10 सितंबर 2011 : 11 सितंबर एक तारीख है लेकिन यह दुनिया में वैसे ही प्रसिद्घ हो गई है, जैसे 25 दिसंबर या 1 जनवरी! 11 सितंबर का मतलब वह दिन है, जब न्यूयार्क के ट्रेड टॉवर और वाशिंगटन के पेन्टेगॉन-भवन पर हवाई हमला हुआ था| इस हमले को हुए दस साल हो गए| इन दस वर्षों में अमेरिका और दुनिया ने क्या खोया और क्या पाया, इसका लेखा-जोखा जरूरी है|
इस हमले ने यह सिद्घ किया कि राज्य-जैसी शक्तिशाली संस्था को भी दंडित किया जा सकता है| जिन लोगों ने अमेरिकी जहाजों का अपहरण किया था और उन्हें न्यूयार्क, वाशिंगटन और फिलाडेल्फिया में गिराया था, वे किसी दुश्मन-राष्ट्र के फौजी नहीं थे| वह कार्रवाई दो राष्ट्रों के बीच लड़े जा रहे युद्घ की कार्रवाई नहीं थी| वह कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई कार्रवाई थी| ये व्यक्ति अल-कायदा नामक संगठन से जुड़े हुए थे|
राज्य के मुकाबले कुछ व्यक्तियों का संगठन| लेकिन इस संगठन की कार्रवाई इतनी भयानक थी कि वह दो राज्यों के युद्घ से भी अधिक गंभीर सिद्घ हुई| अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के विरूद्घ विश्व-युद्घ की घोषणा कर दी| इस युद्घ में अब तक चार-पांच खरब (टि्रलियन) डॉलर खर्च हो चुके हैं और छह हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं| आतंकवाद की लड़ाई में अमेरिका ने इतना पैसा बहा दिया है कि उतने पैसे में कई देश अपना सौ-दो सौ साल का पूरा खर्च चला सकते हैं| छह हजार अमेरिकी सैनिकों का मारा जाना भी बहुत बड़ी घटना है, क्योंकि अमेरिकी सैनिक भारतीय सैनिकों की तरह प्राय: जमीनी लड़ाई नहीं लड़ते हैं| उनकी लड़ाई हवाई होती हैं| वे जहाजों में बैठकर बम बरसाते हैं|
11 सितंबर से जन्मी इस लड़ाई ने अमेरिका को खोखला कर दिया है| उसे गहरे आर्थिक संकट में फंसा दिया है| हालांकि अमेरिका ने जबर्दस्त मुस्तैदी दिखाई| उसने अपने यहां दुबारा 11 सितंबर नहीं होने दिया और उसामा बिन लादेन को उसकी मांद में घुसकर मार दिया लेकिन इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि अमेरिका आज भी जो सजा भुगत रहा है, उसका निमंत्र्ण उसने स्वयं दिया था| अल-क़ायदा के जन्मदाता उसामा बिन लादेन को सूडान और सउदी अरब से लाकर-अफगानिस्तान में किसने जमाया? बबरक कारमल और नजीबुल्लाह की सरकारों को गिराने के हिंसक प्रयत्नों को परवान किसने चढ़ाया? अमेरिका ने! पाक अफगान सीमांत के ‘इलाका-ए-शैर’ को अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद, अफीम की तस्करी और अराजक हिंसा का क्षेत्र् किसने बनाया? अमेरिका ने! सोविय संघ को पराजित करने की धुन में अमेरिका ने विश्व-आतंक के बीज बो दिए| काबुल में मुजाहिद्रदीन सरकार के गिरने के बाद उसने तालिबान से हाथ मिलाने में भी कोई संकोच नहीं किया| उसने तालिबान के पोषक और संरक्षक जनरल मुशरर्फ को दक्षिण एशिया में अपना सिपहसालार घोषित किया| उसने आतंकवाद से पीडि़त भारत को अपना भागीदार नहीं चुना| पाकिस्तान को चुना, उस पाकिस्तान को, जो विश्व-आतंकवाद का सबसे बड़ा अड्रडा था और जो लगातार अमेरिका से डॉलर निचोड़ता रहा और उसे धोखा देता रहा| इस दस वर्ष की अवधि की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि अब पाकिस्तान की पोल खुल गई है| लेकिन पता नहीं कि अब भी अमेरिका की आंख खुली है या नहीं?
अमेरिका की आंख बंद होने का अर्थ क्या है? उसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि वह अपने आतंकवाद को पहचाने! अपनी आंखें खोले और यह जाने कि वह दुनिया को सबसे बड़ा और सबसे खतरनाक आतंकवादी है| जितने लोग 11 सितंबर 2001 को आतंकवादियों ने न्यूयार्क में मारे (3000), उनसे पता नहीं कितने गुना बेकसूर लोग अमेरिका ने अफगानिस्तान, एराक, लातीनी अमेरिका, अफ्रीका और वियतनाम में मार गिराए है| अमेरिकी फौज और सीआईए क्यूबा, निकारागुआ, हैती, पनामा, लेबनान आदि देशों में बाकायदा आतंकवादियों को प्रशिक्षित करके भेजते रहे हैं| अमेरिका के शासकीय और राजकीय आतंकवाद का इतिहास बहुत लंबा रहा है| ‘रेड इंडियंस’ पर यदि गोरे यूरोपीय आतंक नहीं जमाते तो संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना कैसी होती? इसी आंतरिक आतंक का विस्तार उसने सारे विश्व में किया है|
अपना वर्चस्व कायम करने के लिए उसने क्या-क्या दुष्कर्म नहीं किए? दुनिया के हर तानाशाह के साथ सांठ-गांठ की| मानव अधिकारों के उल्लंघन की अनदेखी की| तेल और अन्य खजिनों पर उसकी लार इतनी टपकती रही कि उसने लोकतांत्र्िक मूल्यों को भी धता बता दी| एराक और अफगानिस्तान में वह क्यों घुसा? आतंकवाद का खात्मा तो एक बहाना था| असली आकर्षण तेल और गैस का था| इसा्रइल को वह क्यों पले हुए है? ताकि पश्चिम के तेलोत्पादक राष्ट्र अपनी रक्षा के लिए उस पर निर्भर रहें| आतंकवादी लोग आंतक फैलाकर अपने लिए कुछ नहीं चाहते लेकिन अमेरिका अपने लिए सब कुछ चाहता हैं| इसलिए आतंक फैलाता है|
राजकीय आतंकवाद ओर साधारण आतंकवाद में यही फर्क है| राजकीय आतंकवाद अपनी क़ीमत वसूलन में कभी नहीं चूकता| वैसे दोनों का दर्शन, सिद्घांत और नीति लगभग एक-जैसी होती है| आप जरा-जरा जॉर्ज बुश और उसामा बिन लादेन की भाषा की तुलना करें| दोनों भगवान का नाम लेते हैं| एक ‘गॉड’ की ‘ओथ’ लेता है और दूसरी अल्लाह की कसम खाता है| अगर पहला कहता है कि दुनिया से अन्याय और अत्याचार खत्म करना मेरा धर्म है तो दूसरी भी इन्हीं शब्दों को दोहराता है| यदि पहला दूसरे को हिंसक और अनैतिक कहता है तो दूसरा भी पहले पर यही आरोप लगाता है| दोनों का अंदाज मसीहाई होता है| 11 सितंबर की खूबी यही थी कि कमजोर मसीहा बलवान मसीहा की छाती पर चढ़ बैठा| बुश और उसामा में फर्क क्या है? दोनों मौसेरे भाई हैं|
इस समय बलवान मसीहा-जीतता हुआ दिखाई पड़ रहा है-श्रीलंका में, फलस्तीन में, एराक में, अफगानिस्तान में भी लेकिन यह जीत आंख मिचौनी भी सिद्घ हो सकती है| जीत के घमंड में वह यह न भूल जाए कि अभी आतंक के सिर्फ फूल-पत्ते टूटे हैं| उसकी जड़े अभी भी हरी हैं| आतंक की शुरूआत पहले मसीहा ने ही की है| पहला आतंकवादी वही है| दूसरा मसीहा तो प्रतिकि्रयावादी है| वह जवाबी आतंकवादी है| यह ठीक है कि दूसरा मसीहा खाली-खट है| उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है| यही उसकी ताकत भी है| इस ताकत का मुकाबला वह मसीहा कैसे करेगा, जिसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है| सब कुछ है| दस वर्ष के इस दौर की सीख यही है कि पहला मसीहा ताकत का दुरूपयोग बंद करे और छोटे आतंक को बढ़े आतंक से खत्म करने को अंतिम समाधान न माने! दूसरे मसीहा को रास्ते पर लाने के लिए एक दूसरा रास्ता भी खोजे|
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