Rashtriya Sahara, 23 May 2011 : अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नए प्रस्ताव का क्या अर्थ लगाया जाए ? उन्होंने इस्राइल से आग्रह किया है कि वह 1967 की सीमाओं को स्वीकार करे और फलस्तीन को पूर्ण राज्य का दर्जा लेने दे| वाशिंगटन पहुंचे इस्राइली प्रधानमत्री बेंजामिन नेतनयाहू ने ओबामा के इस प्रस्ताव को यह कहकर रद्द कर दिया हैं कि 1967 बहुत पीछे छूट गया है| 1967 के युद्घ में जीती हुई फलस्तीनी जमीन पर अब कम से कम पांच लाख यहूदी बस गए हैं| वहाँ हजारों मकान, दफ्तर और अन्य भवन बन गए हैं| इन सबको हटाना-मिटाना असंभव हैं और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि यदि इस्राइल ने इन क्षेत्रें को खाली कर दिया तो वह हमेशा के लिए असुरक्षित हो जाएगा| इस्राइल अपनी छाती में भाला गाड़ने का निमंत्र्ण फलस्तीन को क्यों दे ?
नेतनयाहू की इस प्रतिकि्रया का असर क्या होगा ? क्या अब अमेरिका चुप्पी मारकर बैठ जाएगा ? अभी तो ओबामा ने कोई कड़ी प्रतिकि्रया प्रगट नहीं की है और सिर्फ इतना ही कहा है कि मित्रें के बीच मतभेद तो रहते ही है| तो क्या ओबामा की सरकार सितंबर में फलस्तीन को मान्यता दे देगी ? इस समय सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि जब ब्राजील और क्यूबा जैस राष्ट्र सितंबर में संयुक्तराष्ट्र में फलस्तीन को मान्यता देने की बात कहेंगे तो अमेरिका का रूख क्या होगा ?
अभी तक तो यही माना जाता रहा है कि ओबामा फलस्तीन को मान्यता देने के पक्ष में है| यदि संयुक्तराष्ट्र के कुल सदस्यों में से 2/3 याने 128 सदस्यों ने मान्यता के पक्ष में मतदान कर दिया और सुरक्षा परिषद में किसी ने भी अपना वीटो नहीं चलाया तो फलस्तीन बाकायदा एक नया राज्य बन जाएगा| वह सिर्फ एक आंदोलन भर नहीं रहेगा| उसकी स्थिति किसी नगर निगम जैसी नहीं रहेगी, जैसी कि आज है| वह संप्रभुता-संपन्न, सुपरिभाषित और सुशासित राज्य होगा| अब ओबामा के भाषण और नेतनयाहू की प्रतिक्रिया के अलग-अलग अर्थ लगाए जा रहे हैं|
हमास के नेताओं का सोचना है कि ओबामा ने बड़ी चालबाज़ी की है| इस्राइली प्रधानमंत्री को वाशिंगटन बुलाकर उन्होंने यह प्रस्ताव रखा ही इसलिए है कि फलस्तीन राज्य के निर्माण पर वे पानी फेर सकें| अपने 5400 शब्दों के भाषण में ओबामा ने बार-बार इस्राइल की सुरक्षा की बात तो की है लेकिन एक बार भी उन्होंने फलस्तीन या फलिस्तीनियों की सुरक्षा की बात नहीं उठाई| उन्होंने हमास के इरादों पर भी उंगली उठाई है लेकिन इस्राइल की हिंसक नीतियों का जिक्र तक नहीं किया है| इसके अलावा उन्होंने 1967 के पहले की सीमाओं को मान लेने का जो पासा फेंका है, वह सिर्फ कूटनीतिक दांव है| उन्हें पता था कि इस्राइल इसे एक दम रद्द कर देगा| ऐसी हालत में वे सुरक्षा परिषद में कह देंगे कि फलस्तीन को मान्यता देने के लिए यह समय ठीक नहीं है| और यदि इसा्रइल उनके प्रस्ताव को मान लेता तो वे कहते कि पहले दोनों पक्ष बैठकर अपना सीमा-विवाद सुलझा लें, उसी के बाद मान्यता देना ठीक होगा| याने अमेरिका की रणनीति यही है कि फलस्तीन के मसले को किसी भी तरह दरी के नीचे सरका दिया जाए|
इसके विपरीत फताह-नेता और फलस्तीन की तदर्थ सरकार के राष्ट्रपति महमूद अब्बास का विचार है कि ओबामा प्रशासन वाकई फलस्तीन की मदद करना चाहता है| अमेरिका न केवल संयुक्तराष्ट्र महासभा में फलस्तीन के समर्थकों की संख्या बढ़ाने में सकि्रय भूमिका निभाएगा बल्कि सुरक्षा परिषद में फलस्तीनी राज्य के प्रस्ताव को वीटो नहीं करेगा| यों फ्रांस और बि्रटेन ने तो समर्थन का आश्वासन दिया ही है और अगर यदि संयुक्तराष्ट्र के डेढ़ सौ से ऊपर सदस्यों ने समर्थन कर दिया तो कोई भी राष्ट्र उस प्रस्ताव को गिरवाने की हिमाकत नहीं करेगा| यह ठीक है कि ओबामा पर अमेरिका की यहूदी लॉबी का जबर्दस्त दबाव है और उन्हें अगला चुनाव भी जीतना है लेकिन वे दुनिया के सामने यह भी सिद्घ करना चाहते हैं कि वे शांति के सच्चे मसीहा हैं और सममुच नोबल पुरस्कार के हकदार हैं| ओबामा ने इस्राइल से जो मांग की है, उसमें यह भी कहा है कि दोनों देश मिलकर आपस में कुछ लेन-देन भी कर सकते हैं|
ओबामा का प्रस्ताव काफी लचीला है लेकिन इसे लागू करने की क्षमता न तो फलस्तीनियों में दिखाई पड़़ती हैं और न ही इ्रसाइलियों में| फलस्तीनियों के पक्ष में अभी दो-तीन हफ्ते पहले एक अच्छी बात यह हुई कि फतह और हमास में समझौता हो गया| फताह नरमपंथी है और हमास गरमपंथी ! फताह जोर्डन नदी के पश्चिमी तट के के क्षेत्र् पर काबिज है और हमास गाजा पट्रटी पर ! दोनों में अब तक तलवारें खिंची रहती थीं| हमास इस्राइल को खत्म करना चाहता था जबकि फताह बातचीत से मसला हल करना चाहता है| जब इन दोनों में समझौता हुआ तो इस्राइल ने उसे बिल्कुल रद्द कर दिया|
इस्राइल का कहना था कि फताह ने हमास जैसे हिंसक और आक्रामक संगठन से हाथ मिलाकर अपनी प्रतिष्ठा घटा ली है| इस्राइल ने कहा है कि दोनों मिलकर संयुक्त सरकार बनाएंगे तो उस सरकार से वह बात कैसे करेगा ? इस समस्या का सामना ओबामा प्रशासन को भी करना पड़ सकता है| लेकिन उसके हिसाब से यह संयोग है कि फताह के संरक्षक हुस्नी मुबारक का मिस्र में तख्ता उलट गया है और हमास के संरक्षक सीरिया के बशर अल-अस्साद खुद अधर में लटक गए है| फलस्तीनी संगठनों की इस कमजोरी का फायदा उठाकर अमेरिका इन्हें थोड़ा दबा सकता है जबकि वह नेतनायाहू और अन्य इ्रस्राइली नेताओं को जनोत्थान का डर दिखा सकता है| वह उन्हें बता सकता है कि फलस्तीनी जमीन पर बसे यहूदियों का यदि फलस्तीनियों ने शांतिपूर्ण घेराव कर लिया तो इ्रसाइल क्या कर लेगा ? कितने लोगों को मौत के घाट उतारेगा ? क्या अमेरिका इतनी कूटनीतिक नज़ाकत का परिचय देगा ?
इसलिए जरूरी है कि अमेकिरा इन नाजुक मसलों पर खुली घोषणाएं करने और जवाबी हमले बर्दाश्त करने के बजाय दबी जुबान से काम ले| ओबामा चाहें तो फलस्तीन-इ्रसाइल मामले को सुलझाने के लिए नए विशेष दूत की नियुक्ति शीघ्र करें| हमास से खुफिया संपर्क करें और उसे भी पटाएँ| नेतनयाहू के कमजारे नेतृत्व को टेका लगाने के लिए इस्राइल के विपक्ष से सीधा संपर्क करें और सितंबर में फलस्तीन की मान्यता का मार्ग प्रशस्त करें|
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