जनसत्ता, 20 फरवरी 2009 : पाकिस्तान सरकार की क्या इज्ज़त रह गई है ? क्या कोई उसे संप्रभु राष्ट्र की सरकार कह सकता है ? राष्ट्रपति ज़रदारी अमेरिकी टीवी चैनल से एक दिन कहते हैं कि तालिबान पाकिस्तान पर बस अब कब्जा करनेवाले ही हैं| वे सबसे बड़ा खतरा हैं| और दूसरे दिन वे तालिबान के आगे घुटने टेक देते है| स्वात घाटी में तालिबान के साथ 10 दिन के युद्घ-विराम समझौते पर दस्तखत कर देते है| पता ही नहीं चलता कि वे आतंकवाद से युद्घ लड़ रहे है या हाथ मिला रहे है| या तो पहले दिन वे झूठ बोल रहे थे या अब वे कोरा नाटक कर रहे हैं|
शायद वे दोनों कर रहे हैं| पहला बयान झूठा इसलिए था कि पाकिस्तानी फौज के मुकाबले तालिबान आतंकवादी मच्छर के बराबर भी नहीं है| अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर के सभी आतंकवादियों की संख्या कुल मिलाकर 10 हजार भी नहीं है| उनके पास तोप, मिसाइल, युद्घक विमान आदि भी नहीं हैं| वे फौजियों की तरह सुप्रशिक्षित भी नहीं हैं| लगभग 14 लाख फौजियों और अर्द्घ-फौजियोंवाली पाकिस्तानी सेना दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी सेना है| इतनी बड़ी सेना को 10 हजार अनगढ़ कबाइली कैसे पीट सकते हैं ? जो सेना भारत जैसे विशाल राष्ट्र के सामने खम ठोकती रहती है, जिसने धक्कापेल करके अफगानिस्तान को अपना पाँचवाँ प्रांत बना लिया था, जो जोर्डन के शाह की रक्षा का दम भरती रही है, वह तालिबान के आगे ढेर कैसे हो सकती है ? जिस सेना को बलूचिस्तान और सिंध के लाखों बागी डरा नहीं सके, वह क्या कुछ पठान तालिबान के आगे से दुम दबाकर भाग खड़ी होगी ? ज़रदारी का बयान सच्चाई का वर्णन नहीं कर रहा था, वह अमेरिकियों को धोखा देने के लिए गढ़ा गया था| ज़रदारी यदि तालिबान का डर नहीं दिखाएँगे तो अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को मदद क्यों देगी ? तालिबान का हव्वा खड़ा करके भीख का कटोरा फैलाना ज़रा आसान हो जाता है|
यदि तालिबान सचमुच इतने खतरनाक थे तो ज़रदारी सरकार को चाहिए था कि वह उन पर टूट पड़ती, खास तौर से तब जबकि ओबामा के विशेष प्रतिनिधि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में थे| लेकिन हुआ उल्टा ही| स्वात घाटी और मलकंद संभाग के क्षेत्र् में अब शरीयत का राज होगा| तहरीके-निफाजे-शरीयते-मुहम्मदी के नेता सूफी मुहम्मद को इतनी ढील बेनज़ीर और नवाज़ ने कभी नहीं दी थी, जितनी ज़रदारी ने दे दी है| सूफी ने अपना शरीयत आंदोलन तालिबान के पैदा होने के पहले से शुरू कर रखा था| अफगानिस्तान में अमेरिकियों के आने के बाद सूफी की तहरीक में हजारों लोग शामिल हो गए| मुशर्रफ-सरकार ने सूफी को पकड़कर जेल में बंद कर दिया था| लेकिन उसे पिछले साल एक समझौते के तहत रिहा कर दिया गया| पाकिस्तानी सरकार मानती है कि सूफी नरमपंथी है और उसे थोड़ी-सी रियायत देकर पटाया जा सकता है| उसे मलकंद के तालिबान के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है| मलकंद के तालिबान के नेता हैं, मौलाना फज़लुल्लाह, जो कि सूफी के दामाद हैं| पिछले साल पाकिस्तान सरकार के साथ हुए छह सूत्री समझौते को जब फज़लुल्लाह ने तोड़ा तो सूफी ने फजलुल्लाह से कुट्टी कर ली लेकिन लगता है कि ससुर-दामाद ने अब यह नया नाटक रचा है|
स्वात के समझौते का यह नाटक पाकिस्तान की सरकार को काफी मंहगा पड़ेगा| इस समझौते के तहत सरकारी अदालतें हटा ली जाएँगी| उनकी जगह इस्लामी अदालतें कायम होंगी| जजों की जगह काज़ी बैठेंगे| वे शरीयत के मुताबिक इंसाफ देंगे| उनके फैसलों के विरूद्घ पेशावर के उच्च-न्यायालय या इस्लामाबाद के उच्चतम न्यायालय में अपील नहीं होगी| दूसरे शब्दों में स्वात के लगभग 15 लाख लोग अब 8वीं और 9वीं शताब्दी में धकेल दिए जाएँगे| लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए जाएँगे| सारी औरतों को बुर्का पहनना पड़ेगा| सड़क पर वे अकेली नहीं जा सकेंगी| स्कूटर और कार चलाने का तो सवाल ही नहीं उठता| छोटी-मोटी चोरी करनेवालों के हाथ काट दिए जाएँगे| मर्द चार-चार औरतें रख सकेंगे| बात-बात में लोगों को मौत की सजा दी जाएगी| ये सारे काम स्वात में पहले से हो रहे हैं| स्वात के मिंगोरा नामक कस्बे में एक चौक का नाम ही खूनी चौक रख दिया गया है, जहाँ लगभग एक-दो सिर कटी लाशें रोज़ ही टांग दी जाती हैं| लगभग पाँच लाख स्वाती लोग अपनी जान बचाकर वहाँ से भाग चुके हैं| तालिबान ने घोषणा कर रखी है कि उस क्षेत्र् के दोनों सांसदों के सिर काटकर जो लाएगा, उसे 5 करोड़ रू. और जो सात विधायकों के सिर लाएगा, उसे दो-दो करोड़ का इनाम दिया जाएगा| स्वात के जो निवासी बि्रटेन और अमेरिका में नौकरियाँ कर रहे हैं, उनके रिश्तेदारों को चुन-चुनकर अपहरण किया जाता है और उनसे 5-5 और 10-10 लाख की फिरौती वसूल की जाती है| तालिबान के आतंक के कारण स्वात, जिसे एशिया का स्विटजरलैंड कहा जाता था, अब लगभग सुनसान पड़ा रहता है| पर्यटन की आमदनी का झरना बिल्कुल सूख गया है| यह स्वात, जिसे ऋग्वेद में सुवास्तु के नाम से जाना जाता था और जो कभी आर्य ऋषियों की तपोभूमि था, आज तालिबानी कट्टरपंथ का अंधकूप बन गया है| प्राचीन काल के अनेक अवशेषों को कठमुल्ले तालिबान ने ध्वस्त कर दिया है| इस्लाम के नाम पर वे इंसानियत को कलंकित कर रहे हैं| वे सिर्फ स्वात पर ही नहीं, पूरे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और भारत पर भी अपना झंडा फहराना चाहते हैं| स्वात के तालिबान कोई अलग-थलग स्वायत्त संगठन नहीं हैं| वे बेतुल्लाह महसूद के तहरीक़े-तालिबाने-पाकिस्तान के अभिन्न अंग है| यह महसूद वही है, जिसे बेनज़ीर भुट्टो का हत्यारा माना जाता है| आसिफ ज़रदारी की मजबूरी भी कैसी मजबूरी है ? अपनी बीवी के हत्यारों से उसे हाथ मिलाना पड़ रहा है|
इससे भी ज्यादा लज्जा की बात यह है कि यह समझौता सरहदी सूबे की नेशनल आवामी पार्टी की देख-रेख में हुआ है| आवामी पार्टी अपने आपको सेक्युलर कहती है| यह बादशाह खान, उनके बेटे वली और उनके पोते असफंदयार की पार्टी है| इस पार्टी ने हमेशा मज़हबी कट्टरवाद के खिलाफ जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं| पिछले साल के आम चुनावों में अवामी पार्टी ने सारी मज़हबी पार्टियों के मोर्चे को पछाड़कर पेशावर में अपनी सरकार कायम की है| यह सरकार पीपल्स पार्टी के समर्थन से चल रही है| जनता का इतना बड़ा समर्थन होते हुए भी आवामी पार्टी को तालिबान के आगे घुटने क्यों टेकने पड़ रहे हैं ? अवामी पार्टी का कहना है कि इस समझौते के कारण आम आदमियों को न्याय मिलने में आसानी होगी और प्रशासन सुचारू रूप से चल सकेगा|
आवामी पार्टी का यह आशावाद साबुन के झाग-जैसा है| इसमें कोई दम दिखाई नहीं देता| यह तर्क बहुत बोदा है कि इस पहल के कारण तालिबान में फूट पड़ जाएगी और यह समझौता पाकिस्तान में नई सुबह का आगाज़ करेगा| पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी कह रहे हैं कि यह संवाद, विकास और सजा की त्रिमुखी नीति है| इस समझौते के कारण तालिबान से संवाद कायम हो रहा है| वास्तव में यह समझौता पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अन्य तालिबान की हौसला-आफजाई करेगा| वजीरिस्तान के जिन तालिबान ने पिछले साल डेढ़ सौ फौजियों को गिरफ्तार कर लिया था, अब उनके हौंसले पहले से भी अधिक बुलंद हो जाएँगें| तालिबान को अब समझ में आ गया है कि पाकिस्तानी फौज के घुटने कैसे टिकाएँ जाते हैं| ध्यान रहे कि पिछले तीन-चार साल में जितने भी समझौते तालिबान के साथ हुए हैं, वे सब बीच में ही टूटते रहे और उस ढील का फायदा उठाकर तालिबान ने अफगानिस्तान में अपनी आतंकी गतिविधियों को काफी जोर-शोर से बढ़ा दिया|
इस समझौते से अमेरिका और भारत दोनों ही खुश नहीं हो सकते| ओबामा ने अपने विशेष प्रतिनिधि रिचर्ड होलब्रुक को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और भारत आखिर किसलिए भेजा था ? क्या इसलिए नहीं कि वे मालूम करें कि अल-क़ायदा और तालिबान का समूलोच्छेद कैसे करें ? पाक और अफगान सरकार के हाथ कैसे मजबूत करें लेकिन होलबु्रक क्या सबक अपने साथ लेकर गए ? तालिबान का नाश करनेवाली पाकिस्तानी सरकार उन्हीं तालिबान के साथ बैठकर एक ही थाल में जीम रही है| होलब्रुक को बताया गया कि अफगानिस्तान में फौजें बढ़ाने की क्या जरूरत हैं ? देखिए न, स्वात में तो हमने तालिबान को पटा ही लिया है| अब यही मॉडल हम पूरे सरहदी सूबे और बलूचिस्तान में भी लागू कर देंगे और हामिद करज़ई चाहें तो वे भी अपने तालिबान-प्रभावित प्रांतों में यही कर सकते हैं| जो काम बोली से हो सकता है, उसके लिए गोली क्यों चलाई जाए ? यह चकमा ओबामा-प्रशासन क्यों खाएगा ? होलब्रुक को पता चल गया है कि तालिबान और पाकिस्तानी फौज का चोली-दामन का साथ है| उनकी मिलीभगत है| वे कभी-कभी नूरा कुश्ती का नाटक भी रचाते हैं ताकि दुनिया उन पर पैसे उछाले लेकिन यह खेल अब लंबा चलनेवाला नहीं है| यह असंभव नहीं कि होलब्रुक पर इस मामले का उलटा असर पड़ा हो| यदि वे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की चालबाजी ठीक से समझ गए तो अब उन्हें पाक-अफगान गुत्थी को सुलझाने के लिए एकदम नई रणनीति पर विचार करना होगा| ओबामा-प्रशासन ने दक्षिण एशियाई विशेषज्ञ ब्रूस राइडल को 60 दिनों में जो नई पाक-अफगान नीति तैयार करने का ठेका दिया है, उस काम में स्वात-समझौता अपना अलग योगदान करेगा| स्वात-समझौता फौज और तालिबान की मिलीभगत का ठोस प्रमाण हैं| ब्रूस राइडल को यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि पाकिस्तान की फौज और सरकार तालिबान आतंकवादियों से अपने दम-खम पर कभी नहीं लड़ेगी| वह उनसे खुले या गुप्त समझौते करते रहेगी|
जैसे मुंबई-हमले के सवाल पर अमेरिकी डंडा बजते ही जरदारी-सरकार ने सच उगल दिया, वैसे ही जब तक अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को सीधी कार्रवाई की धमकी नहीं देगी या मदद बंद करने का डर पैदा नहीं करेगी, तालिबान दनदनाते रहेंगे| यह कड़वा सच है लेकिन इसे ओबामा-प्रशासन को मानना होगा कि पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान और तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| उनमें गहरी सांठ-गांठ है| पाकिस्तान की बेकसूर जनता और भोले नेताओं में इतना दम नहीं कि वे इस सांठ-गांठ को तोड़ सकें| वे बेचारे तो अपने उच्चतम न्यायालय में इफ्तिखार चौधरी को भी वापस नहीं ला पा रहे हैं| ऐसी स्थिति में अमेरिका को यह भूलना होगा कि पाकिस्तान आतंकवादी-विरोधी युद्घ में उसका सहयोद्घा है| वास्तव में वह आतंकवाद-विरोधी युद्घ में भितरघाती की भूमिका निभा रहा है| भितरघाती को सहयोद्घा समझने की भूल बुश-प्रशासन निरंतर करता रहा| इसी का परिणाम है कि मुशर्रफ की बिदाई के बावजूद पाकिस्तान के लोगों पर फौज का शिकंजा अभी तक ढीला नहीं पड़ा है| अमेरिका उसी फौज की मांसपेशियों का मजबूत बनाता रहा, जो तालिबान को प्रश्रय देती रही और पाकिस्तान के लोकतंत्र् की जड़ें खोदती रही| यदि अमेरिका चाहता है कि दक्षिण एशिया से आतंकवाद का उन्मूलन हो, पाकिस्तान में स्वस्थ लोकतंत्र् कायम हो और पाकिस्तान की जनता सुख-चैन से जी सके तो उसे पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान को गहरे शक की नज़र से देखना होगा| इस सैन्य-प्रतिष्ठान ने पाकिस्तान की संप्रभुता को तालिबान और अल-क़ायदा के हाथों गिरवी रख दिया है| इस पैंतरे का इस्तेमाल करके पाकिस्तान भारत से बदला निकालता है और अमेरिका से अरबों डॉलर झाड़ता है| इसलिए ओबामा प्रशासन को जरा भी नहीं झिझकना चाहिए| उसे आतंकवादियों के विरूद्घ सीधी कार्रवाई करनी चाहिए| पाकिस्तान की संप्रभुता तो कोरी कपोल-कल्पना है| उसे सच्चे अर्थों में पुनर्जीवित करने और उसे पाकिस्तान की जनता को सौंपने के लिए अमेरिकी नीतियों में बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है|
(लेखक पाक-अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
Leave a Reply