्ट्र संघ में अगर अब भी हिंदी नहीं आएगी तो कब आएगी ? हिंदी का समय तो आ चुका है लेकिन अभी उसे एक हल्के-से धक्के की जरूरत है| भारत सरकार को कोई लंबा चौड़ा खर्च नहीं करना है, उसे किसी विश्व अदालत में हिंदी का मुकदमा नहीं लड़ना है, कोई प्रदर्शन और जुलूस आयोजित नहीं करने हैं| उसे केवल डेढ़ करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करने होंगे, संयुक्तराष्ट्र के आधे से अधिक सदस्यों (96) की सहमति लेनी होगी और उसकी काम-काज नियमावली की धारा 51 में संशोधन करवाकर हिंदी का नाम जुड़वाना होगा| इस मुद्दे पर देश के सभी राजनीतिक दल भी सहमत हैं| सूरिनाम में संपन्न हुए पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने इस प्रस्ताव पर जब हस्ताक्षर करवाए तो सभी दलों के संासद-मित्रें ने सहर्ष उपकृत कर दिया|
कौन भारतीय है, जो अपने राष्ट्र की भाषा को विश्व-मंच पर दमकते हुए देखना नहीं चाहेगा| जिन भारतीयों को अपने प्रांतों में हिंदी के बढ़ते हुए वर्चस्व पर कुछ आपित्त है, वे भी संयुक्तराष्ट्र में हिंदी लाने का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि विश्व मंच पर 19 भाषाएँ भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं| वे यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि विश्व-मंच पर भारत गूँगा बनकर बैठा रहे| उनका उत्कट राष्ट्रप्रेम उन्हें प्रेरित करेगा कि हिंदी विश्व-मंच पर भारत की पहचान बनकर उभरे| उन्हें भारत की बढ़ती हुई शक्ति और संपन्नता पर उतना ही गर्व है, जितना किसी भी हिंदीभाषी को है| वे जानते हैं कि जिस राष्ट्र के मुँह में अपनी जुबान नहीं, वह महाशक्ति कैसे बन सकता है? उसे सुरक्षा परिषद्र की स्थायी सदस्यता कैसे मिल सकती है? स्थायी सदस्यता तो बहुत बाद की बात है| पहले कम से कम सदस्यता के द्वार पर भारत दस्तक तो दे| संयुक्तराष्ट्र में हिंदी ही यह दस्तक है|
अगर हमने संयुक्तराष्ट्र में पहले हिंदी बिठा दी तो हमें सुरक्षा परिषद्र में बैठना अधिक आसान हो जाएगा| 1945 में संयुक्तराष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ केवल चार थीं| अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी, और चीनी| सिर्फ ये चार ही क्यों? सिर्फ ये चार इसलिए कि ये चारों भाषाएँ पाँच विजेता महाशक्तियों की भाषा थीं| अमेरिका और बि्रटेन, दोनों की अंग्रेजी, रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी और चीन की चीनी! इन भाषाओं के मुकाबले इतालवी, जर्मन,जापानी आदि भाषाएँ किसी तरह कमतर नहीं थीं लेकिन वे विजित राष्ट्रों की भाषाएँ थी| याने जिस भाषा के हाथ में तलवार थी, ताकत थी, विजय-पताका थी, वही सिंहासन पर जा बैठी| क्या अब 62 साल बाद भी यही ताकत का तर्क चलेगा? जो ढाँचा द्वितीय महायुद्घ के बाद बना था, उसका लोकतंत्र्ीकरण होगा या नहीं? यदि होगा| तो संयुक्तराष्ट्र के सिंहासन पर विराजमान होने का सबसे पहला हक हिंदी का होगा| यदि 1945 में भारत आजाद होता तो उसकी भाषा हिंदी को संयुक्तराष्ट में अपने आप ही मान्यता मिल जाती|
1945 में जो चार भाषाएँ संयुक्तराष्ट्र की अधिकृत भाषाएँ बनीं, उनमें 1973 में दो भाषाएँ और जुडीं| हिस्पानी और अरबी! इन दोनों भाषाओं को बोलने वाले लगभग दो-दो दर्जन राष्ट्रों में से एक भी ऐसा नहीं था, जिसे महाशक्ति कह सकें या विकसित राष्ट्र मान लें| ये राष्ट्र आपस में मिलकर भी किसी महाशक्ति-मंडल की छवि प्रस्तुत नहीं करते| कई राष्ट्र एक ही भाषा जरूर बोलते हैं लेकिन वे गरीब हैं, पिछड़े हैं, छोटे हैं, पर-निर्भर हैं और अगर वे सशक्त और बड़े हैं तो आपस में झगड़ते हैं, संयुक्तराष्ट्र में एक-दूसरे के विरूद्घ मतदान करते हैं| दूसरे शब्दों में उनकी भाषाओं को संयुक्तराष्ट्र में शक्तिबल के कारण नहीं, संख्याबल के कारण मान्यता मिली|
हिंदी को तो पता नहीं, किन-किन बलों के कारण मान्यता मिलनी चाहिए| सबसे पहला कारण तो यह है कि हिंदी को मान्यता देकर संयुक्तराष्ट्र अपनी ही मान्यता का विस्तार करेगा| उसके लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया का यह शुभारम्भ माना जाएगा| 62 साल से विजेता और विजित के खाँचे में फँसी हुई संयुक्तराष्ट्र की छवि का परिष्कार होगा| दूसरा, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र्, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश और दुनिया के चौथे सबसे मालदार देश की भाषा को मान्यता देकर संयुक्तराष्ट्र अपना गौरव खुद बढ़ाएगा| तीसरा, हिंदी को मान्यता देनेका अर्थ है – तीसरी दुनिया और गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को सम्मान देना| भारत इन राष्ट्रों का नेतृत्व करता रहा है| चौथा, हिंदी विश्व की सबसे अधिक समझी और बोली जानेवाली भाषा है| संयुक्तराष्ट्र की पाँच भाषाओं से हिंदी की तुलना करना बेकार है| वह उनसे कहीं आगे है| हाँ, चीनी से तुलना हो सकती है| चीन की अधिकृत भाषा ‘मेंडारिन’ है| इस भाषा को बोलने-समझनेवालों की संख्या विभिन्न भाषाई-विश्वकोषों में लगभग 85 करोड़ बताई जाती है| उसे 100 करोड़ भी बताया जा सकता है| लेकिन असलियत क्या है? असलियत के बारे में बहुत-से मतभेद हैं| चीन में दर्जनों स्थानीय भाषाएँ हैं| उन्हें लोग दुभाषियों के बिना समझ ही नहीं पाते| मैं स्वयं 8-10 बार चीन घूम चुका हूँ| एक-एक माह वहाँ रहा हूँ| मुझे कई बार दो-दो तरह के दुभाषिए एक साथ रखने पड़ते थे| अगर यह मान लें कि दुनिया में चीनी भाषियों की संख्या एक अरब है तो भी इससे हिंदी पिछड़ नहीं जाती| आज हिंदीभाषियों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा है| सिनेमा और टीवी चैनलों की कृपा से अब लगभग सारे भारत के लोग हिंदी समझ लेते हैं और जरूरत पड़ने पर बोल भी लेते हैं| अगर मान लें कि दक्षिण भारत के 10-15 करोड़ लोगों को हिंदी के व्यवहार में अब भी कठिनाई है तो उसकी भरपाई दक्षेस के अन्य सात राष्ट्रों में बसे लगभग 35 करोड़ लोग कर देते हैं| उनमें से ज्यादातर हिंदी समझते हैं| उनके अलावा विदेशों में बसे दो करोड़ से ज्यादा भारतीय भी हिंदी का प्रयोग सगर्व करते हैं| अत: संख्याबल के कोण से देखा जाए तो संयुक्तराष्ट्र में हिंदी को प्रतिष्ठित करना दुनिया के लगभग डेढ़ अरब लोगों को प्रतिनिधित्व देना है|
पाँचवाँ, हिंदी जितने राष्ट्रों की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली-समझी जाती है, संयुक्तराष्ट्र की पहली चार भाषाएँ नहीं बोली-समझी जाती हैं| याद रहे बहुसंख्यक जतना द्वारा! यह ठीक है कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी ऐसी भाषाएँ हैं, जिन्हें बि्रटेन, फ्रांस और रूस के दर्जनों उपनिवेशों में बोला जाता रहा है| लेकिन ये भाषाएँ उन उपनिवेशों के दो-चार प्रतिशत से ज्यादा लोग आज भी नहीं बोलते जबकि हिंदी भारत ही नहीं, पाकिस्तान, नेपाल, मोरिशस, टि्रनिडाड,सूरिनाम,फीजी,गयाना,बांग्लादेश आदि देशों की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली और समझी जाती है| जब इस बहुराष्ट्रीय भाषा में संयुक्तराष्ट्र की गतिविधियाँ टी.वी. पर सुनाई देंगी तो कल्पना कीजिए कि कितने लोगों और कितने राष्ट्रों का संयुक्तराष्ट्र के प्रति जुड़ाव बढ़ता चला जाएगा|
छठा, यदि हिंदी संयुक्तराष्ट्र में प्रतिष्ठित होगी तो दुनिया की अन्य सैकड़ों भाषाओं के लिए शब्दों का नया खजाना खुल पड़ेगा| हिंदी संस्कृत की बेटी हैं| संस्कृत की एक-एक धातु से कई-कई हजार शब्द बनते हैं| एशियाई और अफ्रीकी ही नहीं, यूरोपीय और अमेरिकी भाषाओं में भी आजकल शब्दों का टोटा पड़ा रहता है| अन्तराष्ट्रीय विज्ञान और व्यापार के कारण रोज़ नए शब्दों की जरूरत पड़ती है| इस कमी को हिंदी पूरा करेगी| सातवाँ, इसके अलावा हिंदी के संयुक्तराष्ट्र में पहुँचते ही दुनिया की दर्जनों भाषाओं को लिबास मिलेगा| वे निवर्सन हैं| उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है| तुर्की, इंडोनेशियाई, मंगोल, उज़बेक, स्वााहिली, गोरानी आदि अनेक भाषाएँ हैं, जो विदेशी लिपियों में लिखी जाती हैं| मजबूरी है| हिंदी इस मजबूरी को विश्व-स्तर पर दूर करेगी| वह रोमन,रूसी और चित्र्-लिपियों का शानदार विकल्प बनेगी| उसकी लिपि सरल और वैज्ञानिक है| जो बोलो सो लिखो और जो लिखो, सो बोलो| संयुक्तराष्ट्र में बैठी हिंदी विश्व के भाषाई मानचित्र् को बदल देगी|
यदि हिंदी संयुक्तराष्ट्र में दनदनाने लगी तो उसके चार ठोस परिणाम एक दम सामने आएँगे| पहला, भारतीय नौकरशाही और नेताशाही को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिलेगी| भारत के राज-काज में हिंदी को उचित स्थान मिलेगा| दूसरा, भारतीय भाषाओं की जन्मजात एकता में वृद्घि होगी| तीसरा, दक्षेस राष्ट्रों में संगच्छध्वं संवदध्वं का भाव फैलेगा| जनता से जनता का जुड़ाव बढ़ेगा| तीसरा, वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अंग्रेजी का सशक्त विकल्प तैयार होगा| चौथा, स्वभाषाओं के जरिए होनेवाले शिक्षण, प्रशिक्षण और अुनसंधान की गति तीव्र होगी| उसके कारण भारत दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति करेगा| सचमुच वह विश्व-शक्ति और विश्व-गुरू बनेगा|
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