R Sahara, 26 July 2006 : किसे गलत कहें ? इस्राइल को या हमास और हिजबुल्लाह को ? यह दुविधा सिर्फ मेरे जैसे मामूली लोगों की ही नहीं है, खुद लेबनान के प्रधानमंत्री, फलस्तीन के राष्ट्रपति, मिस्र, सउदी अरब और जोर्डन के शासकों, यूरोपीय नेताओं और भारत सरकार की भी है| अगर कोई दुविधा में नहीं है तो इस्राइल के प्रधानमंत्री नहीं हैं, अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं हैं और दूसरी तरफ ईरान के राष्ट्रपति, फलस्तीन और हिजबुल्ला के नेता नहीं हैं| संयुक्तराष्ट्र तो सबसे अधिक दुविधाग्रस्त है| सबकी दुविधा और सुविधा की व्याख्या करें, इसके पहले यह कह देना जरूरी है कि पश्चिम एशिया में चल रहे नर-संहार पर तुरंत रोक लगनी चाहिए| अगर इस्राइल और हिजबुल्लाह के नेता संयुक्तराष्ट्र की नहीं सुन रहे हैं तो नेल्सन मंडेला जैसे कुछ विश्व-नेता अपील जारी करें या स्वयं उस क्षेत्र में जाकर युद्घ-विराम करवाएं| यदि इस्राइल और अरबों की यह टक्कर लंबी खिंच गई तो फलस्तीन का मसला तो पहले से भी ज्यादा उलझ जाएगा, यह आशंका भी है कि यह युद्घ लेबनान के पुराने युद्घ-क्षेत्र से निकलकर सीरिया और ईरान तक फैल जाएगा|
सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि इस्राइल को इतना गुस्सा क्या आया? ऐसी कौन सी बात हो गई, जिसके कारण इस्राइल ने सारे लेबनान और गाजा पट्टी पर बमों की बरसात कर दी ? हफ्ते भर में 300 से अधिक लोग मौत के घाट उतर गए, लगभग पॉंच लाख लोग शरणार्थी होकर भाग निकले, हजारों विदेशी लेबनान खाली कर रहे हैं और लेबनान का कोई हवाई अड्डा, कोई सड़क, कोई पुल, कोई शहर सही-सलामत नहीं बचा है| इस्राइल ने इतना रौद्र रूप क्या केवल इसलिए धरा है कि उसक दो सिपाहियों का अपहरण और एक की हत्या हो गई| इन दोनों अपराधों के लिए हमास और हिजबुल्लाह नामक संगठन जिम्मेदार हो सकते हैं लेकिन इन अपराधों के लिए पूरे लेबनान को युद्घ के कड़ाह में डाल देना कहां तक उचित है ? इस्राइल का कहना है कि लेबनान की भूमि का दुरुपयोग करनेवाले ‘हिजबुल्लाह’ के शिया आतंकवादी अल-कायदा से भी बदतर हैं और उनका नेता हसन नसरुल्लाह उसामा बिन लादेन से भी अधिक खतरनाक है| इस्राइल ने अपने हमले को उस लड़ाई से जोड़पे की कोशिश की है, जो वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ चल रही है| इस्राइली प्रधानमंत्री एहूद ओल्मर्ट का दूसरा तर्क यह है कि वे और उनके पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरों ने यहूदी बस्तियों को खाली करवाने का जो उदारतापूर्ण कार्यक्रम शुरू करवाया, उसे हमास और हिजबुल्लाह के आतंकवादियों ने इस्राइल की कमजोरी समझ लिया| उन्होंने यह मान लिया कि ओल्मर्ट की गठबंधन सरकार काफी कमजोर है| उसे वे आसानी से दबा लेंगे| इसीलिए उन्होंने इस्राइली सिपाहियों को बंधक बनाकर उन फलस्तीनी कैदियों को छुड़ाने की कोशिश की, जो इस्राइली जेलों में बंद हैं| ओल्मर्ट सरकार चाहती तो वह कुछ सौदेबाजी कर सकती थी, जैसे कि पहले भी इस्राइल और फलस्तीन के बीच हुई है लेकिन वैसा करने की बजाय उसने तय किया कि वह अपनी मर्दानगी सिद्घ करे| इसीलिए वह लेबनान और फलस्तीन पर टूट पड़ी है|
इस्राइल सरकार का आरोप है कि हमास और हिजबुल्लाह खुद मुख्तार नहीं हैं| वे कठपुतलियां हैं, ईरान और सीरिया की ! वे इन दोनों विध्नसंतोषी राष्ट्रों के मोहरे बन गए हैं| इन दोनों राष्ट्रों को अमेरिका के राष्ट्रपति ने शैतान राष्ट्र कहा है, बुराई की जड़ कहा है, आतंकवाद के संरक्षक कहा है| यह आरोप लगाकर इस्राइल अमेरिका की नजरों में भी ऊंचा चढ़ गया है| इसमें शक नहीं कि अमेरिका ने इस्राइल को अपना खुला समर्थन दिया है| इस्राइल की पीठ पर अमेरिका का हाथ है, इसीलिए इस्राइल को सुरक्षा-परिषद्र भी नकेल नहीं पिरो सकती ! इस्राइल अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है| उसका कहना है कि जब तक उसके दोनों सिपाही वापस नहीं मिल जाते, दक्षिणी लेबनान का सीमांत-भाग हिजबुल्ला से खाली नहीं करा लिया जाता और हिजबुल्ला से शस्त्र-समर्पण नहीं करवाया जाता, याने जब तक संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव नं. 559 लागू नहीं किया जाता, वह सैन्य-कार्रवाई बंद नहीं करेगा| इस्राइल का असली इरादा तो लेबनान को अपना मोहरा बनाना है ताकि न तो वहां सीरिया का प्रभाव रहे और न ही हिजबुल्लाह के जरिए ईरान का वर्चस्व रहे| लेबनान में कुछ अजूबा हो रहा है| ये ऐसा देश है, जहां इस्राइल के विरुद्घ शिया और सुन्नी एक हो गए हैं| एराक में वे एक-दूसरे के प्राण लेने को उतारू हैं लेकिन लेबनान में उनका चोली-दामन का साथ है| स्वयं लेबनान, ईरान और सीरिया से दुखी है| वह दोनों से मुक्ति चाहता है लेकिन वह मजबूर है| वह कुछ नहीं कर सकता| पिछले साल सीरियाई षड़यंत्र के तहत लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक-अल-हरीरी की हत्या हुई लेकिन लेबनान कुछ नहीं कर सका| इसी प्रकार संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद लेबनान अपने और इस्राइल के बीच के सीमांत पर अपनी फौज तैनात नहीं कर सका, क्योंकि ईरानी मदद से हिजबुल्लाह के छापामार वहां डटे हुए हैं| कितनी विडंबना है कि लेबनान की लोकतांत्र्िाक सरकार पर इस्राइल और अमेरिका ने मिलकर संकट के बाल जमा कर दिए हैं| इसी प्रकार हमास की सरकार, जो कि लोकपि्रय वोटों के कारण सत्तारूढ़ हुई है, लोकतंत्र के पुरोधा अमेरिका के कारण डावांडोल हो गई है| पहले, पश्चिमी राष्ट्रों ने पहले से चली आ रही उसकी आर्थिक सहायता बंद कर दी और अब इस्राइल ने उसे पंगु बना दिया है|
इस संकट को लेकर अरब राष्ट्र भी बंटे हुए हैं| सउदी अरब, जोर्डन और मिस्र जैसे राष्ट्रों को बेकसूर लेबनानियों से ज्यादा चिंता ईरान के बढ़ते हुए प्रभाव की है| वे हिजबुल्लाह को ”दुस्साहसी और लापरवाह” बता रहे हैं| सेंट पीटर्सबर्ग में संपन्न हुए गु्रप-आठ राष्ट्रों के सम्मेलन में भी शांति की अपील की गई लेकिन इस्राइल के अतिवाद की निंदा नहीं की गई| यूरोपीय राष्ट्र भी जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं| स्वयं सीरिया फूंक-फूंककर कदम रख रहा है| न वह ऐसी बात कह रहा है, न कोई ऐसा कदम उठा रहा है, जिसके बहाने इस्राइल उस पर टूट पड़े, हालांकि वह फलस्तीनी छापामारों की पूरी मदद कर रहा है| ईरान को यह सुनहरा मौका हाथ लगा है| वह इस्राइल और अमेरिका पर खुलकर बरस रहा है ताकि उसके परमाणु-संकट से दुनिया का ध्यान हट जाए| रूस ने इस्राइल के अतिवाद की आलोचना की है लेकिन दुनिया के ज्यादातर राष्ट्र तमाशबीन बने हुए हैं|
इस संकट से सभी पक्षों का नुक्सान होगा| लाभ तो इस्राइल का भी नहीं होगा| इस्राइली अतिवाद के फलस्वरूप फलस्तीन के नरमपंथी राष्ट्रपति महमूद अब्बास, लेबनान के मर्यादित प्रधानमंत्री फउद सिनियोरा तथा हमास और हिजबुल्लाह के विरोध भी बेजुबान हो जाएंगे| अरब जनता के मन में इस्राइल के प्रति घृणा का भाव तीव्रतर हो जाएगा| मध्यस्थ के तौर पर अमेरिका की साख भी घटेगी| एराक में भी उसका शिया-आधार कमजोर पड़ेगा| पश्चिम एशिया की गुत्थी पहले से भी अधिक उलझ जाएगी| अगर इस्राइल यह मानकर चल रहा है कि वह ईंट के जवाब में चट्टानें फेंककर फलस्तीनियों को दबा लेगा तो उसकी यह सोच शुद्घ भावावेश की उपज है| फलस्तीनी और लेबनानी लोग फिलहाल तो मार खा जाएंगे लेकिन वे इस मजबूरी का बदला लिए बिना नहीं रहेंगे| इस्राइल की यह दादागीरी ईरानी बम के समर्थन का सबसे मजबूत तर्क बनेगी| पाकिस्तानी बम को इस्लामी बम कोई नहीं मानता लेकिन इस्राइल अपने अतिवाद के कारण ईरानी बम को इस्लामी बम जरूर बना देगा|
Leave a Reply