राष्ट्रीय सहारा, 5 July 2010 : नेपाल के प्रधानमंत्री माधव नेपाल इस्तीफा नही देते तो क्या करते? वे पूरी तरह घिर गए थे। माओवादी तो उन्हें हटाना ही चाहते थे, उनकी अपनी पार्टी ‘एमाले’ के अध्यक्ष झलनाथ खनाल और स्पीकर सुभाष नेमबांस ने भी उनके विरुद्ध बगावत का झंडा खड़ा कर दिया था। यदि वे पांच जुलाई को बजट पेश करते तो उसे किसी भी हालत में पास नही करा पाते। फिर वह बड़े बेआबरू होकर कूचे से निकलते। उससे तो उनके लिए यही बेहतर हुआ कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। माधव नेपाल को यह संतोष रह सकता है कि उन्होंने ऐसे तूफानी वक्त में 13 माह तक सरकार चला ली जबकि प्रचंड के नेतृत्व में बनी माओवादी सरकार तो नौ महीने में ही ढेर हो गई थी। माधव नेपाल आम चुनाव में दो जगहों से चुनाव हार गए थे लेकिन उन्हें इतने नरम और समन्वयवादी स्वभाव का माना जाता है कि उन्हें संसद में नामजद करके लाया गया। दिलचस्प बात यह है कि इस नामजदगी में माओवादियों ने सक्रिय मदद भी की थी। लेकिन तब माधव नेपाल को क्या पता था कि माओवादी ही उनके सबसे बड़े दुश्मन बन जाएंगे और उन्हें पद से हटाने के लिए मुहिम ही छेड़ देंगे। चुनाव के बाद बनी माओवादी सरकार के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और राष्ट्रपति रामबरन यादव में ठन गई। प्रचंड ने सेनापति रुकमांगद कटवाल को बर्खास्त करने की कोशिश की लेकिन यादव ने उनके आदेश को रद्द कर दिया। गुस्से में प्रचंड ने इस्तीफा दे दिया। किस्मत का खेल कि माधव नेपाल प्रधानमंत्री बन गए। उन्हें 22 पार्टियों का समर्थन मिल गया। लेकिन माओवादी उनके सबसे बड़े विरोधी बन गए। पिछले 13 माह में माओवादियों ने माधव नेपाल की सरकार को लगभग ठप कर दिया था। आए दिन की हड़तालों ने नेपाल की शांति और अर्थव्यवस्था को बीमार कर दिया। इससे भी ज्यादा खराब काम यह हुआ कि संविधान के निर्माण की प्रक्रिया लकवाग्रस्त हो गई। माओवादियों के समर्थन के बिना संविधान की धाराएं कैसे पारित होती, क्योंकि उसके लिए दो-तिहाई
और तीन-चौथाई बहुमत चाहिए। संविधान सभा में माओवादी सदस्यों की तादाद 38 फीसद है। कुल 601 सदस्यों में उनके 238 सदस्य है। 13 माह चली माधव नेपाल की सरकार का चलना या न चलना एक तरह से बराबर रहा। दूसरे शब्दों में, यह सिद्ध हो गया कि माओवादियों के सहयोग के बिना नेपाल में न कोई सरकार चल सकती है और न ही संविधान बन सकता है। आगे भी उनकी सहमति या समर्थन के बिना बनी सरकार को यह झेलना पड़ सकता है। दरअसल, माधव नेपाल की नरमी ही उनका काल बन गई। यदि वे डटकर सरकार चला पाते और अपूर्व
लोकप्रियता अर्जित कर लेते तो यह भी संभव था कि वे इस संसद को भंग करवा लेते। नए चुनावों में माओवादियों को पटखनी देकर वे नई संसद और सरकार खड़ी करते और समय के पहले ही संविधान बनवा देते। यह सब होता, इसकी बजाए अब जो हुआ है, उसके कारण नेपाल का जाल पहले से ज्यादा उलझ गया है। हालांकि माधव नेपाल के इस्तीफे ने माओवादियों का रास्ता साफ नही किया है। ऐसा समझना भी मकारी होगा क्योंकि सभी 22 पार्टियां अब माओवादियों को सत्ता के सूत्र आसानी से थमा देंगी, ऐसा नही लगता। इसकी पृष्ठभूमि में कई सारे कारण है। सबसे पहले उन पार्टियों की मांग यह होगी कि माओवादी अपने फौजी दस्तों को भंग करें, कब्जाई हुई
संपत्तियों को लौटाएं और अपने आक्रामक युवा-संगठन को विसर्जित करें। इन मुद्दों पर माओवादी राजनीतिक आंखमिचौली खेलते रहते है। उनके इस रवैए ने सभी दलों के दिलों में माओवादियों के प्रति गहरा अविश्वास जमा दिया है। इसके अलावा नेपालियों को यह डर भी है कि माओवादी चीन की गुलामी करेंगे और ऐसा संविधान बनाने पर जोर देंगे, जो गणतंत्र कम और गनतंत्र ज्यादा हो। वे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे। इतना ही नही, अब माओवादियों के भी दांतों में सत्ता को खून लग चुका है। प्रचंड ही नही, बाबूराम भट्टराई और मोहन वैद्य तीनों प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे है। यदि माओवादियों की यह खीचतान जोर पकड़ गई तो 22 पार्टियों में कोई भी उनके साथ दुबारा नही जाना चाहेगी। ऐसी स्थिति में सत्ता की गेंद नेपाली कांग्रेस और माधव नेपाल की एमाले के पाले में आ जाएगी। माओवादी और एमाले, दोनों ही पिछले 22 माह में सत्ता-सुख भोग चुके है। अब नेपाली कांग्रेस की बारी है। नेपाली कांग्रेस के एकछत्र नेता गिरिजा कोइराला तो अब है नही। हाल ही में उनका निधन हो गया है। यदि वे होते तो सभी पार्टियां और शायद माओवादी भी उन्हें नेता मान लेते। लेकिन उनकी अनुपस्थिति में केवल उनकी बेटी सुजाता ही नही, पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और संसद में इस दल के नेता रामचंद्र पौडेल भी सशक्त दावेदार है। इनमें सुजाता के लिए अनुभवहीनता भी एक मुद्दा हो सकती है वही देउबा को पुराना अनुभव पार्टियों को भरोसा दिला सकता है। एमाले के झलनाथ खनाल और अब कार्यवाहक प्रधानमंत्री माधव नेपाल भी दुबारा सत्तारूढ़ होना चाहते है। ऐसा लगता है कि नेपाल के नेताओं को नेपाल के अलावा अन्य सभी के हितों से प्यार है। नेपाल के लिए लड़नेवाला आज वहां कोई दिखाई नही पड़ रहा है। यदि ऐसा नही होता तो सभी पार्टियां देश के संविधान को आदर्श स्वरूप देने में लगती। लेकिन उन्हें केवल सरकार बनाने से मतलब है। यही कारण है कि भारत का यह पड़ोसी देश राजनीतिक अस्थिरता से बुरी तरह जूझ रहा है। विश्वास बहाली के जिन कदमों की अपेक्षा माओवादियों से राजनीतिक पार्टियां कर रही है, वह सहज पूरी होने वाली नही है। इसलिए कि यह उनके अस्तित्व से जुड़े कदम है। खास कर सशस्त्र कैडर को ध्वस्त करना। दूसरी बात, सत्ता में भागीदारी को लेकर भी उनमें परस्पर मतभेद है। अपने-अपने क्षुद्र स्वाथरे ने फंसे नेपाली नेतागण इस हिमालयी राष्ट्र को अनिश्चय की खाई में धकेले जा रहे है। यदि अगले तीन-चार दिन में वे कोई फैसला नही कर सके तो राष्ट्रपति रामबरन यादव को एक बार फिर साहस का परिचय देना होगा। एक राष्ट्रीय सरकार का गठन करके वे सत्ता का सूत्र किसी भी छोटी पार्टी के बड़े थमा दें या स्वयं ही शासनाध्यक्ष भी बन जाएं और सर्वदलीय सरकार चलाएं। यदि यह संभव हो सके तो निश्चय ही अगले 11 माह में संविधान बनकर तैयार हो सकता है। अराजकता की स्थिति अनंत काल तक चले, इससे बेहतर तो यही होगा कि इस संसद को भंग कर दिया जाए और नए चुनाव से नई संसद लाई जाए और उसे निश्चित अवधि(छह माह) में संविधान पेश करने के लिए कहा जाए। नेपाल का हित इसमें ही है।
Leave a Reply