Dainik Bhaskar, 22 sept. 2010 : सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल की कश्मीर यात्रा बहुत सार्थक सिद्ध हो रही है। महाभारत के युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने कौरवों के साथ वार्ता में जो चतुराई दिखाई थी, वही अब श्रीनगर में भी दिखाई पड़ रही है। अलगाववादी नेताओं के घर जाकर मिलना लचीली कूटनीति का सुंदर उदाहरण है। इसी लचीलेपन को यदि हमारे नेता थोड़ा और आगे बढ़ा दें तो अंधी सुरंग के पार रोशनी दिखना शुरू हो सकती है।
कश्मीर के बागी नेता आखिर क्या मांग कर रहे हैं? आजादी? बम फेंकने वाले आतंकवादी क्या मांग कर रहे हैं? आजादी! पत्थर फेंकने वाले नौजवान क्या चाहते हैं? आजादी! अपने बच्चे की लाश हाथ में लिए सड़क पर उतरी कश्मीरी मां क्या मांग रही है?
आजादी! यहां तक कि राशन की कतार में लगे लोग भी राशन नहीं, आजादी मांग रहे हैं। इधर हम हैं कि ‘आजादी’ शब्द सुनते ही भड़क उठते हैं। हम समझते हैं, यह देशद्रोह है। यह पाकिस्तान की साजिश है। यह भारत को तोड़ने का षड्यंत्र है। यदि हमने कश्मीर को आजाद कर दिया तो देश में कई अन्य कश्मीर उठ खड़े होंगे।
इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हमने कश्मीर को गुलाम बना रखा है और हम उसे कभी भी आजाद नहीं होने देंगे? यह गलत अर्थ हमारे दिमाग में इसीलिए कौंधता है कि हमने ‘आजादी’ नामक शब्द का सही अर्थ समझने की कोशिश ही नहीं की।
कश्मीर के संदर्भ में आजादी का सही अर्थ क्या है, यह मुझे 1993 में उस समय समझ में आया, जब विएना के अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार सम्मेलन में कश्मीर के कई आतंकवादी नेताओं से एक साथ भेंट हुई। प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने डॉ मनमोहन सिंह और अटलबिहारी वाजपेयी को संयुक्त नेता बनाकर भेजा था और मुझे अमेरिका यात्रा बीच में छोड़कर विएना जाने के लिए कहा था।
अटलजी और मैं रेस्तरां की मेज पर जाकर ज्यों ही बैठे, 8-10 कश्मीरी बागी नेताओं ने हमें घेर लिया और बहस करने लगे। उन्होंने कहा- ‘हमें आजादी चाहिए।’ मैंने कहा- ‘मुझे भी चाहिए। आप आजाद रहें और मैं गुलाम रहूं, यह कैसे हो सकता है?
मुझे जितनी आजादी दिल्ली में है, उतनी आपको श्रीनगर में मिले, ऐसी लड़ाई में मैं आपके साथ हूं। आप कहते हैं कश्मीर को आजाद करो। मैं कहता हूं कि सिर्फ कश्मीर को ही क्यों, भारत के सभी प्रांतों को आजाद क्यों न करें? बाकी प्रांत गुलाम क्यों रहें?’
इन तर्को को सुनकर वे हतप्रभ रह गए, लेकिन उनमें से ज्यादातर मुझसे लाहौर, इस्लामाबाद और पेशावर में मिल चुके थे। उनमें से दो जरा खुले। एक ने कहा कि हम कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं और दूसरे ने कहा कि हम कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाना चाहते हैं। मैंने कहा कि इसका कश्मीर की आजादी से क्या लेना-देना है? आप आजादी चाहते हैं या अलगाव चाहते हैं? उनमें से तीन-चार ने एक साथ कहा – ‘अलगाव ही आजादी है।’
मैंने उनका ध्यान तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के ताजा बयान की तरफ आकर्षित कराया, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कश्मीर के तीसरे विकल्प को मैं बिल्कुल रद्द करती हूं।’ तीसरा विकल्प यानी कश्मीर न भारत के साथ रहे और न पाकिस्तान के।
वह स्वतंत्र राष्ट्र की तरह रहे। तीसरा विकल्प यानी अलगाव। पाकिस्तान इस विकल्प का सबसे बड़ा दुश्मन है। मैंने उनसे पूछा कि पाकिस्तान ने जो कश्मीर कब्जाया हुआ है, उसे वह ‘आजाद कश्मीर’ कहता है, वह कश्मीर कितना ‘आजाद’ है?
जो कश्मीर भारत के साथ है, उसे हम ‘आजाद’ कहने का ढोंग नहीं करते। हां, उसका विशेष दर्जा मानते हैं। यह विशेष दर्जा न होता तो भी वह वास्तव में आजाद ही होता, जैसे कि भारत के अन्य प्रांत हैं। अलग होने का मतलब आजाद होना नहीं है। यहां अलगाव तो शुद्ध गुलामी है।
अलगाव दो प्रकार का हो सकता है- एक तो कश्मीर का पाकिस्तान के साथ विलय और दूसरा उसका सार्वभौम पृथक राष्ट्र की तरह रहना। पाकिस्तान में विलय से कश्मीरियों को क्या मिलेगा? सैनिक तानाशाही, सामंतवाद, आतंकवाद, बेकारी, भुखमरी! खुद पाकिस्तान जबसे पैदा हुआ है, किसी न किसी महाशक्ति का दुमछल्ला बना रहा है।
कश्मीर क्या दुमछल्ले का दुमछल्ला बनना चाहता है? क्या इसे कोई आजादी कहेगा? पाकिस्तान के कई निर्भीक विद्वानों ने तथाकथित ‘आजाद कश्मीर’ को पाकिस्तानी पठानों और पंजाबियों के लिए सदा हाजिर ‘विराट वेश्यालय’ कहा है। ‘आजाद कश्मीर’ के प्रधानमंत्री सरदार कय्यूम खान को मैंने अपनी पहली मुलाकात में ‘महामहिम प्रधानमंत्री’ कहा तो वे तपाक से बोले : ‘मैं तो म्युनिसिपैलिटी का चेयरमैन भी नहीं हूं।’
मैंने उनसे कहा कि आप कहते हैं कि ‘हमारे कश्मीर में हम जनमत संग्रह करा लें’ आप अपने कश्मीर में पहले क्यों नहीं करवा लेते? उन्होंने कहा : पाकिस्तान की सरकार ऐसा कभी होने ही नहीं देगी। वास्तव में पाकिस्तानी फौज उसे अपने बूटों तले दबाए रखेगी।
भारतीय कश्मीर का पाकिस्तानी कश्मीर में विलय कश्मीरियों की आजादी को बढ़ाएगा या गुलामी को? यदि कश्मीर अलग राष्ट्र बन जाए तो वह जिंदा कैसे रहेगा? सबसे पहले तो पाकिस्तान उसे कच्च चबा जाएगा। अमेरिका और चीन भी उसे इज्जत से रहने नहीं देंगे।
गरीब की जोरू! वह स्वतंत्र राष्ट्र नहीं, अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों का अड्डा बन जाएगा। कश्मीर के पास न पैसा है, न आमदनी है, न फौज है। पाकिस्तान के पास यह सब कुछ था, लेकिन उसका हश्र क्या हुआ? वह एक ‘विफल राष्ट्र’ बनकर रह गया।
क्या कश्मीर एक बदतर पाकिस्तान बनना चाहता है? अलग होकर पाकिस्तानियों को क्या मिला? उन्होंने कौन से तीर मार लिए? वे 63 साल बाद भी फौज की गुलामी में रह रहे हैं। हम कश्मीर को गुलामी की भट्टी में क्यों झोंकेंगे?
इसीलिए अलगाववादी कश्मीरी नेताओं को हमें दो-टूक शब्दों में कह देना चाहिए कि अलगाव की बात वे बिल्कुल भूल जाएं, लेकिन अगर वे आजादी चाहते हैं, सच्ची आजादी, तो खुलकर बात करें। बिना किसी शर्त बात करें। जितनी आजादी उन्हें आज है, उससे भी कहीं ज्यादा दी जा सकती है।
1948 में भारत जितना समर्थ था, आज उससे कई गुना ज्यादा समर्थ है। आजादी का दुरुपयोग होते ही दोषियों पर वह कहर बरपा सकता है। भारत सरकार सभी कश्मीरियों से बात करना चाहती है, इसका अर्थ क्या है? वह मानती है कि कश्मीर में विवाद है। विवाद है, इसीलिए संवाद है। सैयद अली शाह गिलानी कहते हैं कि फौज हटा लें।
ठीक है, हटा लेते हैं, लेकिन फिर भी हिंसा हुई तो जिम्मेदार कौन होगा? तब फौज दोगुनी ताकत से घुसेगी। क्या वह गलत होगा? यह मौका है, जबकि कश्मीरियों के घावों पर मरहम लगाया जाना चाहिए। उनकी हर मांग और हर सुझाव पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनकी हर उस बात पर सहानुभूतिपूर्ण विचार होना चाहिए, जिससे वे महसूस कर सकें कि वे आजाद हैं, लेकिन उन्हें यह भी बता दिया जाना चाहिए कि आजादी का मतलब अलगाव नहीं है। – लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।
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