नवभारत टाइम्स, 30 अक्तूबर 2004: जनरल परवेज़ मुशर्रफ से ऐसी भूल कैसे हो गई? हैं तो वे फौज के जनरल लेकिन कूटनीति में वे बड़े-बड़ों को अब तक पानी पिलाते रहे हैं| इस बार वे गच्चा कैसे खा गए? उनसे दो भूलें हुईं| पहली, उन्होंने जल्दबाजी की और दूसरी, खुद पहल की| अपने गले में घंटी बॉंध ली| जम्मू-कश्मीर के बारे में जो प्रस्ताव उन्होंने खुद उछाला, वह अगर किसी अन्य से उछलवाते तो उसकी भ्रूण-हत्या नहीं होती| उस पर सचमुच विचार होता और शायद कोई रास्ता भी निकल आता| पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और अखबारों ने उसे रद्द कर दिया| भारत सरकार ने भी उसे घुमा-फिराकर अस्पृश्य घोषित कर दिया| कुछ कश्मीरी संगठनों ने उसे सराहा लेकिन पूर्ण स्वीकृति वहॉं भी नहीं है|
पता नहीं, इतनी जल्दबाजी मुशर्रफ ने क्यों की? अभी पिछले माह दोनों देशों के विदेश मंत्री, दोनों शासनाध्यक्ष और उनके सलाहकार मिले ही थे और अगले दो माह में दोनों तरफ के जिम्मेदार लोग दुबारा मिलनेवाले थे| क्या वे कश्मीर पर बात नहीं करते? क्या मुशर्रफ के प्रस्तावों पर वे विस्तार से विचार-विमर्श नहीं करते? दो माह में कौनसा आसमान टूटा जा रहा था?
गोपनीय विचार-विमर्श को आम-बहस के लिए यहॉं-वहॉं से रिसने दिया जा सकता था लेकिन यह क्या हुआ कि शयन-कक्ष के सारे पत्ते मुशर्रफ ने इफ्तार-कक्ष में खोल दिए? संपादकों के इफ्तार में उनकी जुबान फिसल गई| मुशर्रफ के तथाकथित प्रस्तावों पर बहस अभी से शुरू हो गई है लेकिन निशाना प्रस्तावों पर कम, मुशर्रफ पर ज्यादा है| वरना, पाकिस्तान के विरोधी दल यह क्यों कहते कि मुशर्रफ ने कश्मीरियों के साथ विश्वासघात किया है और उन्होंने पाकिस्तान की कश्मीर नीति को शीर्षासन करवा दिया है|
पाकिस्तानी नेताओं और अखबारों की प्रतिक्रिया देखकर ऐसा भी लगता है कि मुशर्रफ ने शायद ठीक ही किया| पिछले 57 साल से पाकिस्तानी नेताओं ने अपनी जनता के दिमाग में यह बात ठोक-ठोककर जमा दी थी कि कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने के अलावा कोई चारा नहीं है| अब पुराने जनमत-संग्रह की बात रद्द करके मुशर्रफ अपनी जनता को यह सोचने के लिए मजबूर करेंगे कि कश्मीर पर कब्जे के अलावा भी कुछ विकल्प हैं|
सचमुच किसी पाकिस्तानी नेता ने ऐसी हिम्मत पहले कभी नहीं दिखाई| या तो वे कश्मीर के लिए हजार साल तक लड़ने की बात करते थे या तीसरे विकल्प (आजादी या भारत-पाक संयुक्त प्रशासन) को सदा रद्द करते थे| मुशर्रफ ने बंद गोभी को फूल-गोभी में बदल दिया है| मुशर्रफ के प्रस्तावों को शिगूफेबाजी कहा जा सकता है लेकिन उसके कारण कई बंद खिड़कियॉं खुलने लगेंगी| इन प्रस्तावों को उछालने से मुशर्रफ को दो तरह के फायदे तो एक दम मिलेंगे| पहला तो यह कि कश्मीरी संगठनों में उनकी साख बढ़ेगी और दूसरा यह कि करगिल के कलाकार की साख अन्तरराष्ट्रीय समाज में भी लौटेगी| दुनिया को लगेगा कि पाकिस्तान कश्मीर के हल की कुछ न कुछ कोशिश जरूर कर रहा है| ये प्रस्ताव चाहे रद्द हो जाऍं लेकिन इस पहल का लाभ मुशर्रफ को जरूर मिलेगा|
मुशर्रफ को जो नुक्सान होगा, वह यह कि पाकिस्तान के विरोधी दलों और कश्मीरी उग्रवादी संगठनों को अब पटाना आसान नहीं रहेगा| इसके अलावा भारत से अब जो बातचीत होगी, उसके मार्ग में जगह-जगह कॉंटे उग आऍंगे| भारत सरकार ने जो सार्वजनिक प्रतिक्रिया दे दी है, उससे अब वह पीछे कैसे हटेगी? कुछ न कुछ आगे ही बढ़ेगी| मुशर्रफ के प्रस्तावों को रद्द करने के लिए अब वह नए-नए तर्क गढ़ेगी| संसद के प्रस्ताव, कश्मीर -विलय के दस्तावेज़ और धर्म-निरपेक्षता के पुराने खंजरों पर वह फिर से सान चढ़ाएगी|
यों जनमत-संग्रह की पुरानी टेक छोड़कर मुशर्रफ ने ठीक ही किया| संयुक्तराष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान भी उसे अप्रासंगिक घोषित कर चुके हैं लेकिन मुशर्रफ का नया प्रस्ताव जनमत-संग्रह नहीं, महा-जनमत संग्रह है| वह जनमत-संग्रह का बड़ा भाई है| यदि संयुक्तराष्ट्र वाला जनमत-संग्रह होता तो सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य एक इकाई की तरह पेश आता| याने वह एक साथ भारत के साथ चला जाता या पाकिस्तान के साथ चला जाता लेकिन यदि मुशर्रफ का प्रस्ताव मान लिया जाए तो अब एक के बजाय सात जनमत-संग्रह होंगे| याने मुशर्रफ के कश्मीर के सात टुकड़ों में से हर टुकड़ा, जिधर चाहेगा, जाएगा| पहले कछुआ साबुत बिकता| अब उसके अंगों को काट-काटकर बेचा जाएगा| एकबारगी तो लगता है कि मुशर्रफ कितने उदार और कितने लोकतांत्रिक हैं कि वे कश्मीर के छोटे-से छोटे हिस्से को खुद मुख्तारी देने को तैयार हैं लेकिन उनके प्रस्ताव पर गहराई से विचार किया जाए तो उसकी निर्ममता और सांप्रदायिकता छुपी नहीं रह पाती है|
पहली बात तो यही कि कश्मीर के सात खंड करने का आधार क्या है? वे सात की बजाय नौ या पॉंच भी माने जा सकते हैं| फिलहाल लगता यह है कि हिन्दू, सुन्नी, शिया, बौद्घ, पहाड़ी और कबाइली आधार पर कश्मीर को बॉंटा जा रहा है, जो भारत-विभाजन के आधार से भी अधिक गया-बीता है| और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि पाकिस्तान को सिर्फ कश्मीर की घाटी से मतलब है| उसमें मुस्लिम-बहुसंख्या है| मुस्लिम बहुसंख्या के लालच में ही जम्मू के डोडा और राजोरी क्षेत्र को उन्होंने एक अलग खंड कह दिया है|
अगर खंडवार जनमत-संग्रह हुआ तो संभावना यही है कि घाटी पाकिस्तान को मिल जाएगी और अगर नहीं मिलेगी तो वह भारत-पाक संयुक्त प्रशासन या संयुक्तराष्ट्र प्रशासन में रहेगी| याने पाकिस्तान की लक्ष्य-सिद्घि तो हो ही जाएगी| शेष कश्मीर का जो भी हो| घाटी के लिए भी मुशर्रफ के दिल में न्याय या दया की भावना कहीं नहीं है| अगर घाटी के लोग आज़ाद होना चाहें तो क्या पाकिस्तान उनका समर्थन करेगा? कतई नहीं| अगर मुशर्रफ ने कश्मीर की आज़ादी के लिए पाकिस्तान की जनता का मन बनाया होता और अपने कश्मीरियों को उतनी भी आजादी दी होती, जितनी, भारत ने दे रखी है तो उनका आज़ादी का विकल्प अवश्य भरोसे लायक हो जाता| इसीलिए घाटी के संगठन भी मुशर्रफ के प्रस्तावों पर दबी जुबान से ही प्रतिक्रिया कर रहे हैं|
मुशर्रफ ने इन प्रस्तावों को, जिन पर पहले से बहस चल रही है, अपनी नामपट्टी चिपकाकर ज़रा खटाई में डाल दिया है| बेहतर तो यह होता ि कवे अपने ‘आज़ाद कश्मीर’ में कुछ ऐसा राजनीतिक और आर्थिक माहौल बनाते कि आज़ाद कश्मीरी कहते कि वे पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं और भारत के कश्मीरी कहते कि हमें भारत के साथ-साथ पाकिस्तान का संयुक्त-प्रशासन भी पसंद है और भारत सोच में पड़ जाता कि वह आखिर क्या करे? याने यथास्थिति कुछ पिघलती लेकिन कोरे प्रस्ताव हवा में उछालकर मुशर्रफ ने यथास्थिति को पहले से अधिक सुदृढ़ बना दिया है| पहले दोनों कश्मीरों को खोला जाता, दोनों तरफ के कश्मीरियों को कम से कम प्रारंभिक आज़ादियों का स्वाद चखने दिया जाता, दोनों तरफ के कश्मीरियों से हल पूछा जाता और फिर कुछ साझा प्रस्ताव बनते तो शायद कुछ बात बनती| पहले से बात बनाने की कोशिश कभी-कभी बात के बिगड़ने का सबब बन जाती है|
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