राष्ट्रीय सहारा, 19 फरवरी 2009 : किसी भी देश में आम चुनाव होते हैं तो प्राय: एक पार्टी जीतती है और एक नेता प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनता है लेकिन इस बार इस्राइल में अजूबा हुआ है| दो-दो पार्टियाँ और दो-दो नेता सत्तारूढ़ होने और प्रधानमंत्री बनने का जश्न मना रहे हैं| यह कैसे हुआ ? इस्राइल की संसद में कुल 120 सीटें हैं| दर्जन भर पार्टियों ने चुनाव लड़ा लेकिन किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला याने 61 सीटें किसी भी पार्टी को नहीं मिलीं| 61 की बात जाने दीजिए, किसी भी पार्टी को 30 सीटें भी नहीं मिलीं याने एक भी पार्टी ऐसी नहीं उभरी, जिसे कम से कम एक-चौथाई सीटें तो मिली हों|
सबसे ज्यादा सीटें कदीमा पार्टी को मिली हैं| वे हैं 28! 120 में से सिर्फ 28 ! उससे कम, सिर्फ एक कम मिली है, लिकुद पार्टी को याने 27 सीटें ! यदि ये दोनों प्रमुख और परस्पर विरोधी पार्टियाँ भी हाथ मिला लें तो भी वे 61 का आंकड़ा नहीं छू सकतीं| फिर भी दोनों पार्टियाँ जश्न मना रही हैं| कदीमा की नेता जि़पी लिवनी और लिकुद के नेता बिन्यामिन नेतनयाहू, दोनों ही घोषणा कर रहे हैं कि वे ही प्रधानमंत्री बनेंगे| श्रीमती लिवनी पिछली सरकार में विदेश मंत्र्ी रही हैं और नेतनयाहू पहले प्रधानमंत्री रह चुके हैं| सच्चाई तो यह है कि प्रधानमंत्री बनना दोनों के हाथ में नहीं है| दोनों टेके की तलाश में हैं| जिसे भी 61 या ज्यादा सांसदों का समर्थन मिलेगा, वह प्रधानमंत्री बन जाएगा| प्रधानमंत्री पद की जोड़-तोड़ के लिए नेताओं को लगभग एक सप्ताह का समय मिलेगा| एक बार प्रधानमंत्री पद के लिए नामजद होने के बाद उस व्यक्ति को 42 दिन का समय मिलता है| इस 42 दिन की अवधि में सरकार बनाने के लिए जबर्दस्त सौदेबाजी और आयाराम-गयाराम का दौर चलेगा| इस्राइल के राष्ट्रपति शिमोन पेरेज़ उसी को शपथ दिलाएँगे, जिसे स्पष्ट बहुमत मिलेगा|
तो स्पष्ट बहुमत किसे मिलेगा और उसका इस्राइल-फलस्तीन संबंधों पर क्या असर पड़ेगा, यह मुख्य प्रश्न है| यों तो सर्वाधिक सीटोंवाली नेता लिवनी को बहुमत मिलना चाहिए लेकिन उनकी परेशानी यह है कि उनकी पार्टी मध्यममार्गी है और सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं, दक्षिणपंथी उग्रवादी पार्टियों कों| उनकी संख्या 65 से 70 तक पहुँचती है| लिवनी के मुकाबले दक्षिणपंथी लिकुद के नेता नेतनयाहू को एक सीट कम मिली है लेकिन लगभग सभी दक्षिणपंथी पार्टियाँ उनसे ही जुड़ना चाहेंगी| वामपंथी लेबर पार्टी को सिर्फ 13 सीटें मिली हैं, जबकि उग्रवादी दक्षिणपंथी नेता एविग्दोर लाइबरमान की पार्टी ‘यिस्राइल बाइतेनु’ को 15 सीटें मिली हैं| यह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है| इस पार्टी का इतना शक्तिशाली होकर उभरना मामूली घटना नहीं है| बल्कि यह कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि इस्राइल के इस आम-चुनाव की सबसे उल्लेखनीय घटना यही है| इस्राइल के चुनाव सानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होते हैं याने सीटों और वोटों के बीच सही अनुपात बना रहता है|
लाइबरमान के पास दस लाख रूसी यहूदियों का तगड़ा वोट बैंक है| उन्होंने चुनाव के दौरान साफ़-साफ़ कहा कि इस्राइल में रहनेवाले लगभग 14 लाख अरब लोग या तो देशभक्ति की शपथ लें या इस्राइल छोड़कर फलस्तीन चले जाएँ| शेष 56 लाख यहूदियों के बीच अगर वे रहना चाहें तो उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रहना होगा| यदि अरब लोग इस्राइल खाली नहीं करेंगे तो इस्राइल भी पश्चिमी तट खाली क्यों करे ? लाइबरमान ने गाज़ा पर हुए हमले के समय भी कई घोर आपत्तिजनक बयान दिए थे| उन्होंने कहा था कि हमास को इस्राइल उसी तरह परास्त करे, जैसे अमेरिका ने द्वितीय महायुद्घ के दौरान जापान को किया था| वे गाज़ा के फलस्तीनियों के समूल-नाश का आहवान कर रहे थे| ऐसे उग्रवादी नेता के टेके पर टिकी सरकार फलस्तीनियों से क्या बात करेगी| वह तो ओबामा के विशेष दूत को भी बेरंग लौटा देगी| लिबरमान की पार्टी का साथ देनेवाली उससे भी ज्यादा दक्षिणपंथी मज़हबी पार्टी ‘शास’ को 11 सीटें मिली हैं| ये दोनों और अन्य छोटी-मोटी पार्टियाँ लिवनी का समर्थन क्यों करेंगी| हालांकि लिवनी ने विदेश मंत्री की हैसियत से गाजा पर हुए हमले की डटकर वकालत की थी और संयुक्तराष्ट्र में वे ही इस्राइल की एकमात्र् प्रवक्ता थीं लेकिन उन्हें काफी नरम और कमज़ोर माना जाता है| सच्चाई तो यह है कि वे व्यावहारिक और विवेकवान हैं लेकिन उनके साथ कौन आएगा ? अगर लेबर पार्टी के 13 सांसद उनका साथ देने को तैयार हो जाएँ तो भी 61 की संख्या तक पहुँचना मुश्किल दिख रहा है| यह हो सकता है कि वे कुछ दक्षिणपंथी पार्टियों को सावधिक प्रधानमंत्री पद का लालच देकर अपने साथ जोड़ लें लेकिन ऐसी सरकार कितने दिन चलेगी और वह किसका भला करेगी| यों भी इस्राइल में पिछले दस साल में पाँच सरकारें बदल चुकी हैं|
जहाँ तक नेतनयाहू का प्रश्न है, वे अब भी महाइस्राइल के पक्षधर हैं, नील से फरात नदी तक ! अमेरिका की ताकतवर यहूदी लॉबी उनके पीछे है| वे हर क़ीमत पर दुबारा प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं| प्रधानमंत्री बनने के खातिर वे इस पद की बंदर-बाट के लिए भी तैयार हो सकते हैं| वे मानते हैं कि इस्राइल के वर्तमान जनमत के वे ही सच्चे प्रतिनिधि है| यदि वे सरकार बना लेते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा लेकिन डर यही है कि वह सरकार जल्दी ही ओबामा से तलवारें भिड़ाने लगेगी| धुर दक्षिणपंथी सरकार न हमास से बात करेगी और न ही अपने अरब नागरिकों को समान दर्जा देगी| वह शायद दक्षिणी लेबनान में हिजबुल्लाह से निपटने की भी कोशिश करेगी| कुल मिलाकर लगता यही है कि अब इस्राइल में जो भी सरकार बनेगी, उसकी भूमिका संयमित और संतुलित नहीं हो पाएगी| वह अंदर से अस्थिर होगी और बाहर से आक्रामक ! ओबामा के लिए यह चिंता का विषय तो है ही, क्योंकि उन्होंने इस्राइल-फलस्तीन विवाद को निपटाने की कसम खा रखी है| आशा की किरण यही है कि उग्रवादी सरकार रातों-रात बड़ी जिम्मेदार बन जाए और अमेरिकी दबाव में आकर कोई एतिहासिक पहल कर डाले| यह अजूबा होगा| यों इस्राइल की जनता ने जो फैसला सुनाया है, उसने पश्चिम एशिया की शांति-प्रकि्रया को अधर में लटका दिया है| शांति-प्रकि्रया तभी सफल हो सकती है, जबकि इस्राइल की सभी प्रमुख पार्टियों में लगभग सर्वसम्मति हो| आज तो वहाँ बहुमति के भी लाले पड़े हुए हैं|
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