राष्ट्रीय सहारा, 20 जुलाई 2010 | भारत और पाकिस्तान के कई अखबार, चैनल और नेतागण पूछ रहे हैं कि भारतीय विदेश मंत्री की यह पहली पाकिस्तान-यात्र क्या विफल हो गई ? थिम्पू-वार्ता, विदेश सचिव और गृहमंत्री की पाक-यात्रओं में जो सकारात्मक वातावरण बना था, क्या वह हवा में उड़ गया ? यदि सिर्फ पाकिस्तानी अखबारों और उनके विदेश मंत्र्ी के ताज़ातरीन बयान पर ध्यान दें तो ऐसा ही लगेगा| यह भी लगेगा कि दोनों देशों के बीच तू-तू – मैं-मैं का दौर दुबारा शुरू हो सकता है|
जरूरी नहीं है कि ऐसा ही हो, हालांकि पाकिस्तान ने इसकी शुरूआत कर दी है| उसने भारत पर आरोप लगाया है कि वह कोई भी समस्या समयबद्घ ढंग से हल नहीं करना चाहता| वैसे इस्लामाबाद में दोनों मंत्रियों और अफसरों के बीच सात-आठ घंटे वार्ता का जो असाधारण दौर चला, उसमें कोई अपि्रयता हुई हो, ऐसा पता नहीं चला बल्कि हमारी विदेश सचिव ने उस वार्ता को सार्थक बताया था| इसी प्रकार दोनों मंत्रियों ने संयुक्त पत्र्कार-वार्ता में काफी संयम का परिचय दिया लेकिन वार्ता के अंत में पाकिस्तानी पत्र्कार-बंधुओं ने ऐसे सवाल पूछे, जिन्होंने सारे मामले को ही दूसरा रंग दे दिया| शेर निकल गया लेकिन पूंछ फंस गई| यह पूंछ ही अब शेर को हिला रही है|
शर्म-अल-शेख में उठे बलूचिस्तान के सवाल ने ही गत वर्ष दोनों देशों को पटरी से उतार दिया था| अब दुबारा बलूचिस्तान में भारतीय तोड़-फोड़ की निरर्थक बात को छेड़ने की क्या तुक थी ? इस मुद्दे पर दोनों विदेश मंत्र्ियों ने बात बिगड़ने नहीं दी| इसी प्रकार कश्मीर में मानवाधिकार और आतंकवादी घुसपैठ के सवाल पर दोनों मंत्र्ियों ने संयमित शब्दों में अपनी-अपनी सरकार का रवैया प्रकट कर दिया| भारतीय गृह सचिव ने आई एस आई के बारे में भारत में जो कहा था, उसे पाकिस्तानी ले उड़े | हमारे गृह सचिव ने ज़रा दो-टूक शब्दों में कह दिया था कि मंुबई-हमले का संचालन पूरी तरह से आईएसआई ने किया था| इसमें गलत क्या था ? किसी पाकिस्तानी पत्र्कार ने जब यह सवाल उठाया तो पाक विदेश मंत्र्ी ने कहा कि ‘भारतीय गृह-सचिव की ”यह टिप्पणी अनावश्यक थी|” यदि पाकिस्तानी विदेश मंत्री यह नहीं कहते तो क्या कहते ? उनकी विदेश नीति की सबसे सशक्त भुजा पर प्रहार हो रहा हो और ऐसे में वे चुप रह जाते तो उनकी शामत नहीं आ जाती ? इसे भारतीय विदेश मंत्री का अतिसंयम कहें कि वह इस मुद्दे पर चुप रह गए ? कुछ बोले नहीं| वे चाहते और सचमुच वे कूटनीति में माहिर होते तो बड़ा माकूल-सा जवाब दे सकते थे| लेकिन यहीं से सारा मामला बिगड़ता गया|
ऐसा नहीं है कि भारत के नीति-निर्माता अबोध हैं| उन्हें पता है कि पाकिस्तान की दुखती रग कौनसी है| पाकिस्तान की असली सत्ता वहां की फौज और गुप्तचर संगठन के हाथों में है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों ने, एकाध अपवाद को छोड़कर, कभी ठोस प्रयत्न नहीं किया कि इन असली सत्ताधारियों से सीधा संवाद करें| इसी का परिणाम है कि हमारी कूटनीति एन वक्त पर घुटने टेक देती है| जुल्फिकार अली भुट्टो के संक्षिप्त शासन-काल को छोड़ दें तो पाकिस्तान में लगातार वास्तविक सत्ता फौज के हाथों में रही है| 1971 में बांग्लादेश में पिटी पाकिस्तानी फौज कुछ वर्षों तक कठघरे में जरूर फंस गई लेकिन शेष समय वह ही पाकिस्तान की भारत-नीति तय करती रही है| इसीलिए जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ राष्ट्रपति थे, तब भारत-पाक संबंध-सुधार की संभावना सबसे अधिक बन गई थी| करगिल युद्घ भी उन्होंने ही छिड़वाया था और भारत-पाक शांति का नया अध्याय भी वही शुरू कर सकते थे लेकिन इस समय पाकिस्तान की सत्ता दो हिस्सों में बंटी हुई है| बाहरीहिस्साजरदारी-गिलानीकेजिम्मेहैऔरअंदरूनीहिस्साक़यानी-पाशाकेजिम्मे!
ऐसी हालत में भारत की कूटनीति की डगर बड़ी कठिन हो गई है| भारत-पाक मामला इतना उलझा हुआ है कि यह सिर्फ प्रधानमंत्रियों, विदेश मंत्रियों और विदेश सचिवों के मिलने भर से सुलझ नहीं सकता| इन मुलाकातों के पहले जैसी तैयारी होनी चाहिए, जाहिर है कि नहीं हुई| दोनों देशों में ऐसे अनेक अनुभवी और जिम्मेदार लोग हैं, जो औपचारिक वार्ताओं के पहले मजबूत ज़मीन तैयार कर सकते हैं लेकिन भारत सरकार खुद आगे बढ़कर उनका उपयोग नहीं कर रही है और यही हाल पाकिस्तान का भी है| नेता और अफसर तो हर दो-चार साल में बदल जाते हैं, लेकिन जो लोग दशकों से भारत-पाक संवाद से जुड़े हुए हैं, वे इस वक्त़ दोनों देशों की काफी सहायता कर सकते हैं| न सिर्फ वे दोनों देशों के नेताओं से खुलकर बात कर सकते हैं बल्कि फौज और आईएसआई से भी सीधे संवाद कर सकते हैं| दोनों देशों की आम जनता और मीडिया में भी उनकी सीधी पैठ है| भारत की कूटनीति जब तक पाक नेता, फौज और जनता – इन तीनों स्तरों पर सक्रिय नहीं होगी, सफल नहीं हो सकती|
इस मौके पर यह सोचना भी पड़ रहा है कि भारत-पाक वार्ताओं को लेकर होनेवाली संयुक्त-पत्र्कार-वार्ताओं की परंपरा को कुछ दिनों के लिए स्थगित क्यों ने कर दिया जाए ? पाकिस्तानी पत्र्कार इस प्रस्ताव से नाराज जरूर होंगे, लेकिन उनके नेताओं को इस कदम से काफी राहत मिलेगी| पाक पत्र्कारों की मेहरबानी नहीं होती तो भी भारतीय विदेश मंत्र्ी की यह यात्र बहुत सार्थक नहीं होती लेकिन जो बदमज़गी अब पैदा हो रही है, वह भी नहीं होती| इसका अर्थ यह नहीं कि भारत-पाक संवाद पर पूर्ण-विराम लग गया है या उसे भंग कर देना चाहिए लेकिन जरूरी यह है कि उसके लिए धैर्यपूर्वक तैयारी करनी चाहिए और उसे सिर्फ अजमल कस्साब या हाफिज सईद या डेविड हेडली तक सीमित नहीं रखना चाहिए| यदि पाकिस्तानी सरकार इन तीनों को फांसी पर लटका देती तो भी क्या हो जाता ? उसका नाटकीय प्रभाव जरूर होता लेकिन वह स्थायी नहीं रहता| भारत और पाक के बीच इन तात्कालिक मुद्दों के अलावा अफगानिस्तान, कश्मीर, गैस-पाइपलाइन, आपसी व्यापार और सबसे ज्यादा आपसी विश्वास जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे भी हैं| इनका फैसला किसी एक वार्ता या यात्र के सफल या असफल होने से नहीं हो सकता|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं और भारत-पाक संवाद के सशक्त स्तंभ रहे हैं)
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