अमेरिका का मोहभंग
पहले खंभे अमेरिका पर सबसे जबर्दस्त चोट हुई ओसामा बिन लादेन कांड से। ओसामा को मारकर अमेरिका तो फूले नहीं समाया था, लेकिन उसे इस कांड से जितनी खुशी हुई, उससे ज्यादा मोहभंग हुआ। अमेरिकी नीति निर्माताओं की बात जाने दीजिए। उन्हें तो पहले से पाकिस्तान की दोगली नीतियों का सुराग लग चुका था, लेकिन अमेरिका के भोलेभाले करदाताओं कोइस बार जबर्दस्त धक्का लगा है। उन्हें जरा भी अंदाज नहीं था कि जिस पाकिस्तान को अरबों-खरबों डॉलर चटाकर उन्होंने अपना चौकीदार बनाया था, वही उनके हत्यारे का शरणदाता है। उनका खासमखास ही उनकी जेब काटता रहा।
कयानी क्या करेंगे
ओसामा कांड के बाद अमेरिका में पाकिस्तान विरोधी जनमत की लहर इतनी तेजी से उठी कि अमेरिकी कांग्रेस में दो नए विधेयक पेश किए गए। एक यह जानने के लिए कि ओसामा वगैरह को छिपाए रखने में पाकिस्तान की भूमिका क्या थी और दूसरा यह कि पाकिस्तान की सैन्य सहायता में कटौती कैसे की जाए। यों पिछले साल जो प्रसिद्ध ‘केरी लुगार कानून’ पास हुआ था, उसका लक्ष्य भी यही था कि पाकिस्तान को दी जाने वाली सालाना 15 हजार करोड़ की मदद पर कड़ी निगरानी रखी जाए, यानी यदि वह राशि आतंकवाद विरोध में खर्च न की जाए तो उसे जारी न रखा जाए। इसका एक अभिप्राय यह भी था कि अमेरिकी मदद का इस्तेमाल हमेशा की तरह भारत के विरुद्ध न किया जाए।
ओसामा कांड के बाद अमेरिका को अब एक नया शक हो गया है। वह यह कि पाकिस्तान पहले अमेरिकी मदद का इस्तेमाल सिर्फ भारत के विरुद्ध करता था, अब वह उसका इस्तेमाल खुद अमेरिका के ही खिलाफ करता है। कोई भी राष्ट्र इतनी बड़ी हिमाकत कैसे बर्दाश्त कर सकता है? इसीलिए अमेरिकी सीनेट के विदेशी संबंधों की शक्तिशाली समिति के मुखिया सीनेटर जॉन केरी, विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और सीआईए प्रमुख पिछले तीन हफ्तों में इस्लामाबाद पहुंच चुके हैं।
राष्ट्रपति ओबामा और इन अमेरिकी नेताओं ने दोटूक शब्दों में पाकिस्तान को हिदायत दे दी है। पाकिस्तान से अमेरिका का यह मोहभंग काफी गहरा है, लेकिन अमेरिका अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह पाकिस्तान का टेंटुआ कस सके। वह पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित नहीं कर सकता। उसकी सैन्य और आर्थिक मदद बंद नहीं कर सकता। पाकिस्तानी फौज को नीचे और राजनीतिक नेताओं को ऊपर कर दे, यह भी उसके हाथ में नहीं है।
पाकिस्तानी राष्ट्र के असली पति तो जनरल अशफाक कयानी ही हैं, जिन्होंने पिछले दिनों साफ-साफ कहा है किपाकिस्तान की सुरक्षा और विदेश नीति उसकी फौज ही चलाएगी।
इस स्थिति के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है। उसने ही पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को प्रोत्साहित किया। उसने ही पाक परमाणु बम की अनदेखी की। जब तक आतंकवाद भारत और अफगानिस्तान को तंग करता रहा, अमेरिका ने जरा भी परवाह नहीं की। 2001 में खुद उस पर हमला हुआ तो उसकी नींद खुली। वह जाकर पाकिस्तान की गोद में बैठ गया। अब उसे मालूम पड़ा कि जिन पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे।
अफगानिस्तान से ससम्मान वापसी की मजबूरी के कारण अमेरिका इस समय पाकिस्तान को झूठे दिलासे देता रहेगा, जैसेकिब्रिटिश प्रधानमंत्री केमरून और हिलेरी क्लिंटन ने अभी दिए हैं, लेकिन उस पर भरोसा अब वह कभी नहीं करेगा। पाकिस्तानी नेता इसे समझ गए हैं, इसलिए चीन के साथ गहनतम सामरिक साझीदार बनाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं और अपने साथ काबुल को भी घसीटना चाहते हैं। लेकिन वे भूल रहे हैं कि चीनियों को धोखा देना आसान नहीं है।
पाकिस्तान को अपनी फौज पर बड़ा नाज था। अयूब खां जबर्दस्त डींगें मारा करते थे। 1971 में बांग्लादेश ने पाकिस्तानी फौज की नाक काट दी थी, अब ओसामा प्रकरण ने उसका मुंह काला कर दिया है। मेहरान अड्डे ने उसकी रही-सही साखको भी पेंदे में बिठा दिया है। भारत के इस आरोप को इन घटनाओं ने अत्यंत प्रबल बना दिया है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार किसी भी दिन आतंकवादियों के हाथों में चले जा सकते हैं।
अमेरिकियों को पता है कि ये चोरी के परमाणु बम सबसे पहले किस देश पर फेंके जाएंगे। कोई आश्चर्य नहीं किअफगानिस्तान वाला मतलब निकल जाने के बाद अमेरिका पाकिस्तान के परमाणु संस्थानों और भंडारों पर वैसी ही कार्रवाई करे, जैसे किउसने एबटाबाद में ही है। ओसामा के मुकाबले परमाणु बम कहीं ज्यादा खतरनाक हैं।
जिन्ना का सपना
इस आशंका ने पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं और वहां की जनता की भी नींद हराम कर रखी है। पाकिस्तान के लोग यह खूब समझते हैं कि उनकी फौज में इतना दम नहीं है कि वह अमेरिकियों का मुकाबला कर सके। जैसे 1983 में इसाइल ने सद्दाम हुसैन के परमाणु संयंत्रों को उड़ा दिया था, वैसा ही कुछ अमेरिका भी कर सकता है। अमेरिका और आर्मी पर से हिले हुए इस विश्वास के कारण पाकिस्तान में ट्यूनीशिया और इजिप्ट की तरह कोई जन उभार हो जाए और वहां सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो जाए तो पाकिस्तान की जनता अपने पांव पर खड़ी हो सकती है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान वही होगा।
मुहम्मद अली जिन्ना को क्या पता था कि उनके उत्तराधिकारी ऐसे निकलेंगे। पाकिस्तान को उन्होंने बिलकुल चौपट राज्य बना दिया है। अंतरराष्ट्रीय समाज में पाकिस्तान की इज्जत तार-तार हो गई है। उसकी जनता के दिल में अपने देश के लिए कोई गर्व नहीं रह गया है।पाकिस्तान के अनेक मित्र अपनी आंतरिक वेदना को प्रकट करने में आजकल संकोच भी नहीं करते। पाकिस्तान जब बना तो माना जा रहा था कि यह नकली राष्ट्र है। यह टिकेगा कैसे? चलेगा कैसे? तो जवाब आया कि इसे तीन लोग चलाएंगे और बनाएंगे- अमेरिका, आर्मी और अल्लाह। तीन ‘अ’ के खंभों पर टिके पाकिस्तान के पहले दो खंभे तो ढह चुके हैं। अब सिर्फ तीसरा खंभा यानी अल्लाह बचा हुआ है। पाकिस्तान का अब बस अल्लाह ही बेली है।
अमेरिका का मोहभंग
पहले खंभे अमेरिका पर सबसे जबर्दस्त चोट हुई ओसामा बिन लादेन कांड से। ओसामा को मारकर अमेरिका तो फूले नहीं समाया था, लेकिन उसे इस कांड से जितनी खुशी हुई, उससे ज्यादा मोहभंग हुआ। अमेरिकी नीति निर्माताओं की बात जाने दीजिए। उन्हें तो पहले से पाकिस्तान की दोगली नीतियों का सुराग लग चुका था, लेकिन अमेरिका के भोलेभाले करदाताओं कोइस बार जबर्दस्त धक्का लगा है। उन्हें जरा भी अंदाज नहीं था कि जिस पाकिस्तान को अरबों-खरबों डॉलर चटाकर उन्होंने अपना चौकीदार बनाया था, वही उनके हत्यारे का शरणदाता है। उनका खासमखास ही उनकी जेब काटता रहा।
कयानी क्या करेंगे
ओसामा कांड के बाद अमेरिका में पाकिस्तान विरोधी जनमत की लहर इतनी तेजी से उठी कि अमेरिकी कांग्रेस में दो नए विधेयक पेश किए गए। एक यह जानने के लिए कि ओसामा वगैरह को छिपाए रखने में पाकिस्तान की भूमिका क्या थी और दूसरा यह कि पाकिस्तान की सैन्य सहायता में कटौती कैसे की जाए। यों पिछले साल जो प्रसिद्ध ‘केरी लुगार कानून’ पास हुआ था, उसका लक्ष्य भी यही था कि पाकिस्तान को दी जाने वाली सालाना 15 हजार करोड़ की मदद पर कड़ी निगरानी रखी जाए, यानी यदि वह राशि आतंकवाद विरोध में खर्च न की जाए तो उसे जारी न रखा जाए। इसका एक अभिप्राय यह भी था कि अमेरिकी मदद का इस्तेमाल हमेशा की तरह भारत के विरुद्ध न किया जाए।
ओसामा कांड के बाद अमेरिका को अब एक नया शक हो गया है। वह यह कि पाकिस्तान पहले अमेरिकी मदद का इस्तेमाल सिर्फ भारत के विरुद्ध करता था, अब वह उसका इस्तेमाल खुद अमेरिका के ही खिलाफ करता है। कोई भी राष्ट्र इतनी बड़ी हिमाकत कैसे बर्दाश्त कर सकता है? इसीलिए अमेरिकी सीनेट के विदेशी संबंधों की शक्तिशाली समिति के मुखिया सीनेटर जॉन केरी, विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और सीआईए प्रमुख पिछले तीन हफ्तों में इस्लामाबाद पहुंच चुके हैं।
राष्ट्रपति ओबामा और इन अमेरिकी नेताओं ने दोटूक शब्दों में पाकिस्तान को हिदायत दे दी है। पाकिस्तान से अमेरिका का यह मोहभंग काफी गहरा है, लेकिन अमेरिका अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह पाकिस्तान का टेंटुआ कस सके। वह पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित नहीं कर सकता। उसकी सैन्य और आर्थिक मदद बंद नहीं कर सकता। पाकिस्तानी फौज को नीचे और राजनीतिक नेताओं को ऊपर कर दे, यह भी उसके हाथ में नहीं है।
पाकिस्तानी राष्ट्र के असली पति तो जनरल अशफाक कयानी ही हैं, जिन्होंने पिछले दिनों साफ-साफ कहा है किपाकिस्तान की सुरक्षा और विदेश नीति उसकी फौज ही चलाएगी।
इस स्थिति के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है। उसने ही पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को प्रोत्साहित किया। उसने ही पाक परमाणु बम की अनदेखी की। जब तक आतंकवाद भारत और अफगानिस्तान को तंग करता रहा, अमेरिका ने जरा भी परवाह नहीं की। 2001 में खुद उस पर हमला हुआ तो उसकी नींद खुली। वह जाकर पाकिस्तान की गोद में बैठ गया। अब उसे मालूम पड़ा कि जिन पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे।
अफगानिस्तान से ससम्मान वापसी की मजबूरी के कारण अमेरिका इस समय पाकिस्तान को झूठे दिलासे देता रहेगा, जैसेकिब्रिटिश प्रधानमंत्री केमरून और हिलेरी क्लिंटन ने अभी दिए हैं, लेकिन उस पर भरोसा अब वह कभी नहीं करेगा। पाकिस्तानी नेता इसे समझ गए हैं, इसलिए चीन के साथ गहनतम सामरिक साझीदार बनाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं और अपने साथ काबुल को भी घसीटना चाहते हैं। लेकिन वे भूल रहे हैं कि चीनियों को धोखा देना आसान नहीं है।
पाकिस्तान को अपनी फौज पर बड़ा नाज था। अयूब खां जबर्दस्त डींगें मारा करते थे। 1971 में बांग्लादेश ने पाकिस्तानी फौज की नाक काट दी थी, अब ओसामा प्रकरण ने उसका मुंह काला कर दिया है। मेहरान अड्डे ने उसकी रही-सही साखको भी पेंदे में बिठा दिया है। भारत के इस आरोप को इन घटनाओं ने अत्यंत प्रबल बना दिया है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार किसी भी दिन आतंकवादियों के हाथों में चले जा सकते हैं।
अमेरिकियों को पता है कि ये चोरी के परमाणु बम सबसे पहले किस देश पर फेंके जाएंगे। कोई आश्चर्य नहीं किअफगानिस्तान वाला मतलब निकल जाने के बाद अमेरिका पाकिस्तान के परमाणु संस्थानों और भंडारों पर वैसी ही कार्रवाई करे, जैसे किउसने एबटाबाद में ही है। ओसामा के मुकाबले परमाणु बम कहीं ज्यादा खतरनाक हैं।
जिन्ना का सपना
इस आशंका ने पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं और वहां की जनता की भी नींद हराम कर रखी है। पाकिस्तान के लोग यह खूब समझते हैं कि उनकी फौज में इतना दम नहीं है कि वह अमेरिकियों का मुकाबला कर सके। जैसे 1983 में इसाइल ने सद्दाम हुसैन के परमाणु संयंत्रों को उड़ा दिया था, वैसा ही कुछ अमेरिका भी कर सकता है। अमेरिका और आर्मी पर से हिले हुए इस विश्वास के कारण पाकिस्तान में ट्यूनीशिया और इजिप्ट की तरह कोई जन उभार हो जाए और वहां सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो जाए तो पाकिस्तान की जनता अपने पांव पर खड़ी हो सकती है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान वही होगा।
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