दैनिक भास्कर, 28 जनवरी 2006 : अमेरिका के राजदूत डेविड मल्फोर्ड ने मनमोहन-सरकार को साँसद में डाल दिया है| उन्होंने पी टी आई को भेंटवार्ता क्या दी, पूरे नेपथ्य का पर्दा ही हटा दिया है| भारत और अमेरिका के बीच अभी तक दबे-छिपे जो कुछ चल रहा था, वह सब उजागर हो गया है| लोगों को पता चल गया है कि रंगमंच पर जो चेहरे चिकने-चुपडे़ दिखाई पड़ते हैं, नेपथ्य में वे कितने बदसूरत होते हैं| लोकतंत्र् और राष्ट्रों की संप्रभु-समानता की पताका फहराने वाला अमेरिका भारत जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्र के साथ जो बर्ताव कर रहा है, ऐसा है, जैसा कोई मालिक-राष्ट्र अपने गुलाम-राष्ट्र के साथ करता है| अमेरिकी राजदूत ने दो-टूक शब्दों में कह दिया कि यदि भारत ने ईरान के विरूद्घ वोट नहीं दिया तो उसके परिणाम विनाशकारी होंगे| वियना के अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण को 2 फरवरी को यह तय करना है कि इ्रर्रान के मसले को वह सुरक्षा परिषद्र के हवाले करे या न करे याने ईरान की परमाणु गतिविधियों के कारण उसे सुरक्षा परिषद्र दंडित करे या न करे, जैसे कि उसने कभी लीब्या, एराक़ और तालिबानी अफगानिस्तान को किया था| अमेरिका चाहता है कि ईरान को अवश्य ही दंडित किया जाए| अमेरिका यह भी चाहता है कि भारत उसका स्पष्ट समर्थन करे| पहले मतदान में भारत तटस्थ रहा और दूसरे मतदान में भारत ने अमेरिका का साथ दिया| इस दूसरे मतदान में ईरान का मामला सुरक्षा परिषद्र में नहीं भेजा गया बल्कि ईरान को सुधरने की मोहलत दी गई| भारत ने मोहलत के पक्ष में वोट देकर अपनी तटस्थता बरकरार रखी याने उसने दोनों का मन रख लिया| इस प्रस्ताव से ईरान का कोई सीधा नुक्सान नहीं हो रहा था और अमेरिका खुश था कि भारत ने उसका साथ दिया|
भारत की इस नट-चाल से ईरान खुश नहीं हुआ, क्योंकि वह भारत का दो-टूक समर्थन चाहता है| उसके कुछ नासमझ नेताओं ने घमकी भी दे डाली| उन्होंने कहा कि आपसे तेल चाहिए या नहीं? पाइपलाइन चाहिए या नहीं? बाद में वे पल्टा खा गए| नरम पड़ गए| अब नहीं पैंतरा अमेरिका ने अख्तियार कर दिया है और ज़रा ज्यादा फूहड़पने से कर लिया है| वह कह रहा है कि यदि आपने ईरान के विरूद्घ वोट नहीं दिया तो अमेरिकन काँग्रेस (संसद) भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते को लागू नहीं होने देगी| यह सीधा ब्लेकमेल है| राजदूत मलफोर्ड के इस कथन की इतनी तीव्र प्रतिक्रिया हुई कि कुछ ही घंटों में उन्हें सफाई पेश करनी पड़ी| उनकी सफाई ने और ज्यादा गंदगी फैला दी| उन्होंने अपनी भेंट-वार्ता का मूल-पाठ प्रसारित करते हुए कहा कि भारत किसी के दबाव से नहीं बल्कि अपने राष्ट्रहित के हिसाब से वोट देगा| इस मरहम ने असली छाव को ढकने के बजाय ज्यादा छील डाला, क्योंकि राजदूत महोदय की असावधानी पर पर्दा डालने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्रलय ने जो सफाई पेश की, उसमें उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि ”वह भारत को ईरान के खिलाफ वोट देने के लिए”प्रोत्साहित” करेगा|’ भारत की नाराज़ी का ध्यान रखते हुए उसने यह जरूर कहा कि राजदूत ने अपनी निजी राय जाहिर की थी|
वास्तव में राजदूत मल्फोर्ड ने अपनी निजी राय जाहिर करके भारत की आँखें खोल दी है| भारत सरकार के प्रवक्ता की नल प्रतिक्रिया पर जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दहाड़ लगाई तो हमारे विदेश मंत्रलय की भी नींद खुल गई| बहुत वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि हमारे विदेश सचिव ने किसी अमेरिकी राजदूत को अपने दफ्तर बुलवाकर उसकी खिंचाई की| मल्फोर्ड ने माफी तो माँग ली लेकिन उन्होंने अपने देश का नुक्सान कर दिया| अब भारत किसी भी कीमत पर अमेरिकी या यूरोपीय प्रस्ताव का समर्थन नहीं कर पाएगी| यों ईरानी नेतृत्व ने इधर तीन ऐसी बड़ी गाल्तियाँ कर दी थीं, जिनके बहाने भारत अमेरिका का बगलगीर हो सकता था| एक तो उसने यूरोपीय राष्ट्रों के साथ हुआ समझौता भंग करके जंतज का परमाणु-संयंत्र् दुबारा चालू कर लिया| दूसरा, उसके राष्ट्रपति अहमदीनिआद ने इस्राइल को नष्ट करने की धमकी दी और तीसरा, ईरान ने कहा कि दुनिया के परमाणु राष्ट्र परमाणु मामलों में भारत को तो शै देते हैं और ईरान के साथ भेद-भाव करते हैं| इस कथन ने भारत को नाराज़ कर दिया था| मल्फोर्ड के बयान ने ऐसी विकट स्थिति उत्पन्न कर दी हैै कि अब भारत यदि अपनी वास्तविक नाराज़ी भी जाहिर करना चाहे तो नहीं कर सकता है| सारी दुनिया कहेगी कि भारत अमेरिका के दबाव में आ गया| भारत के वामपंथी और दक्षिणपंथी, सभी एक होकर अमेरिकी नीति का विरोध कर रहे हैं| मल्फोर्ड-प्रसंग का असर 18 जुलाई 2005 के भारत-अमेरिका परमाणु-समझौते पर पड़े बिना नहीं रहेगा| 1 मार्च को सम्पन्न होनेवाली राष्ट्रपति बुश की भारत-यात्र के रास्ते में अभी से काँटे उग आए हैं| असावधान मल्फोर्ड ने भारत को सावधान कर दिया है| अब अगर मनमोहनसिंह फिसलना भी चाहेंगे तो फिसल नहीं पाएँगें|
यों भी भारत के फिसलने कोई कारण समझ में नहीं आता| अमेरिका हम से मन भर माँग रहा है और हमें कन भर भी नहीं दे रहा है| वह हमारी परमाणु-पिटारी पर ढक्कन लगाना चाहता है| इन से कह रहा है कि आप अपने परमाणु-संयंत्रें को दो हिस्सों में बाँटिए| एक फौजी और दूसरा गैर-फौजी| उसका बस चले तो वह अभी संयंत्रें को गैर-फौजी घोषित करवा दे ताकि भारत का परमाणु वंध्याकरण हो जाए| बदले में वह हमें क्या दे रहा है? वह हमें अन्या पाँच परमाणु महाशक्तियों की तरह छठी परमाणु शक्ति मानने को भी तैयार नहीं है वह हमें सुरक्षा परिषद्र की सदस्यता दिलवाने के लिए राजी नहीं है| तो फिर हमें क्या जरूरत है कि हम वियना या न्यूयॉर्क में अमेरिका के सुर में अपना सुर मिलाएँ? वह ईरान को उसी प्रकार दंडित करना चाहता है, जैसे उसने सद्दाम के एराक़ को किया है| वह अपनी जिद के खातिर दुनिया के अन्य बडे़ राष्ट्रों को भी ईरान का दुश्मन बनाना चाहता है ताकि ईरान का दोष सिद्घ किए बिना भी वह उस पर हमला कर दिया तो एराक़ और ईरान के शिया मिलकर अमेरिका को ऐसा सबक सिखाएँगे कि वह उसे सदियों तक नहीं भूल पाएगा| अमेरिका के इस कुकर्म में भारत भागीदारी क्यों करे? अमेरिका भारत को दक्षिण एशिया की एकछत्र् महाशक्ति मामने को तैयार नहीं है तो हम उसे विश्व का एकछत्र् तानाशाह क्यों बनने दें? ईरान को परमाणु-शक्ति बनने से रोकने वाला अमेरिका पाकिस्तान के मामले में धृतराष्ट्र क्यों बना रहा ह? ए.क्यू.खान रंगे हाथ पकड़ा गया, लेकिन अमेरिका के होंठ अभी तक क्यों सिले हुए हैं? स्वयं अमेरिका दुनिया का सबसे खतरनाक परमाणु-राष्ट्र है या नहीं? तो भारत उसका साथ क्यों दे?
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