दैनिक भास्कर, 29 अप्रैल 2004: जैसे चुनावी अजूबे इस बार घट रहे हैं, पिछले 13 चुनावों में नहीं घटे| सबसे पहला अजूबा तो चुनाव-ज्योतिष ही है| चुनाव-ज्योतिषियों ने पहले तो राजग को स्पष्ट बहुमत दिला दिया और कॉंग्रेस की लुटिया डुबो दी| अब आंशिक मतदानों के बाद वे खुद सिर के बल खड़े हो गए हैं| वे कह रहे हैं कि राजग और भाजपा दोनों डूब रहे हैं और कॉंग्रेस तैर रही है| वे यह नहीं बताते कि वे खुद गलत क्यों साबित हो रहे हैं? आम मतदाता असमंजस में है| वह किसे सही माने? मतदान-पूर्व सर्वेक्षण को या मतदान-पश्चात सर्वेक्षण को? दोनों सर्वेक्षणों में अधिक भरोसे लायक कौनसा है? सच्चाई तो यह है कि दोनों ही पतंगबाजी है| पॉंच करोड़ मतदाताओं का रुझान जानने के लिए आप सिर्फ पॉंच हजार लोगों से बात करते हैं| क्या पॉंच हजार से पॉंच करोड़ के दिल का अन्दाज़ लगाया जा सकता है? हॉं लगाया जा सकता है, बशर्ते कि मतदाता मनुष्य नहीं, दाल-चावल हों| दो-चार दानों को दबाने से ही पता चल जाता है कि भगोने में पड़े कई किलो दाल-चावल उबल गए हैं या नहीं? न्याय-दर्शन में इसे स्थालीपुलाक न्याय कहा जाता है| यह स्थालीपुलाक न्याय जापान, चीन और अमेरिका जैसे एकरूप राष्ट्रों में तो कभी-कभी बिल्कुल ठीक बैठ जाता है लेकिन भारत जैसे विशाल और विविधतामय देश में अक्सर इसके परखचे उड़ जाते हैं| लगभग हर चुनाव इस तथ्य का साक्षी है| खुद अलग-अलग ज्योतिषियों की परस्पर विरोधी भविष्यवाणियॉं इस तथ्य पर मुहर लगाती हैं| ये ज्योतिषी अगर विस्तार से यही बता दें कि जिन नतीजों पर वे पहुंचे हैं, उन पर पहुंचने की विधि क्या है तो उनकी पोल स्वत: खुल जाएगी| ‘एग्जिट पोल’ की सारी पोल एग्जिट हो जाएगी|
स्बको पता है कि चुनावी भविष्यवाणियॉं अंदाजी घोड़ों के अलावा कुछ नहीं हैं| फिर भी सभी लोग इनमें दिलचस्पी क्यों दिखाते हैं? इसीलिए कि यह मनुष्य स्वभाव है| अनागत के प्रति जिज्ञासा ! यदि यह अदम्य जिज्ञासा मनुष्य के मन में नहीं होती तो आदि काल से चला आ रहा, ज्योतिष का धंधा कभी शुरू ही नहीं होता| चुनावी-ज्योतिष तो धंधों का धंधा है| राजनीतिक दल और नेता ही नहीं, अनेक बड़े-बड़े व्यवसायी और महाशक्तियॉं भी इस ध्ंाधे में अपनी टॉंग फंसाए रखते हैं| वे इन ज्योतिषियों को अपने स्वार्थों का दर्पण बना लेते हैं| हवाई भविष्यवाणियों की ऑंधी बहाकर वे वर्तमान के ठोस पहाड़ों का उड़ा देने की कोशिश करते हैं| यदि यह कोशिश बिल्कुल बॉंझ होती तो शेयर बाजार का सूचकॉंक एक साथ 213 अंक कैसे लुढ़क जाता और भारत के शेयर होल्डर 54000 करोड़ का झटका एक ही रात में कैसे खा जाते? यदि शेयर बाजार लुढ़का है तो क्या मतदाता नहीं लुढ़केंगे? मतदाताओं को यह भविष्यवाणियॉं प्रभावित नहीं करती होतीं तो इन पर करोड़ों रु. खर्च क्यों किए जाते? उच्चतम न्यायालय ने अभी तक इन चुनावी अटकलपच्चुओं पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, इसका मतलब यह नहीं कि ये वांछनीय हैं या विश्वसनीय हैं|
दूसरा चुनावी अजूबा यह है कि इस बार मतदान का प्रतिशत गिर रहा है| अब तक वह 57.7 प्रतिशत है जबकि पिछले चुनाव में 60.4 था| 2.7 प्रतिशत की यह गिरावट किस बात की सूचक है? यही कि इस चुनाव में कोई गर्मागर्म मुद्दा नहीं है| इंदिरा गॉंधी की हत्या ने देश को झकझोर दिया था, इसीलिए 1985 के चुनाव में 64.1 प्रतिशत मतदान हुआ| भारत में औसत मतदान 60 प्रतिशत होता है| कई विकसित देशों में इतना भी नहीं होता| लोग सोचते हैं कि ‘कोउ नृप होय, हमें का हानि?’ यह सोच लोकतंत्र को पंगु बनाता है| 67 करोड़ मतदाता में से अगर केवल 55 प्रतिशत वोट डालें याने लगभग 37 करोड़ वोट डालें तो सोचिए कि 100 करोड़ में से 63 करोड़ लोग तो राजनीतिक प्रक्रिया से अपने आप बाहर हो गए| जितने अंदर हैं, उनसे दुगुने बाहर हैं| जितने वोट डालते हैं, उनके आधे वोट भी आज तक किसी पार्टी को नहीं मिले हैं| मुश्किल से 30 या 35 प्रतिशत वोट के दम पर ही सरकार बन जाती है| याने अब भी जिस मोर्चे को 12 या 15 करोड़ वोट मिलेंगे, वही सरकार बना लेगा| 100 करोड़ का देश वे लोग चलाऍंगे, जिन्हें केवल 15 करोड़ का समर्थन है| क्या यह स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए संतोषजनक कही जा सकती है? क्या भारत में कभी 50-55 करोड़ के समर्थनवाली सरकार भी बन सकती है? यह एक सपना है| इसे साकार करने के लिए क्या मतदान को अनिवार्य बनाना जरूरी होगा? क्या चुनाव का आधार सानुपातिक प्रतिनिधित्व को बनाया जाए? अगर अगले दो मतदानों में भी प्रतिशत गिरता है तो गिरावट के इस अजूबे का इलाज हमें ढॅंूढना ही होगा|
इस चुनाव का तीसरा अजूबा है हर उम्मीदवार की चल-अचल सम्पत्ति की घोषणा| कुछ अखबार देश के खास-खास नेताओं की इन घोषणाओं को छापने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं| अभी तक जितने भी विवरण पढ़ने में आए हैं, उनसे मालूम पड़ता है कि एक भी उम्मीदवार ऐसा नहीं है, जिसकी सम्पत्ति लाखों या करोड़ों में न हो| कुछ जरूर होंगे| खास तौर से जन-जाति या पहाड़ी इलाकों में लेकिन उनका जि़क्र नहीं है| जि़क्र हो तो भी वे कितने होंगे? साढ़े पॉंच सौ में से दर्जन भर भी नहीं| याने देश के प्रतिनिधि वे नहीं हैं, जो देश है| देश के 75 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो न तो लखपति हैं और न करोड़पति लेकिन उनके 98 प्रतिशत प्रतिनिधि ऐसे हैं, जो लखपति और करोड़पति हैं| कैसा अद्रभुत है, हमारा लोकतंत्र की कौड़ीपतियों का प्रतिनिधित्व करेंगे, लखपति और करोड़पति ! यह प्रतिनिधित्व कितना प्रामाणिक होगा? कहने को मतदाता मालिक हैं और नेता उनके सेवक ! यहॉं अजूबा यह है कि मालिक तो दो वक्त की रोटी को तरसता है और उसके सेवक लखपति और करोड़पति हैं|
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