नवभारत टाइम्स, 08 जून 2005 : श्री लालकृष्ण आडवाणी की कौनसी बात गलत है? सबसे पहला मुद्दा जिन्ना का ! यदि मुशर्रफ गांधी की समाधि पर जा सकते हैं तो आडवाणी जिन्ना की समाधि पर क्यों नहीं जा सकते? अटलजी लाहौर गए तो ‘मीनारे-पाकिस्तान’ पर गए, जो पाकिस्तान का प्रसव-स्थल है| आडवाणीजी कराची गए तो उन्हें जिन्ना के मज़ार पर जाना ही था| जिन्ना को उन्होंने दो विशेषण दिए| इतिहास का निर्माता और पंथ-निरपेक्ष ! जिन्ना ने इतिहास बनाया, इसमें क्या शक है? असंभव को संभव बना दिया| 1937 तक खुद जिन्ना स्वप्न में भी पाकिस्तान-निर्माण की बात नहीं सोचते थे| इतिहास-निर्माता सपने को सच्चाई में बदलते हैं| जिन्ना ने अ-सपने को भी सच्चाई में बदल दिया| भारत की आजादी का श्रेय गांधीजी के अलावा भी कई लोगों को है लेकिन पाकिस्तान-निर्माण का श्रेय अकेले जिन्ना को है| एक अर्थ में गांधी विफल नेता थे और जिन्ना सफल ! जिन्ना पाकिस्तान के लिए लड़े और वह उन्हें मिल गया लेकिन गांधी का भारत खंडित हो गया और आज़ाद तो हुआ लेकिन पूर्ण अहिंसा के जरिए नहीं ! इसमें शक नहीं कि महापुरुष के तौर पर गांधी और जिन्ना में कोई तुलना नहीं| गांधी विश्व-पुरुष थे और जिन्ना को लोग पाकिस्तान में भी ठीक से नहीं जानते लेकिन उन्हें हम इतिहास-पुरुष न कहें, यह कैसे हो सकता है? पाकिस्तान का बनना हमें वैसे ही घृणित लगता है, जैसे बांग्लादेश का बनना पाकिस्तानियों को ! यदि हम जिन्ना को रद्द करें तो पाकिस्तानी मुजीब को रद्द क्यों न करें? मुजीब हमारे लिए महानायक है और पाकिस्तान के लिए खलनायक ! क्या यह दृष्टि सही है, स्वस्थ है, तर्कसंगत है? क्या इससे दक्षिण एशिया की एकता बढ़ेगी? यह दक्षिण एशिया को जोड़ेगी या तोड़ेगी? यदि हम दक्षिण एशिया के लोग एक-दूसरे के देशों के महानायकों को रद्द करेंगे तो क्या उन देशों के औचित्य और अस्तित्व को भी रद्द नहीं करेंगे? यदि हम पाकिस्तान और बांग्लादेश को राज्य के रूप में मान्यता देते हैं तो उनके संस्थापकों को अमान्य कैसे कर सकते हैं? संतान वैध और पिता अवैध, यह कैसे हो सकता है?
जहां तक जिन्ना के पंथ-निरपेक्ष (सेक्युलर) होने का प्रश्न है, इस दावे को जितने जोर से भारतीय रद्द करेंगे, उससे ज्यादा जोर से पाकिस्तानी रद्द करेंगे, क्योंकि जिन्ना ने पाकिस्तान का निर्माण ही इस्लाम के नाम पर किया| उन्हें द्विराष्ट्रवाद का जनक माना जाता है| जिन्ना मुस्लिम सांप्रदायिकता के पर्याय थे| उनकी सबसे अधिक जानी-पहचानी छवि यही है| जिन्ना को ‘सेक्युलर’ कहना इस छवि के विरुद्घ जाना है| उन्हें बेहतर इंसान बनाकर पेश करना है| उनके ‘गुनाहों’ पर पर्दा डालना है| भला, इसे संघ और विहिप कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? यह पैंतरा तो कांग्रेस को भी नहीं पच रहा है ! आडवाणीजी के इस कथन पर पाकिस्तान में ज्यादा शोर-गुल इसलिए नहीं मच रहा कि ‘आखिरकार, जो कहा गया है, वह तारीफ में ही कहा गया है|’ आडवाणीजी ने पाकिस्तानियों से वह बात कहने की हिम्मत की है, जो उन्हें कोई और नहीं बताता है| जिन्ना के जिस भाषण को पाकिस्तान में छिपाया जाता है उसी भाषण को सरेआम उद्घृत करने का साहस आडवाणीजी ने पाकिस्तानी ज़मीन पर ही कर दिया| उन्होंने जिन्ना को सेक्युलर होने का कोई प्रमाणपत्र नहीं दिया बल्कि उन्होंने इस्लामी कट्टरपंथियों से कहा है कि वे जिन्ना के रास्ते से भटक गए| उन्होंने पाकिस्तानियों से कहा कि वे भारत की तरह पंथ-निरपेक्षता के रास्ते पर चलें| आश्चर्य है कि इस बात से भारत में बवाल मच गया है| आडवाणीजी को देशद्रोही, हिंदूद्रोही और राष्ट्रद्रोही भी कहा जा रहा है| अब यहां सवाल यह है कि क्या आडवाणीजी गलत हैं? वास्तव में वे गलत नहीं हैं| उनकी गलती यही है कि जो किसी नेता को बाद में कहना चाहिए, वह उन्होंने पहले कह दिया है| अच्छा तो यह होता है कि पहले विद्वान कहें और फिर नेता ! भारतीय विद्वानों ने पिछले दस वर्षों के अपने अनुसंधानों में यह बताना शुरू कर दिया है कि जिन्ना हिंदू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार थे, वे इस्लामी कट्टरवाद के विरोधी थे, वे सच्चे अर्थों में पूरे मुसलमान भी नहीं थे, उन्होंने भारत-विभाजन भी बड़े संकोच के साथ स्वीकारा, उन्हें मुस्लिम-नेता बनने के लिए गांधी और नेहरू ने मजबूर किया और पाकिस्तान बनाने के बाद उन्होंने यह भी कहा कि ”यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी’, वे लौटकर मुंबई में रहना चाहते थे और उन्होंने नेशनल एसेम्बली में वह भाषण दिया, जो आडवाणीजी ने उद्रधृत किया याने पाकिस्तान बनने के बाद यहां न तो कोई हिंदू हिंदू रहेगा और न कोई मुसलमान मुसलमान ! पाकिस्तान के सब नागरिक बराबर होंगे| जिन्ना पाकिस्तान के क़ायदे-आज़म बनने की बजाय ”मुस्लिम गोख़ले” बनना चाहते थे| जिन्ना उतने मुसलमान भी नहीं थे जितने कि सावरकर हिंदू थे| जैसे सावरकर राजनीतिक हिंदू थे वैसे ही जिन्ना भी राजनीतिक मुसलमान बन गए| जैसे सावरकर शुरू में राष्ट्रवादी थे, वैसे ही जिन्ना भी राष्ट्रवादी थे| जिन्ना ने 1920-21 के मुसलमान पोंगा-पंथियों के खि़लाफ़त आंदोलन का विरोध किया जबकि उसका गांधी ने जीतोड़ समर्थन किया| यही आंदोलन पाकिस्तान की नींव का पत्थर था| भारत के बंटवारे के मूल में कहीं गांधी और जिन्ना के अहंकारों की लड़ाई तो नहीं थी? ये सब प्रश्न जिन्ना के पुनर्मूल्यांकन की मांग करते हैं| यह भी ठीक है कि भारत-विभाजन के दौरान जो वैमनस्य फैला और खून की नदियां बहीं, उनके लिए जिन्ना उतने ही जिम्मेदार थे, जितने कांग्रेसी नेता लेकिन सवाल यह है कि हम किसे सेक्युलर कहें और किसे नहीं? किस नेता के लंबे जीवन के कौनसे पक्षों को उछालें और कौनसे पक्षों को छुपा लें? यदि हम भारत का दुबारा विभाजन करवाना चाहते हों तो दुबारा उन्हीं पहलुओं पर जोर दें जिनसे वर्तमान भारत में पहले-जैसा वैमनस्य फैले और यदि हम बृहत्तर भारत का सपना देख रहे हैं, जो कि अखंड भारतवालों को भी संतुष्ट कर सकता है तो हमें गांधी, जिन्ना, मुजीब और यहां तक कि सावरकर को भी दूसरे नज़रिए से देखना होगा| यह नज़रिया न हिंदू नज़रिया हो सकता है, न मुस्लिम, न बौद्घ ! यह शुद्घ भारतीय नज़रिया होगा| यह पीछेदेखू नहीं, आगेदेखू नज़रिया होगा|
इसी नज़रिए को आडवाणीजी ने मोटे तौर पर पाकिस्तान में पेश किया| उन्होंने कहा कि हम पाकिस्तान को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र मानते हैं| अगर वे ये नहीं कहते तो क्या कहते? क्या यह कहते कि हम पाकिस्तान को तोड़ डालेंगे? उस पर कब्जा करेंगे| हम अखंड भारत बनाएंगे ! क्या यह सब कहना हास्यास्पद नहीं होता? इसका मतलब यह कैसे हुआ कि आडवाणीजी ने द्विराष्ट्रवाद का सिद्घांत मान लिया? यदि वे यह मानते होते कि हिंदू और मुसलमान – दो अलग-अलग राष्ट्र हैं तो वे वर्तमान भारत और कश्मीर के बंटवारे को भी तैयार हो जाते| वास्तव में उन्होंने पाकिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्र इसीलिए माना कि अब वह एक अमिट सच्चाई है और भविष्य में उसके साथ अगर हमारे संबंध सहज रहे तो ‘बृहत्तर भारत’ की सम्पन्नता और शक्तिमंतता सुनिश्चित रहेगी| क्या आज भारत में कोई पागल आदमी भी यह कहता है कि पाकिस्तान को तोड़ दो? तो फिर देश के एक बड़े दल के नेता से ऐसे गैर-जिम्मेदाराना बयान की उम्मीद करना तो बचकानापन है| वास्तव में आडवाणीजी कह सकते थे, जैसा कि मैं पिछले तीस साल से यह बात लिख रहा हॅूं और कह रहा हॅूं कि ईरान से लेकर बर्मा और तिब्बत से लेकर मालदीव तक हम सवा अरब लोग एक ही हैं, एक परिवार हैं, एक संस्कृति हैं, एक भाव हैं, एक राष्ट्र हैं| दक्षिण एशिया ‘बहुराज्यीय राष्ट्र’ (मल्टीस्टेट नेशन) है, सोवियत संघ की तरह ‘बहुराष्ट्रीय राज्य’ (मल्टीनेशन स्टेट) नहीं है| दक्षिण एशिया के हर देश के शीर्ष नेताओं और बुद्घिजीवियों के बीच मैंने यह बात कही है और आज तक किसी ने भी मुझ पर यह आरोप नहीं लगाया कि मैं अखंड भारत की वकालत कर रहा हॅूं| अखंड भारत के वकीलों को अब यह समझना होगा कि यदि वे अपना दृष्टिकोण व्यापक नहीं करेंगे तो जो भारत आज दिखाई पड़ रहा है, वह भी उनके हाथों से निकल जाएगा| हमारी चिंता अब गांधी और जिन्ना, हिंदुत्व और इस्लाम, एकराष्ट्र या द्विराष्ट्र नहीं, बल्कि यह है कि आज के दक्षिण एशिया और कल के बृहत्तर भारत का भविष्य क्या हो !
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