Bhaskar, 03 Feb 2009 : योगासनों के विरूद्घ मुल्ला और मौलवी फतवे जारी नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? मुल्ला-मौलवी, महंत-मठाधीश, पोप-पादरी बने ही इसलिए हैं कि वे धर्म के नाम पर चाबुक फटकारते रहें| वे सदियों से चाबुक फटकार रहे हैं| उन्होंने किस-किस की खाल नहीं उधेड़ी ? राजा-महाराजा, आस्तिक-नास्तिक, भगत-जगत, किंचन-अकिंचन-कोई नहीं बचा, उनकी क्रोधाग्नि से ! वे धर्म के रक्षक हैं, ठेकेदार हैं, प्रवक्ता हैं, इसलिए कोई भी उनके खिलाफ मुँह खोलने की हिमाकत नहीं करता| चाबुक फटकारना उनकी आदत बन गया है, निहित स्वार्थ बन गया है, जन्मसिद्घ अधिकार बन गया है| वे यह भी भूल जाते हैं कि उन्हें चाबुक फटकारने का अधिकार क्यों मिला है| धर्म की रक्षा के लिए लेकिन धर्म तो नेपथ्य में चला जाता है और चाबुक मंच पर चमचमाता रहता है| ऐसा ही चाबुक पहले मलेशिया और फिर इंडोनेशिया में फटकारा गया| इन दोनों देशों के मौलवियों ने प्राणायाम और योगासन के विरूद्घ फतवे जारी कर दिए| उनका कहना है कि प्राणायाम और योगासन करते वक्त़ जिन मंत्रें का जाप किया जाता है, वे इस्लाम-विरोधी हैं| ‘ओम’ का उच्चारण काफिराना हरकत है|
ऊपरवाले का नाम लेना क्या काफिराना हरकत है ? क्या इस्लाम ईश्वर-विरोधी है ? इस्लाम परम आस्तिक धर्म है| इस्लाम ईश्वर का नाम-स्मरण जितनी शिद्दत के साथ करता है, शायद दुनिया का कोई मज़हब नहीं करता| हर काम शुरू करने के पहले मुसलमान ‘बिस्मिल्लाह’ बोलते हैं, कलमा पढ़ते हैं और दिन में दर्जनों बार ‘खुदा हाफिज़’ कहते हैं| प्राणायाम करते समय अगर कोई ‘ओम’ बोलता है तो वह खुदा का नाम ही तो लेता है| वह शैतान का नाम तो नहीं लेता| यहाँ झगड़ा खुदा का नहीं है, भाषा का है, शब्द का है| पारसी में जिसे खुदा कहते हैं और अरबी में अल्लाह, संस्कृत में उसे ही ओम कहते है| क्या भाषा बदलने से खुदा बदल जाता है ? क्या ईश्वर को भाषा में क़ैद किया जा सकता है ? यदि ईश्वर को हम जिहोवा कहें, खुदा कहें, गॉड कहें, अहुरमज्द़ कहें, रहीम कहें और ऐसा कहने पर वह ईश्वर न रहे तो वह ईश्वर ही क्या है ? वह असीम नहीं, ससीम हो गया| हम ईश्वर को अपनी तरह संकीर्ण क्यों बनाना चाहते हैं ? हमें खुद को ईश्वर के स्वरूप में ढालना है या ईश्वर को अपने स्वरूप में ढालना है ? हम ईश्वर के साथ दादागीरी क्यों कर रहे हैं ?
यह कितनी अच्छी बात है कि योग को सारे संसार में फैलानेवाले युवा सन्यासी रामदेवजी ने फतवे के जवाब में पूछ लिया कि ‘ओम’ और अल्लाह में फर्क क्या है ? जिन्हें ‘ओम’ नहीं बोलना है, न बोलें| उसकी जगह अल्लाह बोलें| आमीन बोलें| कुछ और ठीक लगता हो तो वह बोलें| जिस शब्द से प्राणायाम बढि़या होता हो, ध्यान खूब जम़ता हो, धारणा बनती हो, समाधि लगती हो, वह बोले ! ओइम्र, अल्लाह और गॉड – ये तीनों शब्द तो आसानी से चल सकते हैं लेकिन ईश्वर के लिए रूसी में वोग, इतावली में इदि्रदयो, फ्रेंच में द्यू, जर्मन में गोट्ट जैसे शब्द हैं| क्या ये सब शब्द–श्वास-निश्वास, अनुलोम-विलोम, रेचक-कुंभक करते समय कुछ काम आएँगें ? यदि नहीं तो इनके पीछे क्यों पड़ा जाए ?
योगासन, प्राणायाम और ध्यान कोई पोंगापंथ नहीं हैं| शुद्घ वैज्ञानिक प्रकि्रयाएँ हैं| ये उपासना पद्घतियाँ नहीं हैं| इन्हें तो वे भी अपना सकते हैं, जो कोई उपासना नहीं करते| जिन्हें न तो स्वर्ग या जन्नत में जाना है और जो न ही ईश्वर या खुदा को मानते हैं, वे भी उत्कृष्ट योगी बन सकते हैं| योग का काम चित्तवृत्तियों का निरोध करना और शरीर को स्वस्थ रखना है| योग तन और मन की दवा है| दवा की जात क्या पूछना ? सिर्फ पूछने लायक बात यह होती है कि दवा अपना काम कर रही है या नहीं ? यदि कर रही है तो यह पूछने की भी क्या जरूरत है कि उसे किसने बनाया है ? हकीम ने या वैद्य ने या डॉक्टर ने ? वह कहाँ से आई है, यूनान से या रोम से या चीन से या भारत से ? कहीं से भी आई हो, अगर वह कल्याणकारी है तो आप लाख फतवे जारी करें, धर्माज्ञा प्रसारित करें, ‘एडिक्ट’ ठोकें, आपकी कौन सुनेगा ? लोग वही करेंगे, जिससे उन्हें फायदा हो| इसीलिए इंडोनेशिया और मलेशिया के नेताओं ने अपनी जनता से कहा है कि फतवे अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन आपको जो ठीक लगे, वह करें| इस मामले में हमारे देवबंद के दारूल उलूम ने बड़ा साहसिक कार्य किया है| उसकी जितना सराहना की जाए, कम है| उसने साफ़-साफ़ कहा है कि इस्लाम और योगासन में कोई विरोध नहीं है| इस्लाम शरीर को स्वस्थ रखने पर जितना ज़ोर देता है, कौनसा मज़हब देता है ? दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ने का मतलब क्या है ? अगर कोई इन्सान दिन में पाँच बार ईमानदारी से नमाज़ पढ़ ले तो वह बीमार ही क्यों हो ? दिन में जो इंसान, खुद को पाँच बार खुदा के तराजू पर तोलता हो वह अधर्म का कोई काम कैसे कर सकता है ? उसका चित्त तो अपने आप ही शुद्घ रहेगा और नमाज़ में इतने आसान अपने आप ही आ जाते हैं कि शरीर के हर अंग की कसरत हो जाती है| इसके अलावा रोज़े भी शरीर को शुद्घ करने के सर्वोत्तम साधन हैं| वह तप का तप है और शरीर-शुद्घि भी है| योगासन और प्राणायाम इसी प्रकि्रया को आगे बढ़ाते हैं| नमाज़ और नमस्र सुनने में क्या एक-जैसे नहीं लगते ? नमाज़ की तरह सूर्य-नमस्कार भी तन-मन को तरो-ताज़ा कर देता है|
जहाँ तक योग का प्रश्न है, इसकी उत्पत्ति भारत में जरूर हुई है लेकिन इसका किसी मज़हब से कोई संबंध नहीं है| जिन मज़हबों के नाम हम आजकल सुनते हैं, बौद्घ, जैन, हिंदू, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, पारसी आदि उस समय थे ही नहीं| योग और आयुर्वेद सार्वभौम हैं, सार्वदेशिक हैं, सबके लिए हैं| ये मज़हबविहीन दुनिया की चीजें हैं| उन्हे मज़हब के बाड़ों में बांधा नहीं जा सकता| हर मज़हब में अब भी कई मूल बातें ऐसी हैं, जो मानव-मात्र् के लिए कल्याणकारी हैं| उन्हें हम केवल इसीलिए न छुएँ कि उनकी भाषा पराई है, या उत्पत्ति विदेशी है या उनके प्रस्तोता अजनबी हैं तो यह रवैया न तो व्यावहारिक है और न वैज्ञानिक है| विश्व-ग्राम के इस आधुनिक संसार में आखिर योग आँधी की तरह क्यों फैल रहा है ? अरबों ने हिंदसा (भारतीय अंकों) को क्यों अंगीकार किया, चीनियों ने विपश्यना और जापानियों ने झेन (ध्यान) को क्यों अपनाया, हम भारतीय लेपटॉप और मोबाइल का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं ? मज़हब के नाम पर आप किस-किस को क्या-क्या करने से रोकेंगे ? दुनिया के पोंगापंथी लोग प्रवाह के विरूद्घ तैर रहे हैं| वे टिक नहीं सकते| वे बह जाएँगे|
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