Hindustan, 22 July 2011 : हिलेरी क्लिंटन की भारत-यात्रा के दौरान गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी कोरा नाटक ही मालूम पड़ती है। फई वाशिंगटन में कश्मीर-अमेरिकन कौंसिल चलाते हैं। इसे आईएसआई ने लगभग 20 करोड़ रुपये चोरी-छिपे दिए हैं, ऐसा अमेरिकी पुलिस का आरोप है। लेकिन यह किसे पता नहीं है कि ‘कश्मीर का झंडा’ उठाने वाले इस आदमी को सभी अमेरिकी सरकारों का वरदहस्त प्राप्त रहा है। विभिन्न अमेरिकी राष्ट्रपति इस कौंसिल को अपनी शुभकामनाएं भेजते रहे हैं और दर्जनों रिपब्लिकन व डेमोक्रेट सीनेटर व कांग्रेसमैन इसके अधिवेशनों में भाग लेते रहे हैं। इस कौंसिल पर अमेरिकी सरकार ने अब इसलिए हाथ नहीं डाला है कि वह कश्मीर पर भारत के साथ हो गई है, बल्कि इसका मूल कारण यह हो सकता है कि वह पाकिस्तान सरकार को डराना चाहती है, जो अपने यहां सीआईए के एजेंटों को तंग कर रही है। इससे भारत को फिजूल ही खुश होने की जरूरत नहीं है। हां, हिलेरी की भारत-यात्रा के मौके पर पाकिस्तान सरकार की इससे बुरी भद्द पिट गई है।
हिलेरी भारत इस बहाने से आईं कि वह भारत के साथ ‘सामरिक-संवाद’ करेंगी। क्या सामरिक संवाद किया उन्होंने? उन्होंने नई दिल्ली व चेन्नई के अपने भाषणों में उपदेशों की झड़ी लगा दी। भारत को पता है कि उसे क्या करना चाहिए। असली प्रश्न यह है कि हम जो कुछ करना चाहते हैं, क्या अमेरिकी सरकार उसे ठीक से समझती है? उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि उन कार्यों को क्रियान्वित करने में अमेरिकी सरकार का कुछ योगदान होना चाहिए या नहीं? अमेरिका के उकसावे पर भारत चीन से क्यों भिड़े?
सबसे पहले पाकिस्तान को ही लें। कोई भी अमेरिकी नेता जब भारत आता है, तो भारत की जय बोलता है और जब पाकिस्तान जाता है, तो पाकिस्तान की जय बोलता है। इससे बेहतर तो रूजवेल्ट, कैनेडी और निक्सन का जमाना था, जब मतभेद की लकीरें साफ-साफ खिंची हुई थीं। भारत गुटनिरपेक्ष था, लेकिन सोवियत संघ के करीब था और पाकिस्तान अमेरिकी सैन्य-गुटों का सदस्य था और दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों का चौकीदार बना हुआ था। वह अमेरिका और चीन के बीच पुल काकाम भी कर रहा था। तब की बात समझ में आती थी, लेकिन अब अमेरिका की मजबूरी क्या है, कुछ समझ में नहीं आता।
भारत आकर भी हिलेरी वही घिसा-पिटा मंत्र जप रही हैं कि आतंक की लड़ाई में पाकिस्तान अमेरिका का करीबी सहयोगी है। यह वह तब कह रही हैं, जब ओसामा बिन लादेन कांड हो चुका है। अमेरिका की खुफिया एजेंसियों और अकादमिक रपटों में साफ-साफ कहा गया है कि पाकिस्तान सरकार और फौज आतंकवाद की सबसे बड़ी संरक्षक हैं। ओबामा प्रशासन पर अमेरिकी सांसदों, मीडिया और लोकमत का जबर्दस्त दबाव है कि वह पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आए, लेकिन उनका मुंह बंद करने के लिए अमेरिकी सरकार थोड़ी-बहुत सांकेतिक कार्रवाई कर देती है और फिर परनाला वहीं बहने लगता है। अमेरिकी कांग्रेस ने यदि अपनी मदद के इस्तेमाल पर पाकिस्तान से सालाना रपट मांग ली और अभी 80 करोड़ डॉलर के अनुदान पर रोक लगा दी, तो क्या इन टोटकों के चलते पाकिस्तान कुछ सबक सीखेगा?
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान और अमेरिका, दोनों ही एक-दूसरे को ठगने की कोशिश कर रहे हैं। ये दोनों ही ‘डबल डीलर’ हैं।अमेरिका पाकिस्तान को अपना सामरिक भागीदार भी बताता है और उस पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं करता। इसी प्रकार, पाकिस्तान आतंकवाद की लड़ाई में अमेरिका का सिपहसालार बना हुआ है और उसकी पीठ में छुरा भी भोंकता रहता है। अमेरिकी पैसे, हथियार और राजनीतिक समर्थन का इस्तेमाल वह भारत व अफगानिस्तान के विरुद्ध करता रहता है। यदि अमेरिका और भारत सचमुच सामरिक सहयोगी बनना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले पाकिस्तान रूपी गुत्थी सुलझानी होगी। यदि अमेरिकापाकिस्तान को अपने हाल पर छोड़ दे, तो सिर्फ एक हफ्ते में पाकिस्तान के होश ठिकाने पर आ जाएंगे। उसे विदेशी हथियार व पैसा मिलना बंद हो जाए, तो नौकरशाही और जनता फौज को उखाड़ फेंकेगी। पाकिस्तान को उसकी असली हैसियत बताने और वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए ऐसा अल्पकालिक ही सही, सख्त कदम बेहद जरूरी है। लेकिन बुश और ओबामा, दोनों ही भारत और पाकिस्तान के बीच नकली शक्ति-संतुलन का राग अलापते रहे हैं।
हिलेरी ने यह नहीं बताया कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद वहां भारत की भूमिका क्या होगी? क्या भारत वहां करोड़ों डॉलर लुटाता रहे और अपने कूटनीतिकों और कार्मिकों का खून बहाता रहे? उस दिन का इंतजार करे, जबकि तालिबान आकर सब कुछ मटियामेट कर दें? अमेरिका भारत से यह आग्रह क्यों नहीं करता कि वह पुलिस व फौज के पांच लाख जवानों को वहां साल भर में खड़ा करे और अफगानिस्तान को निरापद बनाए। पाकिस्तान साथ दे, तो अच्छा और न दे तो न सही। क्याअमेरिका इसके लिए तैयार है? यदि नहीं, तो सामरिक भागीदारी के खोखले झुनझुने को हिलाना वह बंद करे।
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