NavBharat Times, 29 Oct 2005 : भारत की परमाणु नीति को जितनी चतुराई से विदेश सचिव श्याम सरन ने प्रतिपादित किया, पिछले कई वर्षों में किसी अन्य विदेश सचिव या विदेश मंत्री ने नहीं किया| प्रतिरक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान में दिया गया विदेश सचिव का व्याख्यान इसलिए भी अनूठा हो गया है कि उसमें नेहरू-युग की परमाणु नीति के लगभग सभी पहलू आ गए हैं और उसी को आधार बनाकर उन्होंने वर्तमान सरकार की परमाणु नीति को सही ठहराया है| ईरान पर भारत के वोट की भी सफाई पेश कर दी है| श्याम सरन ने अपने तथ्य और तर्क इस खूबी से पेश किए हैं कि सामान्य पाठक उनके साथ बहे बिना नहीं रहेगा|
लेकिन यह जरूरी है कि देश सही रास्ते पर चले| राष्ट्र्रहित से डिगे नहीं| तात्कालिक स्वार्थों की चकाचौंध में फंसकर हम कहीं ऐसी परमाणु-नीति न अपना लें, जिस पर बाद में हमें पछताना पड़े| यह कहना ठीक है कि जवाहरलाल नेहरू ने परमाणु शस्त्रों का विरोध किया था लेकिन इस विरोध को मनमोहन-बुश समझौते से कैसे जोड़ा जा सकता है? क्या इस समझौते में हमने दुनिया से परमाणु शस्त्रास्त्र खत्म करने की दिशा में एक पत्ता भी हिलाया है? श्याम सरन भूल गए कि नेहरू ने 1959 में संयुक्तराष्ट्र्र महासभा में ‘पूर्ण और व्यापक’ निरस्त्रीकरण का प्रस्ताव रखा था| क्या भारत और अमेरिका ने अपने उक्त समझौते में कोई ऐसा आश्वासन दिया है कि वे अपने-अपने परमाणु-शस्त्रास्त्रों को खत्म करने या घटाने का टाइम-टेबल पेश कर रहे हैं? क्या उन दोनों ने मिलकर परमाणु शस्त्र-सम्पन्न राष्टों से अपने-अपने हथियार नष्ट करने का आग्रह या अनुरोध किया है? क्या उन्होंने पाकिस्तान और इस्राइल जैसे परमाणु शस्त्र.धारी ‘कुटिल’ राष्ट्र्रों के विरुद्घ किसी दंडात्मक कार्रवाई की सिफारिश की है? दुनिया को परमाणु खतरे से बचाने की कोई भी कोशिश मनमोहन-बुश समझौते में दिखाई नहीं पड़ती|
जो सबसे प्रमुख मुद्रदा दिखाई पड़ता है, वह यह है कि भारत अपने समस्त परमाणु-कार्यक्रम को दो हिस्से में बांटे| एक तो शांतिपूर्ण और दूसरा सैन्य ! शांतिपूर्ण कार्यक्रमों से संबंधित सभी प्रयोगशालाएं और संयंत्र अंतरराष्ट्र्रीय निगरानी में आ जाएंगे| अर्थात्र सैन्य-कार्यक्रम निगरानी से मुक्त होंगे| दूसरे शब्दों में भारत ताजा परमाणु बम बनाने के लिए स्वतंत्र होगा| क्या यह नेहरू का निषेध नहीं है? इसका जवाब यह है कि भारत ने स्वयं ही नए परमाणु-बम नहीं बनाने का वादा किया है और प्रथम प्रहार नहीं करने की घोषणा की है| यह जवाब और भी बुरा है, क्योंकि भारत ने अपने हाथ-पांव खुद ही बांधकर खुद को अमेरिका के सामने पटक दिया है| क्या अमेरिका ने कहा है कि वह भविष्य में कोई परमाणु-बम नहीं बनाएगा? क्या उसने अंतरिक्ष के परमाणुकरण के अपने अरबों डॉलर के कार्यक्रम को ढीला करने का कोई संकेत दिया है? वह तो भारत-जैसे राष्ट्र्रों को नई ‘राष्ट्र्रीय प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा’ की पट्रटी पढ़ा रहा है याने रेडीमेड परमाणु छाते देने का अभियान चला रहा है, जिनके कारण 21वीं सदी में नई परमाणु रस्साकशी शुरू हो सकती है| जिस मनमोहन-बुश समझौते को श्याम सरन सही ठहरा रहे हैं, वह अमेरिका के परमाणु सामंतवाद का नवीनतम उद्रघोष हैं|
इसी परमाणु सामंतवाद को चुनौती दी थी, महाप्रतापी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ! इसीलिए उन्होंने परमाणु-अप्रसार संधि का डटकर विरोध किया और इसीलिए हिंद महासागर को ‘शांति क्षेत्र’ बनाने के प्रस्ताव का भारत ने महासभा में कभी भी समर्थन नहीं किया| इंदिराजी ने पोखरन में 1974 में अंत:स्फोट किया और परमाणु सामंतों के गाल पर तमाचा जड़ दिया| आश्चर्य है कि श्यामसरन, नेहरू और राजी का उल्लेख तो करते हैं, इंदिरा गांधी का नहीं| इंदिरा गांधी का अनुसरण नरसिंहराव करना चाहते थे लेकिन वह अटलबिहारी वाजपेयी के भाग्य में बदा था| उन्होंने परमाणु बम का विस्फोट किया और परमाणु सामंतवाद को खुली चुनौती दे दी| अंतरराष्ट्र्रीय राजनीति में रातोंरात भारत की हैसियत बदल गई| लेकिन अफसोस है कि इस बदली हुई हैसियत का फायदा न तो अटल-सरकार उठा पाई और न ही मनमोहन सरकार उठा पा रही है| इन दोनों सरकारों की परमाणु नीति लगभग एक-जैसी है| विश्व का छठा परमाणु-पहलवान बनने के बावजूद पता नहीं भारत अमेरिका के आगे डंड-बैठक क्यों लगा रहा है| यह ठीक है कि मनमोहन-बुश समझौते के कारण भारत को अपनी परमाणु-उर्जा के विकास का अपूर्व अवसर मिलेगा लेकिन यह स्वर्णिम संभावना भी अनेक किंतु-परंतुओं के कांटों से ढकी हुई है| अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने साफ-साफ कह दिया है कि भारत पर लगे परमाणु प्रतिबंधों को हटाने का प्रस्ताव कांग्रेस के सामने तभी जाएगा, जबकि भारत अपनी शर्तें पूरी करेगा| याने पहले भारत अपने शांतिपूर्ण कार्यक्रमों, कार्यस्थानों, सामगि्रयों, प्रकि्रयाओं आदि पर से पर्दा उठाए तो बात आगे बढ़े| क्या खूब मांग है, ये ? चोर कोतवाल को डांट रहा है| पाकिस्तान और इस्राइल जैसे राष्ट्र्रों को चोरी-छिपे परमाणु हथियार बनाने में मदद करनेवाला राष्ट्र्र अमेरिका, भारत को आखें दिखा रहा है| उसे भारत पर विश्वास नहीं है| उसे डर है कि भारत अपने असैन्य संयंत्रों का उपयोग बम बनाने के लिए कर सकता है| इस अमेरिका से कोई पूछे कि उसने पाकिस्तान और उसके ए.क्यू. खान को दंडित करने के लिए क्या किया? वह ईरान को दंडित करना चाहता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे उसने सद्रदाम को किया है| इस अमेरिकी अविवेक का भारत समर्थन क्यों करे? ईरान से यह कहना तो ठीक है कि वह अपनेे परमाणु कार्यक्रमों पर पूर्ण अंतरराष्ट्र्रीय निगरानी मान ले लेकिन क्या अमेरिका से यह कहना जरूरी नहीं है कि आप अपनी दादागीरी बंद करें? यदि श्याम सरन यह भी नहीं कह सकें तो कैसे माना जाए कि वे किसी संप्रभु परमाणु-शक्तिसम्पन्न राष्ट्र्र के विदेश सचिव हैं| क्या भारत की नई हैसियत उसके विदेश सचिव के भाषण में ठीक से प्रतिबंबित हुई है?
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