Navbharat Times, 29 Aug 2007 : क्या अब हैदराबाद भी आतंकवाद की सूची में एक और नाम की तरह टांग दिया जाएगा? लगता तो यही है। हर आतंकवादी खून-खराबे के बाद हमारे नेतागण जैसे मगरमच्छ के आंसू हमेशा बहाते हैं, वैसे उन्होंने अब भी बहा दिए हैं। हताहतों के प्रति सहानुभूति और सरकारी ढिलाई की निंदा करके विपक्षी अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार मोटा सा मुआवजा देकर पड़ोसी राष्ट्रों के माथे काला टीका काढ़कर छुट्टी पा लेती है। अखबार लोगों की बहादुरी की तारीफ करते हैं कि वाह, क्या लोग हैं, अभी सड़कों से खून पुंछा भी नहीं कि आवाजाही सामान्य हो गई।
ये लक्षण हैं एक अकर्मण्य राष्ट्र के। यही वह मानसिकता है जिसकी वजह से सैकड़ों वर्षों तक भारत विदेशी हमलावरों का शिकार रहा। सहनशील और तालमेलवादी समाज कभी वजहों में उतरा ही नहीं। जरा अमेरिका, रूस और चीन को देखें। वर्ल्ड ट्रेड टॉवर क्या गिरे, अमेरिका की दुनिया ही बदल गई। पिछले छह साल में क्या अमेरिका में किसी परिंदे ने भी पर मारा? व्यक्तिगत आजादी का सबसे बड़ा झंडाधारी कोई है तो अमेरिका है, लेकिन 9/11 के बाद जरा देखें कि अमेरिका के हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, बंदरगाहों और सार्वजनिक संस्थानों की क्या हालत हैं। पूरे राष्ट्र को, जो भारत से तीन गुना बड़ा है, उन्होंने सुरक्षित किला बना दिया है। लगता है पूरा राष्ट्र युद्ध के लिए कमर कसे हुए है। हर नागरिक के आचरण, टेलिफोन संभाषण, इंटरनेट, चिट्ठी, यहां तक कि उसके सपनों पर भी सुरक्षा एजेंसियों की नजर है। अमेरिका के सुरक्षाकर्मियों को इस बात की चिंता नहीं होती कि कौन क्या है। हर आदमी का कोट और जूता उतरवाकर चेक किया जाता है। विदेशी मंत्रियों के कपड़े तक उतरवा लिए जाते हैं। जिन लोगों ने ट्रेड टॉवर गिराए थे, उनके देशों से आने वाले यात्रियों पर ही नहीं, उन सभी लोगों पर अमेरिका कड़ी नजर रखता है जो उन आतंकवादियों के हममजहब हैं, हमवतन हैं और हमखयाल हैं। लेकिन हम भारत मेंऐसा नहीं करते। क्यों? क्योंकि नेताओं की रूह कांपती है। कहीं लोग उन्हें सांप्रदायिक न कह दें, कहीं उनका वोट बैंक न खिसक जाए।
हमारे नेताओं को अपने बिल्ले और अपने वोट की चिंता कहीं ज्यादा है। राष्ट्र की सुरक्षा उनके लिए दोयम दर्जे की चीज है। आतंकवादी हिंसा में 40 मरें या 400, उनके लिए वह केवल आंकड़ा है। जो लोग अक्सर मारे जाते हैं, वे साधारण लोग होतेहैं। नेता अपने सुरक्षा घेरे में रहते हैं। इसीलिए उन्हें आतंकवाद की लड़ाई भी वैसी ही मालूम पड़ती है जैसी देश की अन्य दर्जनों समस्याएं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत आतंकवाद का गढ़ बन चुका है। पिछले तीन वर्षों में जितने लोग भारत में आतंकवाद के शिकार हुए हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हुए। इराक की बात अलग है। वहां गृहयुद्ध चल रहा है, लेकिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, कोलंबिया, सूडान वगैरह के मुकाबले भारत में कई गुना लोगों की बलि चढ़ी है। फिर भी भारत हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठा है? वह आतंकवादियों को क्यों नहीं उखाड़ पाता? उन पर मुकदमे चलाने में उसे 15-15 साल क्यों लग रहे हैं? वे कौन लोग हैं जो आतंकवादियों को शरण देते हैं?आतंकवादी हवा में तो पैदा नहीं होते। हम उन सब बिलों को क्यों नहीं मूंद पा रहे, जिनसे निकलकर आतंकवादी भारत को खोखला करते चले आ रहे हैं?
सबसे पहले तो यह समझने की जरूरत है कि आतंकवाद की पौधशाला कहां है, कौन सी है, कैसी है? जो सिद्धांत हो ची मिन्ह और चे गेवारा छापामारों पर लागू करते, थे वही मैं आतंकवादियों पर लागू करता हूं -पानी के बिना मछली जिन्दा कैसे रहेगी? आतंकवादी मछली के लिए वे लोग पानी का काम करते हैं जो उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं। उन्हें खाने-पीने, रहने-सहने, घूमने-फिरने और छिपने-छिपाने में मदद करते हैं। इसीलिए गुप्तचर एजेंसियां फुस्स हो जाती हैं। ऐसे लोगों के प्रति पूर्ण निर्ममता का बर्ताव होना चाहिए। इस बात की जरा भी परवाह नहीं की जानी चाहिए कि उनका मजहब क्या है, जात क्या है और सामाजिक हैसियत क्या है। जरूरी हो तो पूरी आबादी, क्षेत्र या समूह को कसौटी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए जैसा कि पुतिन के रूस ने चेचेन्या में किया या रोंग जी के चीन ने सिक्यांग में किया। आतंकवादियों को मदद करने वालों की बात जाने दीजिए, उनके प्रति सहानुभूति रखनेवालों की भी रूह कांप उठनी चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि अगर हम पर शक हो गया तो हम मारे जाएंगे। गेहूं पिसे न पिसे, घुन जरूर पिस जाएगा। घुन के पिसने के डर से गेहूं का पसीना भी छूटेगा। इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि बेकसूर लोगों को फिजूल तंग किया जाए, लेकिन हैदराबाद में क्या सुरक्षा एजेंसियों ने मजहबी लिहाजदारी के चलते आतंकवादियों को खुला नहीं छोड़ दिया? कुछ स्थानीय नेता नाराज न हो जाएं क्या सिर्फ इसीलिए जासूसी सुरागों का पीछा नहीं किया गया? अभी मई में हुए जामा मस्जिद के विस्फोट के बाद भी हमारी एजेंसियों सोती क्यों रहीं?
गृहमंत्री का कहना है कि आतंकवाद का स्त्रोत देश के बाहर है। ठीक है, स्त्रोत बाहर है, लेकिन घटना तो अंदर हुई है। क्या देश के अंदर भी आप असहाय हैं? आप घटना को होने से क्यों नहीं रोक पाते? आप कैसी सरकार हैं? और जहां तक आतंकवाद के स्त्रोत का सवाल है, आपको किसने रोका है? आप उसकी जड़ पर प्रहार क्यों नहीं करते? संयुक्त राष्ट्र आपका साथ देगा, अमेरिका आपकी पीठ ठोकेगा, पूरा अंतरराष्ट्रीय समुदाय आपके साथ खड़ा होगा। 9/11 का स्त्रोत खोजते-खोजते अमेरिका अफगानिस्तान और इराक में घुस गया। और आप अपने पड़ोस में चल रहे आतंकवादियों के अड्डों को भी नहीं उड़ा सकते? उसने हजारों मील दूर से आकर झपट्टा मार दिया और आप अपने हाथ-पांव भी नहीं हिला सकते? अमेरिका झूठे दावों के आधार पर इराक में घुस गया और आप अपने सच्चे प्रमाणों के आधार पर करवट लेने को भी तैयार नहीं हैं। यदि हैदराबाद कांड के स्त्रोत बांग्लादेश और पाकिस्तान में हैं तो इन राष्ट्रों के नेताओं को साथ लें और उन स्त्रोतों पर सीधी सैन्य कार्रवाई करें।
यदि पड़ोसी सरकारें आनाकानी करें तो चाणक्य का तरीका ही एकमात्र इलाज है। इन देशों को इतना परेशान कर दें कि आतंकवाद उनके लिए नुकसान का सौदा हो जाए। क्या कोई है, जो चलाएगा यह नीति?
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