जनसत्ता, 10 जुलाई 2009 : रूस और अमेरिका के शीर्ष-नेता या तो मिलते ही नहीं हैं और अगर वे मिलते हैं तो सारी दुनिया सांस रोककर देखती है कि देखें, अब क्या होगा ? शीत-युद्घ के दौरान महाशक्तियों के इन वाग्दंगलों का मज़ा संसार ने खूब लूटा लेकिन 20 साल पहले समाप्त हुए शीतयुद्घ के बाद भी रूस और अमेरिका के संबंधों में कोई खास गर्मजोशी दिखाई नहीं पड़ी लेकिन इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की मास्को-यात्र ने दोनों महाशक्तियों के आपसी संबंधों को नए धरातल पर पहुंचा दिया है| दोनों देशों के बीच एक नए अध्याय की शुरूवात का वातावरण बन गया है| यों तो राष्ट्रपति बुश और रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पूतिन के बीच 2001 में अच्छा संवाद शुरू हुआ था लेकिन पिछले 7-8 साल में दोनों देशों के संबंध इतने बिगड़ते गए कि शीत-युद्घ की प्रतिध्वनियॉं दुबारा सुनाई देने लगीं थीं| 21 वीं सदी में दोनों पक्षों से हमें वैसी ही आवाजें सुनाई देने लगी थीं, जैसी कि कभी आइजनहावर और खुश्चौफ के मुंह से सुनाई पड़ती थीं| अमेरिका और रूस के सहयोग से बने संयुक्तराष्ट्र संघ में पिछले कुछ वर्षों से वैसे ही दृश्य दिखाई पड़ने लगे थे, जैसे कभी डलेस और ग्रोमीको के ज़माने में दिखाई पड़ते थे| ऐसा लगने लगा था कि अब रूस और अमेरिका दुबारा गुटबंदियों के दौर में प्रवेश कर रहे हैं|
अमेरिका ने अपने शीतयुद्घकालीन आक्रामक संगठन ‘नाटो’ को शिथिल या विसर्जित करने की बजाय उसे और अधिक फैलाया| उसमें न केवल रूसपरस्त वारसा पेक्ट के देशों को शामिल कर लिया बल्कि कुछ ऐसे नए देशों को भी मिला लिया, जो कल तक सोवियत संघ के प्रांत थे| जार्जिया और उक्रेन को मिला लेने की भी योजना थी| दूसरे शब्दों में कमज़ोर रूस को अपने हाल पर छोड़ देने की बजाय अमेरिका ने उसे पहले से भी ज्यादा घेरने की कोशिश की| जार्जिया और उक्रेन को बुश-प्रशासन ने हर तरह से रूस के विरूद्घ उकसाया| अमेरिका ने 2001 में अफगानिस्तान पर तो कब्जा कर ही लिया, वह उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और किरगिजिस्तान पर भी डोरे डालने लगा| सोवियत संघ के इन पुराने प्रांतों में वह अपने सैनिक अड्रडे बनाने की भी जुगत भिड़ाने लगा| उसे सफलता भी मिली| किरगिजिस्तान के प्रमुख हवाई अड्रडे, मनस, में सभी सैन्य-सुविधाएं भी मिल गईं| अमेरिका ने चेचन्या के बागियों की भी मदद हर तरह से की| रूस के घावों पर वह बराबर नमक छिड़कता चला जा रहा था| अमेरिकी विदेश नीति की एक बड़ी सफलता यह भी थी कि युद्घोत्तर विश्व में पहली बार अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तीनों देश एक साथ एक ही समय में अमेरिका के मित्र् बन गए| भारत और अफगानिस्तान जैसे सोवियत-मित्र् देशों से अमेरिका ने घनिष्टतम संबंध स्थापित कर लिए| अमेरिका ने यूरोपीय संघ के राष्ट्रों को भी रूस के विरूद्घ घेराबंदी करने के लिए उकसाया| यूरोपीय संघ ने नाबूक्को पाइप लाइन का निर्माण करने की योजना बनाई और रूस को दरकिनार कर दिया| अमेरिका ने रूस को चिढ़ानेवाला सबसे खतरनाक काम यह भी किया कि रूस के पड़ौसी देशों को मिसाइल-कवच देने की घोषणा की याने संभवित रूसी मिसाइलों के हमलों से उन्हें बचाने के लिए रक्षात्मक प्रबंध की व्यवस्था शुरू की| राष्ट्रपति पूतिन ने इसे बहुत ही आक्रामक और निदंनीय अभियान बताया और इसके विरूद्घ अपने प्रसिद्घ म्युनिख-भाषण में शंखनाद-सा कर दिया|
यदि अमेरिका ने रूस के विरूद्घ घेरेबंदी की तो रूस भी हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहा| उसने अमेरिका के पड़ौसी राष्ट्रों में प्रचार-अभियान छेड़ दिया| अमेरिका-विरोधी राष्ट्रों के दौरे लगाने में रूसी नेताओं ने जबर्दस्त मुस्तैदी दिखाई| रूसी नेताओं ने लातीनी अमेरिकी देशों में अपने प्रभाव का विस्तार उसी पैमाने पर शुरू कर दिया, जैसा कि खुशचौफ और बुल्गानिन ने अब से लगभग 50 साल पहले किया था| यह ठीक है कि पहले के मुताबिक इस समय रूस के पास न तो उतनी सैन्य-शक्ति रह गई थी और न ही अर्थ-शक्ति, फिर भी अमेरिका के मुकाबले वह आज भी दुनिया में दूसरे नंबर की शक्ति है| इसीलिए रूस ने किसी न किसी रूप में अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने की बात ठान रखी थी|
उसने अपने पड़ौसी राष्ट्रों और अपने पूर्व-प्रांतों को दो-टूक शब्दों में बता दिया कि रूस के हितों के विरूद्घ जाने के परिणाम क्या होंगे| रूस के पास तेल के धन से उपजी आकस्मिक समृद्घि का भी उसने जमकर इस्तेमाल किया| रूस ने समस्त अंतरराष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल यह कहने के लिए किया कि यह नया संसार बहुध्रुवीय बनना चाहिए याने अमेरिकी की एकध्रुवीय दादागीरी समाप्त होनी चाहिए| अमेरिका जहॉं-जहां दादागीरी दिखाता, वहॉं-वहॉं रूस या तो उसका विरोध करता या फिर काफी अलग रवैया अपनाता| जैसे फलस्तीन, ईरान और उत्तर कोरिया के सवालों पर रूस का रवैया अपने ढंग का अलग था| रूस ने अमेरिका के साथ चीन की तरह न तो व्यापार बढ़ाने की कोशिश की और न ही शस्त्रस्त्रें के किसी समझौते के लिए कोई उत्साह दिखाया| हांॅ, उसने चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और कुछ लातीनी देशों के साथ मिलकर बहुध्रुवीय विश्व के नारे को बुलंद करना शुरू कर दिया| अमेरिका और रूस के बीच तनाव इतना बढ़ गया कि पिछले आठ वर्षों में दोनों राष्ट्राध्यक्षों की भेंट ही नहीं हुई|
इस पृष्ठभूमि में ओबामा का मास्को जाना और दो बड़े समझौतों पर राजी होना युद्घोत्तर विश्व की उल्लेखनीय घटना है| ओबामा ने अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तरह किसी भी रूप में अहंकार-प्रदर्शन नहीं किया बल्कि प्रसिद्घ ईसाई सद्गुण-विनम्रता-का पहली बार सही प्रयोग किया| वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने रूसी भूमि पर खड़े होकर माना कि अमेरिका कोई दूध का धुला हुआ देश नहीं है| उसमें भी कमियॉं हैं और उसने गल्तियॉं भी की हैं| उन्होंने रूस के साथ बराबरी के आधार पर संबंध बनाने की भी बात की| उन्होंने रूसी नेताओं और जनता को आश्वस्त किया कि अमेरिका रूस की खुशहाली चाहता है| एक अर्थ में ओबामा उस सद्रभावनापूर्ण वातावरण को तैयार करने में सफल हुए, जो कभी याल्ता सम्मेलन के दौरान देखा गया था| 43 वर्षीय ओबामा और 47 वर्षीय दिमित्री मेद्रयेदेव, दोनों ही युद्घोत्तर काल में जन्मे नेता हैं| दोनों के बीच सार्थक संवाद तो हुआ ही, पूतिन के साथ भी ओबामा की खूब पटी | ओबामा ने प्रोटोकॉल का सवाल नहीं उठाया| ओबामा को पता है कि प्रधानमंत्री के कनिष्ठ पद पर रहने के बावजूद पूतिन कितने ताकतवर हैं| पूतिन के कठोर व्यक्तित्व की तरफ इशारा करके कुछ दिन पहले कहा गया ओबामा का चर्चित वाक्य दोनों के संवाद में आड़े नहीं आया| ओबामा ने अपनी पत्र्कार-परिषद में पूतिन की भूरि-भूरि प्रशंसा की|
दोनों राष्ट्रों के नेताओं ने जो दो समझौते किए हैं, वे दोनों राष्ट्रों के बीच संबंधों को घनिष्ट तो बनाएंगे ही, वे विश्व-निरस्त्रीकरण पर भी गहरा असर डालेंगे| इसके अलावा अफगानिस्तान संबंधी समझौते के भी गहरे फलितार्थ हैं| उससे दक्षिण एशिया की राजनीति पर अच्छा असर पड़ेगा| पिछले दो दशक से दोनों राष्ट्रों के बीच कोई ठोस शस्त्र्-नियंत्र्ण समझौता नहीं हो पा रहा था| दोनों राष्ट्र एक-दूसरे से काफी संशक्ति रहते थे| शीत-युद्घ की समाप्ति के दौर में दोनों महाशक्तियों ने सामरिक शस्त्र्-नियंत्र्ण संधि-1 पर दस्तखत किए थे, जो अगले 5 दिसंबर को समाप्त हो जाएगी| न तो नई संधि हो पा रही थी और न ही इस संधि पर ठीक से अमल हो पा रहा था लेकिन पिछले चार-पांच प्रशासनों की नीति को बदलते हुए ओबामा ने घोषणा की है कि वे नई संधि करेंगे, जो दोनों देशों के 2200 परमाणु शस्त्रें को घटाकर 1500 से 1675 तक कर देगी और उनके प्रक्षेपक यानों की संख्या 1600 से घटाकर 1000 से 500 तक कर देगी| दिसंबर तक यह संधि बाकायदा संपन्न हो जाएगी| हालांकि यह कोई चमत्कारी कदम नहीं है, क्योंकि दोनों महाशक्तियों के पास इस संधि के बाद भी जितने परमाणु शस्त्र् बचेंगे, उनकी इन्हें बिल्कुल भी जरूरत नहीं है| इन बचे हुए शस्त्रें की शक्ति इतनी ज्यादा होगी कि वे दुनिया का संहार कई बार कर सकने में समर्थ होंगे| फिर भी निरस्त्रीकरण की दिशा में यह संधि मील का पत्थर साबित होगी| मेदवेद्येव ने इस समझौते को यथार्थवादी मध्यम मार्ग कहा है, क्योंकि अभी भी रूस इस बात से नाराज़ है कि अमेरिका ने रूस के पड़ौसी राष्ट्रों में मिसाइल-कवच लगाने की योजना का परित्याग नहीं किया है लेकिन रूस को इस बात से खुश होना चाहिए कि अमेरिका ने उसके इस आग्रह को मान लिया है कि हथियारों को घटाते समय उनके आक्रामक या रक्षात्मक होने में फर्क न किया जाए| याने दोनों तरह के मिसाइलों को घटाऍं| रूस और अमेरिका के इस समझौते के फलस्वरूप अन्य परमाणु-शस्त्र् संपन्न राष्ट्रों पर भी कुछ रचनात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है| भारत-पाक, रूस-चीन और बि्रटेन-फ्रांस जैसे देश अपने क्षेत्रीय समझौते इसी पद्घति पर कर सकते हैं| रूस और अमेरिका के बीच हुआ यह शस्त्र्-नियंत्र्ण समझौता व्यापक और समग्र विश्व-निरस्त्रीकरण की नींव बन सकता है|
ओबामा और मेद्रवेद्रयेव के बीच दूसरा महत्वपूर्ण समझौता अफगानिस्तान को लेकर हुआ है| इसके तहत अब रूस अमेरिका को अपनी वायु-सीमा से सीधे अफगानिस्तान पहुंचने की सुविधा देगा| अब अमेरिका की एक साल में 4500 उड़ानंे अफगानिस्तान जा सकेंगी| पहले सीमित अनुमति थी लेकिन अब फौज-पाटा, हथियार, खाद्यान्न आदि सब कुछ जा सकेगा| अमेरिका का लगभग सवा सौ मिलियन डॉलर खर्च बचेगा और समय भी कम लगेगा| तालिबान की कमर तोड़ने में इस समझौते की महत्वपूर्ण भूमिका होगी| ओबामा अफगान-युद्घ को जीतने पर आमादा हैं| उन्होंने अभी अफगानिस्तान में अपना कमांडर भी बदला है और मदद भी बढ़ाई है| रूस के इस सकि्रय सहयोग से पूरे दक्षिण एशिया में सहयोग की नई हवा बहेगी| संभवत: रूसी दबाव के कारण ही किरगिजिस्तान का हाथ से फिसलता हुआ मनस का सैनिक अड्रडा भी अमेरिका की पकड़ में आ गया है| रूस का सहयोग लेने की खातिर अमेरिका को अब अपनी नाटो-रणनीति और मिसाइल-कवच नीति को अपने आप नरम करना पड़ेगा| यों भी इस यात्र के दौरान ओबामा ने द्विराष्ट्रीय सहयोग के लिए 1990 में स्थापित आयोग को दुबारा जिंदा कर दिया है| इस आयोग का काम सिर्फ सामरिक और राजनीतिक सहयोग के मुद्रदों पर बातचीत करना ही नहीं हैं बल्कि दोनों देशों के बीच व्यापार, विनिवेश तथा सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार बढ़ाना भी है| यदि इस तरह का बहुविध सहकार दोनों देशों के बीच अब तक लगातार बढ़ता रहता होता, जैसा कि चीन और अमेरिका के बीच होता रहा है तो आपसी लिहाजदारी इतनी बढ़ जाती कि पिछले आठ साल का ठहराव शायद आता ही नहीं| ओबामा की इस यात्र से यह ठहराव टूटेगा जरूर ! यदि मास्को में हुई घोषणाओं पर ईमानदारी से अमल होता रहा तो ओबामा का कार्यकाल विश्व राजनीति के इतिहास में अपनी अलग पहचान बना लेगा|
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