R Sahara, 23 April 2004 : इस्राइली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन का एरियल पता नहीं कौनसे आसमान में टंगा हुआ है। पता नहीं, कौनसी दैवीय या राक्षसी अदृश्य शक्तियॉं इन्हें संकेत भेजती रहती हैं और वे ऐसे कारनाम कर गुजरते हैं, जिन्हें अंजाम देने के पहले कोई भी जिम्मेदार नेता हजार बार सोचेगा। यह ठीक है कि हमास नामक फलिस्तीनियों का आतंकवादी संगठन पूरे इस्राइल पर कब्जा करना चाहता है। यहूदियों को देश-निकाला देना चाहता है और डंडे के जोर पर फलस्तीनी राज्य कायम करना चाहता है। अपने इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ‘हमास` ने आतंकवाद का सहारा लिया है, उसके आत्मघाती दस्तों ने सैकड़ों इस्राइलियों को मौत के घाट उतारा है तथा यासर अराफात के स्वातंत्रय-आंदोलन से भी झगड़ा मोल लिया है लेकिन उसके जवाब में शेरोन ने जो किया है, वह महाआतंकवाद है। पहले 22 मार्च को इस्राइली फौज ने ‘हमास` के सर्वोच्च नेता शेख अहमद यासर की हत्या की और अब उनके उत्तराधिकारी डॉ. अब्दुल अजीज़ रनतिसी की हत्या कर दी और शेरान के गृहमंत्राी ने यह घोषणा भी कर दी है कि रनतिसी का उत्तराधिकारी भी उनके निशाने पर है। इसीलिए ‘हमास` के नेताओं ने रनतिसी के उत्तराधिकारी का नाम अभी तक छुपाकर रखा हुआ है।
एक ओर प्रधानमंत्री शेरोन ने गाजा पट्टी और गोलान पहाड़ियों के कई हिस्से खाली करने की घोषणा की है, जो कि बड़ी हिम्मत का काम है। यह वह काम है, जिसे 1967 से अब तक कोई इस्राइली प्रधानमंत्राी नहीं कर पाया है। 1967 के युद्ध में कब्जाई गई इस फलस्तीनी ज़मीन को लौटाने, नई थोपी गई यहूदी बस्तियों को हटाने और कुछेक फलस्तीनी शरणार्थियों को फिर से बसाने की शेरोन की इस पहल पर उनकी दक्षिणपंथी लीकुद पार्टी के अनेक दिग्गज नाराज़ हो गए हैं। उनके मंत्रिामंडल में फूट पड़ गई है। फिर भी वे अपनी पहल पर डटे हुए हैं लेकिन शेरोन की यह कैसी शांतिवादिता है कि वे ‘हमास` के नेताओं की हत्या किए चले जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों ‘हमास` नेताओं को इस्राइली फौज ने गलती से मार दिया हो। दोनों नेताओं के हत्या पर प्रधानमंत्राी ने अपनी फौज को बधाई दी है। यह साहसिकता मानी जा सकती है लेकिन यह किसी मूर्खता से क्या कम है? कोई मूर्ख हो और साहसी हो, इससे बड़ा खतरा क्या हो सकता है? लगता है, एरियल शेरोन हमास के आत्मघाती बमधारियों से भी एक कदम आगे हैं। वे यह क्यों नहीं सोचते कि उन्होंने जो अपूर्व पहल की है, उस पर उनके इन कारनामों से पानी फिर जाएगा। यासर की हत्या पर तो अमेरिका को भी औष्ठिक सहानुभूति जतानी पड़ी थी। सारी दुनिया चौंक गई थी। यासर कोई युद्ध के मैदान में नहीं लड़ रहे थे। वे तो अपंग थे। पहिएदार कुर्सी में बैठे रहते थे। ऐसे निहत्थे नेता पर मिसाइल से वार करना और यही पैंतरा रनतिसी पर भी अपनाना कौनसी बहादुरी है? आपके पास मिसाइल है, हेलिकॉप्टर है, लक्ष्यखोजी कंप्यूटर है। आपने बैठे-बैठे किसी योद्धा को ढेर कर दिया, इसमें आपने कौनसा तीर मार लिया? अंतरराष्ट्रीय कानून की नजर में आप अपराधी बन गए, संयुक्तराष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान और यूरोपीय यूनियन से लेकर भारत जैसे देशों को भी आपको आड़े हाथों लेना पड़ा। सिर्फ अमेरिका ने गोलमोल बयान दिया। बच निकलने की कोशिश की। वह क्यों न करता? वह स्वयं एराक़ के लोकप्रिय शिया नेता मुक्तदा-अल-सदर की हत्या करने पर आमादा है।
‘हमास` के नेताओं की हत्या करके शेरोन ने अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि तो गिरा ही ली, फलस्तीनियों को भी अपना और इस्राइल का जानी दुश्मन बना लिया। जिन फलस्तीनियों को अपने मूल निवास में लौटने की आशा बॅंधी थी, वह अब भंग हो चुकी है। वे यहूदी भी परेशान हैं, जो अपनी गाजा की बस्तियॉं खाली करके लौटने की योजना बना रहे है। ‘हमास` तथा अन्य फलस्तीनी संगठनों ने सौगुना बदला चुकाने की घोषणा की है। यह सौगुना बदला कैसे चुकेगा और कहॉं चुकेगा? पता नहीं, इस्राइल में चुकेगा या अमेरिका में चुकेगा? इस्राइल तो एक अप्राकृतिक राज्य है। फौजी लोकतंत्रा है। लौह-राज्य है। फलस्तीनी आतंकवादी शायद उसकी दीवारों को भेद न पाऍं लेकिन वे अगर 11 सितंबर जैसा हादसा दुबारा अमेरिका में दोहरा दें तो कोई आश्चर्य नहीं। अमेरिका इस्राइली आक्रामकता का मूल है। इस मूल ने पिछले 10-12 साल में थोड़ा मॅंजीपन दिखाया था। पहले केम्प डेबिड किया और फिर ‘ओस्लो एकॉड` करवाया। फलस्तीन और इस्राइल को उसने नज़दीक लाने की कोशिश की थी लेकिन राष्ट्रपति बुश ने शेरोन को बिल्कुल बेलगाम कर दिया है। वाशिंगटन से लौटते ही वे रनतिसी पर टूट पड़े और अमेरिका ने होठ सी लिए। उसने कह दिया कि आतंकवाद से आत्मरक्षा का अधिकार इस्राइल को है। शेरोन यासर अराफात की भी हत्या करना चाहते थे। उन्होंने अराफात को उनके मुख्यालय में घेर लिया था लेकिन अमेरिका ने विरोध किया। सारी दुनिया चिल्ला पड़ी। शेरोन को अपनी तलवार म्यान में डालनी पड़ी लेकिन ‘हमास` पर वे जो हमला कर रहे हैं, माना जा रहा है कि उन्हें अमेरिकी शै मिल रही है। अमेरिकी प्रवक्ता ने अपनी खाल बचाने के लिए यह जरूर कह दिया है कि अमेरिका को क्षेत्राीय शांति की बड़ी चिंता है और इस नाजुक वक्त़ में इस्राइल से ज़रा संयम की आशा की जाती है।
अमेरिका की यह सलाल शुद्ध पाखंड के अलावा क्या है? पाखंड तो इस्राइली सरकार भी कर रही है। वह कह रही है कि इन हत्याओं का शेरोन की कूटनीति से कोई संबंध नहीं है। यह तो दॉंत के बदले दॉंत और ऑंख के बदले ऑंख की नीति का अनुसरण है। यह ठीक है कि यासर की हत्या के बाद रनतिसी ने बदले की बात कही थी। सिर्फ कही थी। कुछ किया तो नहीं था। फिर यह अतिवादी कार्रवाई शेरोन ने क्यों करवाई और आगे के लिए धमकियॉं क्यों दे रहे हैं? इससे यह भी सिद्ध होता है कि उनका मुखौटा उतर गया है। वे गाजा और गोलन से वापसी की जो एकतरफा पहल कर हरे हैं, उस दाल में कुछ काला है। सच्चाई तो यह है कि वह दाल ही काली है। ज़हरभरी है। शेरोन जो कुछ भी कर रहे हैं, फलस्तीनियों को राहत देने के नाम पर वह तानाशाह की तरह कर रहे हैं। वे इस तरह दे रहे हैं, जैसे भिखारियों को दिया जाता है। क्या भिखारियों से पूछा जाता है कि उन्हें कोई चीज़ पसंद है या नहीं? इसी तरह फलस्तीनियों से बात करना भी बेजा बात है, यह शेरोन की नीति है। वे गाज़ा के कुछ ही इलाके खाली करेंगे और पूरे गाज़ा पर अपना सुरक्षा-शिकंजा कसे रहेंगे। गाजा से वापसी की बात वे अगर ‘हमास` से नहीं चलाना चाहते तो कम से कम फलस्तीनी मुक्ति मोर्चे के मुखिया यासर अराफात से ही चला लेते। अराफात को राष्ट्राध्यक्ष की मान्यता संयुक्तराष्ट्र और दुनिया के ज्यादातर देशों द्वारा है। अराफात ने इस्राइल को भी मान्य किया है। लेकिन शेरोन किसी भी फलस्तीनी से बात करना अपनी तौहीन समझते हैं। उनकी यह अकड़ वास्तव में संयुक्तराष्ट्र की तौहीन है। संयुक्तराष्ट्र ने इस्राइल की वापसी के लिए अनेक स्पष्ट प्रस्ताव पारित किए हैं। ऐसे प्रस्ताव जिन्हें अमेरिका का भी पूर्ण समर्थन रहा है लेकिन उन्हें किसी की परवाह नहीं है। शेरोन की इस अकड़ की जड़ अमेरिका में है। यदि बुश-प्रशासन उन्हें मजबूर करे तो उन्हें फलस्तीनियों से बात करनी पड़ेगी। ऐसा आग्रह नहीं करके अमेरिका अपने ही पॉंवों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। सारे अरब राष्ट्रों में उसकी थू-थू हो रही है। उसके खुशामदी शाह, सुल्तान और शेख चाहे उसे कुछ नहीं कहें लेकिन अरब जनता की नज़र में वह गिरता ही जा रहा है। फलस्तीनियों के विरुद्ध इस्राइलियों को खुली छूट देकर अमेरिका इस्लाम के कट्टरपंथी और प्रगतिशील दोनों तत्वों की एकता बढ़ा रहा है। उसामा बिन लादेन और सद्दाम कभी एक न थे, उसामा और अराफात में कोई समानता नहीं थी लेकिन इन परस्पर विरोधी नेताओं के अनुयायिों और प्रशंसकों को एक करने का दायित्व अनचाहे ही अमेरिका ने अपने कंधों पर ले लिया है। एराक और अफगानिस्तान के दलदल में फंसे अमेरिका ने अपने लिए अब एक नया गड्ढा और खोद लिया है। शांति-पक्रिया के नाम पर वह शेरोन को जो कदम उठाने दे रहा है, वह हिंसा के निमंत्राण के अलावा क्या है? पहले फलस्तीनी मुक्ति मोर्चे और अब ‘हमास` को दरकिनार करके क्या इस्राइल अपने लिए कोई नई फलस्तीनी कठपुतलियॉं खड़ी करेगा? यदि बुश और शेरोन में कुछ दूरंदेशी और परिपक्वता होती तो वे ‘हमास` को पटाकर उसके ज़रिए गाजा के पुनर्वास का ऐसा सुंदर आयोजन कर सकते थे, जो पश्चिमी तट को भी युद्ध से उबार लेता। पश्चिमी तट के फलस्तीनी इस्राइल को अनेक रियायतें देने के लिए तैयार थे और इस्राइल में भी शाति की बयार बहने लगी थी लेकिन शेरोन ने पिछले एक माह में शांति की वे सब दीवारें ढहा दीं जो पिछले एक दशक में एक-एक ईंट बड़े जतन से जोड़कर बनाई गई थीं।
फलस्तीन अरब भूमि का अभिशाप बन गया ह। हिंसा और प्रतिहिंसा की ऐसी क्रूर धारावाहिकता मानव इतिहास कम ही देखने को मिलती है। यदि इस्राइल क्रूरता पर उतारू है तो फलस्तीन भी कम नहीं है। जहाजों का अपहरण, स्कूली बच्चों पर हमला, निहत्थे यहूदियों के प्राण-हरण और निरंतर आतंक की तलवार लटकाकर वे सोचते हैं कि वे इस्राइल के घुटने टिकवा लेंगे। क्या अभी तक वे यह नहीं समझे हैं कि इस्राइल को दुनिया की किसी भी ताकत की कोई परवाह नहीं है और इस्राइली भी उसी प्रताड़ना-भाव की संतान हैं, जिसकी संतान फलस्तीनी अपने आपको मानते हैं। इसके अलावा इस्राइल के पीछे पश्चिमी राष्ट्रों का सैन्य-बल और धन-बल है जबकि अरब राष्ट्र फलस्तीनियों को अपना केवल गरीब रिश्तेदार समझते हैं। अब उनके लिए लड़नेवाला कोई अब्दुल जमाल नासिर भी नहीं है। सद्दाम भी सीखचों के पीछे है। ऐसे में अगर फलस्तीनी नेतागण थोड़े धैर्य का परिचय दें तो इन दो जघन्य हत्याओं को शांति की वापसी का बिंदु बनाया जा सकता है, वरना लंबे युद्ध की चौपड़ तो बिछ ही चुकी है।
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