R Sahara, 5 March 2005: मज़हब के नज़रिए से देखें तो अमेरिका ईसाई राष्ट्र है| यह पुराना विचार है| आजकल वहॉं एक ‘नया विचार आंदोलन’ जोर पकड़ रहा है| यह नया विचार क्या है? संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि यह ईसाइयत के गढ़ में बगावत का झंडा है| अमेरिका के 30 करोड़ लोगों में से लगभग चार-पॉंच करोड़ लोग इस नई धारा में बह रहे हैं| ये लोग अपने संगठनों के नाम ‘युनिटी चर्च’ या ‘युनिटेरियन चर्च’ आदि रखते हैं, ईसा मसीह और बाइबिल को मानते हैं, क्रिसमस और गुड फ्राइडे मनाते हैं और खुद को ईसाई भी कहते हैं लेकिन परम्परागत ईसाई सिद्घांतों को नहीं मानते| ईसा कुंवारी मरियम के पुत्र थे, ईस्त ईश्वर के इकलौते पुत्र हैं, मनुष्य मूल रूप से पापी है, ईसा-विश्वास ही मोक्ष का एक मात्र मार्ग है और गैर-ईसाइयों का धर्मान्तरण पवित्र कर्तव्य है – आदि पुरानी धारणाओं में इन अमेरिकियों का या तो विश्वास नहीं है या वे इनकी परवाह नहीं करते| फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मदन गोयल का कहना है कि नए विचार के इस आंदोलन की प्रेरणा भारत से उठी है| वे मदाम ब्लावात्स्की, एनी बेसेन्ट, हेनरी एल्कॉट, मेरी बेकरी एड्डी, थोरो, इमर्सन आदि को इसका श्रेय देते हैं| अब से सवा सौ साल पहले महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्यसमाज के माध्यम से दुनिया के सभी धर्मांे को तर्क की तुला पर तौलने का जो साहसिक प्रयास किया था, उसका जि़क्र प्रो. मदन गोयल ने अपने व्याख्यान में नहीं किया| शायद उन्हें इसका पता भी न हो लेकिन जो पश्चिमी नाम उन्होंने गिनाए हैं, उनमें से ज्यादातर या तो सीधे दयानंद के सम्पर्क में रहे हैं या उनके साहित्य से परिचित रहे हैं| इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान ‘नया विचार आंदोलन’ पर अद्वैतवाद, योग, शाकाहार और आयुर्वेद आदि का प्रभाव यह सिद्घ करता है कि उसकी बढ़ोतरी में भारत का योगदान है लेकिन इसकी जड़ें सिर्फ डेढ़-दो सौ वर्ष पुरानी नहीं हैं और न ही यह भारत-आधारित है| वास्तव में इसका मूल कई शताब्दियों पीछे तक जाता है| जर्मन विचारक मार्टिन लूथर के प्रोटेस्टेंट आंदोलन और क्वेकर्स के अभियान ने ही पारम्परिक ईसाइयत के कुछ मूल विश्वासों और कर्मकांडों को चुनौती दे दी थी| जहॉं-जहॉं मज़हब संगठित हैं, वहॉं-वहॉं बगावतें हैं| जहॉं-जहॉं अकबर हैं, वहॉं-वहॉं अनारकलियॉं हैं|
जापान में आयुर्वेद
चीन में तो भारतीय आयुर्वेद की जड़ें अभी तक हरी हैं| डेढ़-दो हजार साल पहले भारत से जो स्वास्थ्य-विज्ञान संस्कृत और पाली माध्यमों से चीन गया, वह आज भी वहॉं किसी न किसी रूप में विद्यमान है लेकिन जापान में आयुर्वेद को लोकपि्रय बनाने का प्रयास प्रो. हरिशंकर शर्मा विशेष रूप से कर रहे हैं| वे जामनगर के प्रसिद्घ आयुर्वेद विश्वविद्यालय में पढ़ाते रहे हैं और आयुर्वेद में पीएच.डी. हैं| उन्होंने इनामूरा नामक जापानी महिला से शादी की और पिछले कुछ वर्षों से ओसाका में रहते हैं| श्रीमती इनामूरा धाराप्रवाह हिंदी बोलती हैं, संस्कृत मंत्रों का शुद्घ पाठ करती हैं और अपने पति की तरह आयुर्वेदाचार्य हैं| दोनों आजकल भारत आए हुए हैं| दोनों ने अनेक आयुर्वेदिक ग्रंथों का जापानी अनुवाद कर दिया है और आयुर्वेद संबंधी एक ‘शोध पत्रिका’ भी प्रकाशित करते हैं| इस शोध-पत्रिका में छपे हिंदी, अंग्रेजी और जापानी लेखों में पहली बार मैंने देखा कि योगासन, प्राणायाम और आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभाव का गणितीय और वैज्ञानिक मूल्यांकन किया गया है| शर्मा दम्पती ओसाका में ही जापानी छात्र-छात्राओं को आयुर्वेद में प्रशिक्षित करते हैं और उन्हें प्रतिवर्ष भारत-दर्शन भी करवाते हैं| शर्मा-युगल की आयु 70 वर्ष है लेकिन वे दोनों अपनी उम्र से 20 साल छोटे लगते हैं|
चीनी विद्वान
चीन में दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ प्रो. मा ज्याली और उनके साथी श्री ग्वो आजकल भारत आए हुए हैं| चीनी प्रधानमंत्री अगले माह भारत आनेवाले हैं| प्रधानमंत्री की भारत-यात्रा सफल हो, इस दृष्टि से ये चीनी विद्वान भारत के चीन-विशेषज्ञों, विदेश-नीति निर्माताओं और कुछ नेताओं से भी विचार-विमर्श कर रहे हैं| प्रो. मा ज्याली सुरक्षा परिषद् में भारत के प्रवेश का स्पष्ट समर्थन करते हैं| शांघाई और पेइचिंग में उनके साथ हमारा कई बार सुदीर्घ संवाद हुआ है| उनके साथी श्री ग्वो दलाई लामा की गतिविधियों के बारे में जरूरत से ज्यादा चिंतित मालूम पड़ते हैं| ये दोनों विद्वान यहॉं से पाकिस्तान जा रहे हैं, क्योंकि इनके प्रधानमंत्री वहॉं भी जाऍंगे| चीनी नहीं चाहते कि पाकिस्तान कश्मीर के मसले को तूल दे| यदि सीमा के मामले में भारत चीन से सभ्य सम्वाद कर सकता है तो कश्मीर के मसले पर यही काम भारत के साथ पाकिस्तान क्यों नहीं कर सकता?
भारत-पाक सम्वाद
पिछले हफ्ते दिल्ली में आयोजिन भारत-पाक मै़त्री सम्मेलन में पाकिस्तान से लगभग 300 लोग आए| इस बार कुछ प्रसिद्घ लोग भी आए| उनकी शिकायत यह थी कि दोनों देशों के प्रमुख लोग इन सम्मेलनों में दिखाई नहीं पड़ते| क्या उन्हें जान-बूझकर अलग रखा जाता है? यह हो सकता है| लेकिन इसमें बुराई क्या है? प्रमुख लोग तो निरंतर एक-दूसरे के देशों में आते-जाते रहते हैं, बड़े-बड़े लोगों से मिलते हैं, बड़े-बड़े मुद्दों पर बातें करते हैं और उनका बड़ा प्रचार भी होता है या कभी-कभी उनकी यात्राऍं बिल्कुल गोपनीय हो जाती हैं लेकिन इन सम्मेलनों में जो लोग आते हैं वे जिज्ञासु और प्रेमी लोग होते हैं| वे जानना चाहते हैं कि अपरिचय की दीवार के पार का संसार कैसा है और दोनों देशों के लोगों में प्रेम कैसे बढ़े| यदि तीन सौ की बजाय हर साल तीन हजार या 30 हजार लोग आऍं और पाकिस्तान से ही नहीं, सभी पड़ौसी देशों से आऍं तो दक्षिण एशिया सहकार और शक्ति का गढ़ बन सकता है| अभ्यागत लोग होटलों के बजाय घरों में ठहर सकें तो जुड़ाव गहरा होगा| यदि साधारण से साधारण लोग जुड़ेंगे तो असाधारण ऊर्जा का निर्माण होगा| बिना लाए ही दक्षिण एशिया में लोकतंत्र आ जाएगा|
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