नवभारत टाइम्स, 02 दिसम्बर 2005 : पहले संघ और लालकृष्ण आडवाणी भिड़े और अब भाजपा और उमा भारती भिड़ गए| इस भिडंत में विचारधारा कहां है, आदर्श कहां हैं, सिद्घांत और नीतियां कहॉं हैं? यह शुद्घ सत्ता-संघर्ष है| आडवाणी और उमा से बेहतर सिद्घांतशास्त्री कल तक कौन था? लेकिन संघ और आडवाणी की भिड़ंत में आडवाणी ने जैसा विनम्रतापूर्ण आत्म-समर्पण किया, क्या किसी लोकतांत्रिक दल का कोई नेता करता है? भाजपा नेतृत्व को चुनौती देने से पहले उमा भारती ने क्या आडवाणी-प्रकरण से कोई सबक नहीं लिया? जिस पार्टी का अध्यक्ष खुद-मुख्तार नहीं है,उस पार्टी की एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री क्या बेलगाम होने दी जा सकती है? आडवाणी को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने संसद में दो के सौ कर दिए, रथ-यात्र निकाली और पूरे देश में प्रचंड जनमत तैयार किया| उन्होंने अपने दम-खम से लहर उठाई, वे चढ़ी हुई लहर पर सवार नहीं हुए, जैसे कि उमा हो गई| म.प्र. में कांग्रेस की खाई पहले ही खुद चुकी थी| जिसे भी दिल्ली से भेजा जाता, वह प्रचंड बहुमत ही लाता| फिर भी, उमा भारती को विशेष श्रेय दे दिया जाए तो भी प्रश्न यह है कि क्या उनका कद आडवाणी से भी उंचा है? यदि आडवाणी पस्त हो गए तो क्या उमा भारती अपने कौल पर टिकी रह सकती हैं? अगर उनमें दम-खम होता तो पिछले साल ही वे माफी क्यों मॉंगती? क्यों दुबारा लौटने को लालायित होतीं? इस बार भी उनका उफान बासी कढ़ी के उबाल से कुछ ज्यादा नहीं लगता|
उमा भारती कभी संघ की स्वयंसेवक नहीं रहीं| अगर रही होतीं तो उनका बर्ताव आडवाणी की तरह होता या सबसे ताज़ा उदाहरण, बाबूलाल गौर का है| गौर की तरह होता| भाजपा ने उनको जमाया तो जम गए, हटाया तो हट गए| वे अपने लिए सर्वथा पृथक्र बर्ताव की आशा क्यों करती हैं? उन्होंने खुद को गर्व का गुब्बारा क्यों बना लिया है? क्या इसलिए कि वे संन्यासिनी हैं? अगर वे सचमुच संन्यासिनी होतीं तो राजनीतिके पचड़े में ही क्यों पड़तीं? वे स्वयं जानती होंगी कि संन्यास की किन-किन मर्यादाओं का वे पालन कर पाती हैं| क्या उन्हें पता नहीं कि नेता लोग संन्यासियों को ढोंगी के अलावा कुछ नहीं मानते| अलबत्ता, जन-साधारण के लिए भगवा वेश ही सम्मान का कारण बन जाता है| शायद इसीलिए नेतागण संन्यासियों के इस्तेमाल का लोभ-संवरण नहीं कर पाते| उमा भारती जैसे लोगों को यह गलतफहमी हो जाए कि उनका अपना जनाधार है, यह स्वाभाविक है लेकिन क्या कल्याणसिंह से कोई सबक उमा को नहीं लेना चाहिए? क्या उमा भारती बता सकती हैं कि उन्होंने ऐसा कौनसा लोक-कल्याणकारी जन-आंदोलन चलाया, जिसके कारण जनता का कोई खास तबका उनके साथ हो गया? वे आडवाणी के मंदिर महाचक्र में एक तीव्र लघु-चक्र की तरह जरूर घूमती रहीं| इसमें संदेह नहीं कि दिल्ली के दरबारी नेताओं के मुकाबले वे जनता के अधिक निकट रही हैं लेकिन उन्हें कभी भी गंभीर नेता के तौर पर न तो मध्य प्रदेश ने जाना और न ही देश ने ! केंद्रीय मंत्र्ी के तौर पर भी उन्होंने कोई उल्लेखनीय काम किया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता| साल भर के मुख्यमंत्रित्व ने उमा के तेज को बुझाना शुरू कर दिया था| यदि वे अब तक उसी पद पर रह जातीं तो उन्हें बहुत बेआबरू होकर निकलना पड़ता| हुगली के मुकदमे ने उन्हें सुरक्षित गली दिखा दी थी| वे चाहतीं तो अखिल भारतीय नेता बन सकती थीं| वे मूलत: आंदोलनकारी हैं, प्रशासक नहीं| लेकिन पिछले सवा साल के कि्रया-कलाप ने यह सिद्घ कर दिया है कि उनके हाथ से मुख्यमंत्री पद भी गया और वह प्रभा-मंडल भी, जो उन्हें सोनिया गांधी के मुकाबले खड़ा कर सकता था| यदि उन्होंने इस बार भी माफी मांग ली तो वे कहीं की नहीं रहेंगी| सत्ता-लोलुप होने के साथ-साथ उन पर कायरता का भी आरोप लगेगा| संन्यासी को ‘स्थितप्रज्ञ’ माना जाता है लेकिन उन्हें ‘अस्थिरचित्त’ माना जाएगा|
उमा भारती को दुबारा मुख्यमंत्री बनने दिया जाता और उन्हें अपना राजनीतिक आत्म-हनन करने दिया जाता तो भाजपा-नेतृत्व इतनी सांसत में नहीं फॅंसता| लेकिन अनुशासन के नाम पर भाजपा ने अपनी दुर्गती खुद ही की| दूरंदेशी से काम नहीं लिया| वह म.प्र. की जनता को यह नहीं बता सकती कि उसने बाबूलाल गौर को क्यों हटाया? क्या इसीलिए नहीं हटाया कि वह उमा से डर गई? सवा सौ विधायक, जिसके लिए पत्र् लिखें, उस नेता की उपेक्षा आप कैसे कर सकते हैं? लेकिन पहले तो आप उमा से डर गए और फिर आपने उसकी उपेक्षा भी की| एक साथ दो भूलें ! इस भ्रमित भाजपा-नेतृत्व को उसके विधायक सज़ा नहीं दे सकते| इस तरह की भूलों की सज़ा सीधे जनता देती है, जैसे कि वह उ.प्र. में आज तक दे रही है| बेचारे शिवराजसिंह चौहान जैसे बेदाग और युवा नेता के गले में भाजपा-नेताओं ने मुख्यमंत्री का पत्थर लटका दिया है| उमा भाजपा के अंदर रहे या बाहर, नए मुख्यमंत्री के मार्ग में वह कांटे बिछाए बिना न रहेंगी| भाजपा ने म.प्र. को दो साल में तीन मुख्यमंत्री दे दिए लेकिन म.प्र. उसे तीन साल बाद शायद एक मुख्यमंत्री भी न दे| उमा के इस तर्क में दम नहीं कि मुख्यमंत्र्ी दिल्ली से क्यों भेजा गया? उन्हें और गौर को भी तो दिल्ली से ही भेजा गया था| उन दोनों को क्या विधायक दल ने पहले चुना था और बाद में कंेद्र की मुहर लगी थी? म.प्र. में तो कैलाशनाथ काटजू, प्रकाशचंद सेठी, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुनसिंह आदि सब केंद्र से पठाए गए लोग ही मुख्यमंत्री बने थे| सभी दलों के संसदीय बोर्ड सारे फैसले इसी तरह करते हैं| भाजपा उनसे अलग नहीं है| भाजपा जिस कारण उनसे अलग दिख सकती थी, उसे उमा और भाजपा-नेताओं ने मिलकर ध्वस्त कर दिया है| भाजपा की लड़ाई अब भाजपा से ही हो रही है|
Leave a Reply