सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद को आपसी बातचीत और सर्वसम्मति से हल करने की सलाह दी है। मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने कहा है कि दोनों तरफ की पार्टियां राजी हों तो वे स्वयं मध्यस्थता करने को तैयार हैं। यह फैसला लगभग छह साल तक इंतजार करने के बाद आया है।
2010 में इलाहाबाद न्यायालय ने जो फैसला दिया था, वह मुकदमा लड़ने वाली तीनों पार्टियों को स्वीकार नहीं था। उसने 2.7 एकड़ विवादित जमीन को रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड में बांट दिया था। वहां मंदिर और मस्जिद फिर से बन सकते थे। अब यदि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट को साफ-साफ फैसला नहीं देना था तो उसने छह साल बर्बाद क्यों होने दिए? वह छह साल पहले ही यह कह सकती थी कि प्रतिस्पर्धी पार्टियां आपस में फैसला करें।
आपस में फैसले की कोशिश कब नहीं हुई है? चंद्रशेखरजी, नरसिंहरावजी और अटलजी के जमाने में मैंने खुद विश्व हिंदू परिषद, संघ, भाजपा और मुस्लिम नेताओं की बीच संवाद करवाया था। कई बातें चुपचाप चलती रहीं। कई खुलकर भी हुई। कार-सेवा तो अक्तूबर 1991 में ही होनी थी। उसे टाल कर 6 दिसंबर 1992 को किया गया। 6 दिसंबर को रविवार था। उस दिन ढाचा ढह गया। उसके बाद भी बात चलती रही लेकिन कोई हल नहीं निकला।
मुस्लिम नेतागण मुझे कहते रहे कि इस सारे मामले को अदालत को सौंपवा दीजिए। 2010 के अदालती फैसले को कौन मान रहा है? यदि सुप्रीम कोर्ट भी कोई फैसला दे दे तो उसे कौन मानेगा, यह बात वह भी जानती है। इसीलिए उसने इसे आपसी बातचीत से हल करने के लिए कहा है। समस्त हिंदू संस्थाओं ने इस राय का स्वागत किया है लेकिन प्रमुख मुस्लिम संस्थाओं ने इसका विरोध किया है। इस समर्थन और विरोध के पीछे तथ्य कम और आस्था ज्यादा है। तर्क कम, अहंकार ज्यादा है। यदि अदालत फैसला कर भी दे तो उसे लागू कौन करेगा? अदालत के कई फैसले अधर में ही लटके रहते हैं। न जजों को वे याद रहते हैं और न ही लोगों को। फैसला ऐसा होना चाहिए, जिसे सब लोग तहे-दिल से स्वीकार करें। यह फैसला बातचीत से जरुर हो सकता है लेकिन यह इस पर निर्भर है कि मध्यस्थ कौन हैं, उनके तर्क क्या हैं और उनके तरीके क्या हैं।
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