Nav Bharat Tims, 11 March 2005 : जैसा झटका आपात्काल ने इंदिरा गॉंधी की प्रतिष्ठा को दिया था, लगभग वैसा ही अब सोनिया को लगा है| पिछले दिनों गोवा और झारखंड में जो कुछ हुआ, वह आपात्काल के मुकाबले काफी मामूली घटना है और मूलत: प्रादेशिक मामला है लेकिन उसका असर सारे देश में हो रहा है| यह अपेक्षाकृत मामूली और सीमित घटना लोगों पर इतना गंभीर असर क्यों डाल रही है? इसका कारण भी स्वयं सोनिया गॉंधी ही हैं| सोनियाजी ने प्रधानमंत्री-पद क्या त्यागा, वे साक्षात देवी ही बन गईं| आम आदमी यह मानने लगा कि सोनिया गॉंधी भारत की राजनीति के पुराने सॉंचे को तोड़ेंगी और उसे नए रूप में ढालेंगी| जो प्रधानमंत्री-पद को ठुकरा सकती है, वह गोवा और झारखंड जैसे छोटे-मोटे राज्यों को कब्जाने की कोशिश क्यों करेंगी? जहॉं भी संकट होगा, विभ्रम होगा, संशय होगा, वहॉं सोनिया गॉंधी न्याय करेंगी| सोनिया के बारे में ही नहीं, आदर्शवाद का यह बुखार लोगों को 1984 में राजीव गॉंधी के बारे में भी चढ़ा था| दो-ढाई वर्ष में ही ‘मि. क्लीन’ की छवि बिल्कुल क्लीन हो गई| अदालतों के फैसलों के बावजूद लोगों की राय नहीं बदली| उसका खामियाजा कॉंग्रेस ने डेढ़ दशक तक भुगता| डर यही है कि कहीं सोनिया की गाड़ी भी राजीव की पटरी पर न चल पड़े|
अगर यह डर नहीं होता तो कॉंग्रेस प्रवक्ता को यह कहने की क्या जरूरत थी कि राज्यपालों ने जो कुछ किया है, वह अपनी मर्जी से किया है| सोनियाजी का उससे कुछ लेना-देना नहीं है| यह बयान और भी बुरा सिद्घ हुआ| इसने कोढ़ में खाज का काम किया| यह बयान देकर क्या कॉंग्रेस देश को यह बताना चाहती है कि सोनिया गॉंधी केवल मुखौटा हैं, नाम मात्र की नेता हैं, तटस्थ और उदासीन राजमाता हैं? यदि यह सत्य है तो यह सोनिया गॉंधी का अवमूल्यन है| और यदि यह असत्य है तो सारी जिम्मेदारी सोनिया गॉंधी की है, जिसे ढॉंपने की कोशिश की जा रही है| यदि सचमुच सोनिया गॉंधी की जानकारी के बिना राज्यों के राज्यपाल कॉंग्रेस की नाक कटवा रहे थे तो उन्हें तत्काल बर्खास्त क्यों नहीं किया गया? यदि ज़मीर का ज़मीर सोने चला गया और सिब्ते रज़ी ग़लत काम पर राजी हो गए तो उसकी क़ीमत वे चुकाऍं| सोनिया गॉंधी किसलिए सफ़ाई पेश करें? जो लोग कॉंग्रेस की कार्य-पद्घति जानते हैं उन्हें पता है कि कॉंग्रेस-अध्यक्ष या प्रधानमंत्री के इशारे पर या सहमति के बिना एक पत्ता भी नहीं हिला सकता| इसी गोवा में राज्यपाल भानुप्रकाश सिंह ने प्रधानमंत्री नरसिंहराव के ज़माने में राज्य-सरकार अपने बूते ही बर्खास्त कर दी थी| उन्हें तत्काल अपना पद छोड़ना पड़ा| गोवा और झारखंड के घटना-क्रम ने राज्यपाल पद की गरिमा तो गिराई ही है, भारत की राज्य-व्यवस्था पर भी अनेक प्रश्न-चिन्ह भी लगा दिए हैं|
सारा देश जानता है कि शासन की बागडोर सोनियाजी के हाथों में है| अब यह शक पैदा हो गया है कि या तो ये हाथ सक्षम नहीं हैं या फिर ये उसी यांत्र्िाक ढर्रे पर चलते रहेंगे, जैसे कि पहले भी चलते थे| यदि वे प्रधानमंत्री होतीं तो यह शक अधिक गहरा और प्रखर हो जाता| विपक्ष का आक्रमण भी ज्यादा उग्र होता| ऐसा नहीं हुआ, यह संतोष की बात है लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह साफ़-साफ़ बच निकले| राज्यपालों से घपले हो जाऍं और मंत्र्िामंडलीय टीम का कप्तान बच निकले, यह भारत में पहली बार हुआ है ! पार्टी-अध्यक्ष को ‘सुपारीदाता’ कहा जाए और प्रधानमंत्री को छुआ ही न जाए, क्या इस द्वैध का राजनीतिक फलितार्थ हम समझ पाए हैं? इसके कई अर्थ हैं| पहला अर्थ तो यह है कि भारत में सत्ता के दो केंद्र हैं| एक असली और दूसरा नक़ली ! सत्ता संबंधी हर प्रमुख निर्णय असली केंद्र ही करता है| नकली केंद्र का काम निर्णयों को लागू करना है| याने एक सेठ है और दूसरा मुनीम ! तर्क दिया जा सकता है कि सत्ता का यह द्वैध यदि सत्तारूढ़ दल को भला लगता है तो यह उसका आंतरिक मामला है| इसमें दूसरों को कोई एतराज क्यों हो? यह बात तभी तक चल सकती है, जब तक राष्ट्र के सामने कोई बड़ा संकट नहीं आता है लेकिन यदि कोई भयंकर संकट आया तो सेठ और मुनीम दोनों डूबेंगे और अपने साथ देश को भी ले डूबेंगे| उस स्थिति में सेठ की पगड़ी मुनीम के सिर और मुनीम की पगड़ी सेठ के सिर पर नहीं धरी जा सकेगी| संसद सीधे प्रधानमंत्री पर हमला बोलेगी| करेगा सेठ और भरेगा मुनीम ! क्या स्वस्थ संसदीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति उचित कही जा सकती है?
यह संतोष का विषय है कि सत्ता के इन दो केंद्रों में द्वंद्व या प्रतिस्पर्धा नहीं है| एक-दूसरे के प्रति अटूट आस्था है| संसदीय लोकतंत्र का यह दूसरा अजूबा है| शायद यह अपूर्व है| किसी अन्य देश में ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं दिखा| लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है, जो भारत की राज्य-व्यवस्था को दुविधा में डाल सकता है| वह यह कि अच्छे और बुरे निर्णयों का श्रेय या कलंक तो असली सत्ता केंद्र को मिलता रहेगा, जो सरकार नहीं है और जो असली सरकार है, उसका महत्व और प्रभाव दिनोंदिन घटता चला जाएगा| गैर-भारत में एक गैर-संवैधानिक समानांतर गणतंत्र का उदय हो सकता है, जैसा कि आपात्काल में संजय गॉंधी के तत्वावधान में हुआ था| गोवा और झारखंड के घटना-क्रम के दौरान प्रधानमंत्री पर सीधे हमले तो नहीं हुए लेकिन क्या उनका महत्व घट नहीं गया? वे इसीलिए अच्छे माने जा रहे हैं कि उन्होंने कुछ नहीं किया| जो कुछ नहीं कर सके, क्या वह प्रधानमंत्री के पद की महिमा और शक्ति को बचा सकता है? क्या कुछ ही दिनों में ऐसा नहीं होगा कि प्रधानमंत्री के मंत्र्िायों की बजाय असली सत्ता खिसककर सोनिया गॉंधी के सलाहकारों के पास चली जाएगी? क्या हम आपात्काल के आरंभ की इस आहट को सुन रहे हैं? यह असंभव नहीं कि पसोपेश की किसी स्थिति में मनमोहनसिंह जैस विनम्र लेकिन स्वच्छ और स्वाभिमानी व्यक्ति प्रधानमंत्री-पद से अपना पिंड छुड़ाने की ठान ले? यह कॉंग्रेस का नहीं, देश का संकट बन सकता है|
इस दुविधा से देश को उबारने की कोई सूरत अभी नज़र नहीं आती| इस दुविधा के संकट बन जाने की आशंका इसलिए भी प्रबल है कि केंद्र में जो अभी है, वह गठबंधन सरकार है| गठबंधन-सरकार को गिरते कितनी देर लगती है? दो घटकों ने भी अगर हाथ खींचा तो सरकार की टॉंग अपने आप खिंच जाएगी| इस समय कॉंग्रेस के पास इंदिरा गॉंधी की तरह कोई महाप्रतापी नेता नहीं है, कोई चमत्कारी नारा नहीं है, कोई लोक-लुभावन नीति नहीं है| ऐसे नाज़ुक समय में संयोग से मिली सत्ता को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि सोनिया गॉंधी हर कदम फूंक-फूंककर रखें| सत्ता ग्रहण करते समय उन्होंने जिस नैतिक साहस का परिचय दिया था, उसकी निरंतरता ही गठबंधन-सरकार की चीनी मिट्रटी की चिकनी गाड़ी को खुर्द-बुर्द होने से बचा सकती है|
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