Dainik Bhaskar, 30 April 2010 : लोकसभा में कटौती प्रस्ताव क्या गिरा उसने भारतीय राजनीति के चेहरे पर उगे हुए सारे फुंसी-फोड़े और मस्से उजागर कर दिये। कांग्रेस के संसदीय मामलों के प्रबंधक बेशक अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि उन्होंने विपक्ष को चारों खाने चित्त कर दिया लेकिन उन्हें भी पता है कि उनकी विजय के इस अमृत-घट में कितना गरल भरा हुआ है। उन्हें समझ में आ गया है कि यदि यह सरकार अगले चार साल तक चलानी है तो उन्हें किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहना पड़ेगा। पिछली सरकार को परमाणु-सौदे के हड़कंप से बचाने के लिए उसे संसद को बाज़ार बनाना पड़ा और इस बार अपनी जान बचाने के लिए उसे सीबीआई की ओट लेनी पड़ी। यदि सीबीआई के शिकंजे में फंसने का डर नहीं होता तो क्या लालू, मुलायम और मायावती कांग्रेस का साथ देते? कटौती-प्रस्ताव पर सरकार बच तो गई लेकिन उसका आत्मविश्वास हिल गया है। यदि मायावती या शरद पवार खिसक जाते तो सत्तारूढ़ दल का पापड़ से भी पतला बहुमत चूर-चूर हो जाता। सिर्फ 8-10 वोट के इधर से उधर होने पर ही स्वर्ग नरक में बदल जाता। सरकार ने अपने इन तीनों आकस्मिक मेहरबानों को सीबीआई से छुटकारा दिलाने का कोई आश्वासन दिया है या नहीं, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा लेकिन इस कटौती प्रस्ताव ने सरकार की इस प्रमुख जांच एजेंसी की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगा ही दिया है।
इसके पहले कि हम आगे बढ़ें, यहां एक और प्रश्न से निपट लेना ज़रूरी है। क्या भारत का कोई भी दल आज मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है? शायद भाजपा भी नहीं! ऐसी हालत में कटौती प्रस्ताव का गिरना सबके लिए अनुकूल रहा, लेकिन इस प्रस्ताव ने हमारे जातिवादी प्रांतीय दलों की पोल पूरी तरह से खोल दी। जिन दलों ने मंहगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और बंद में बढ़-चढ़कर भाग लिया था और जो तीसरे मोर्चे के स्तंभ बने हुए थे, उन्होंने यह सिद्ध किया कि न तो उन्हें महंगाई से त्रस्त गरीब समर्थकों की कोई परवाह है और न ही उन्हें अपने दल की इज्जत का ज़रा भी ख्याल है। उन्होंने मतदान से मुंह मोड़कर यह बता दिया कि वे कोई भी मनमाना निर्णय कर सकते हैं, जैसे कि प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के मालिक करते हैं। इन राजनीतिक दलों के मालिक यह भी भूल जाते हैं कि उनके दलों में कई इज्जतदार और सा$फ-सुथरे नेता भी हैं। इस समय उनका कितना दम घुट रहा होगा। अपनी अकूत अनैतिक व अवैध संपदा बचाने के लिए इन राजनीतिक सरगनाओं ने अपने दलों और स्वच्छ साथियों की इज्जत भी धूल में मिला दी है। सत्तारूढ़ दल से लगातार ब्लैकमेल होते रहने की बजाय ये नेतागण अपनी संपूर्ण अवैध संपत्ति राष्ट्र को समर्पित करके एक नया यशस्वी जीवन शुरू क्यों नहीं करते?
कटौती प्रस्ताव ने यह भी बता दिया है कि तीसरा मोर्चा, तीसरे दर्जे का मोर्चा है। इसका इस्तेमाल जनता की मांगें मनवाने के लिए नहीं, बल्कि अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाएगा। माक्र्सवादी पार्टी के नेता अब भी सिद्धांतवाद के कुएं में गोते लगा रहे हैं। जातिवादी प्रांतीय पार्टियां अपने प्रेरणा-पुरुषों और अपने आदर्शों का कचूमर बना चुकी हैं। उन्हें सत्ता और पत्ता के अलावा कुछ नहीं सूझता। इसी सड़े हुए कचूमर से वे अपना जीवन-रस खींच रही हैं। उनसे किसी बड़े जन-आंदोलन की आशा करना रेत में नाव चलाने जैसा है। कांग्रेस के लिए यह वरदान है। इसका लाभ कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और बिहार में अवश्य मिलेगा। भारत के माक्र्सवादी यदि आज भी ज़मीन से जुड़कर चलने को तैयार हों तो वे अकेले ही तीसरा मोर्चा खड़ा कर सकते हैं, लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे अपने बंगाली और मलयाली परकोटे से बाहर निकलने की युक्ति आज तक नहीं खोज पाए और न ही ऐसे मुद्दे खोज पाए, जो दूरगामी और बुनियादी महत्व के हों। महंगाई जैसे तात्कालिक मुद्दे बड़ी राजनीति का आधार नहीं बन सकते। सोवियत संघ के विसर्जन और चीनी पूंजीवाद के आविर्भाव के कारण हमारे वामपंथियों की नाभि-नाल कट गयी। वे अनाथ-से हो गए। कभी वे कांग्रेस से हाथ मिलाते हैं और कभी जातिवाद के नव-सांमतों से! दक्षिण पंथियों से हाथ मिलाने का यह नया प्रयोग अगर उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ सके तो क्या कहने?
इस कटौती प्रस्ताव ने वामपंथियों को कम से कम सेक्युलरवाद के मुद्दे पर नया अनुभव दे दिया है। 1967 के बाद पहली बार वामपंथ और दक्षिणपंथ एक ही गाड़ी के दो पहियों की तरह चले। क्या यह हास्यास्पद नहीं कि नरेंद्र मोदी की डोंडी पीटने वाली और भाजपा के सहयोग से बार-बार सरकार बनाने वाली मायावती आज सेक्युलरवाद की दुहाई दे रही है। सेक्युलरवाद शुद्ध ढोंग है और वोट-बैंक का नग्न-जुगाड़ है, यह इस कटौती प्रस्ताव पर हुए मतदान ने सिद्ध कर दिया है। क्या महंगाई को भी सेक्युलर और नॉन-सेक्युलर के खांचों में बांटा जा सकता है? क्या महंगाई को भी भगवा महंगाई, लाल महंगाई, हरी महंगाई या सफेद महंगाई के रंगों में रंगा जा सकता है? ज़ाहिर है हमारे नेताओं को आम जनता के दुख-दर्द की खास परवाह नहीं है, वरना वे इस कटौती प्रस्ताव के ज़रिए चाहे सरकार नहीं सरकार की आंखों पर बंधी पट्टïी ज़रूर गिरा देते।
यह वही पट्टी है, जिसके कारण हमारी सरकार उन 80 करोड़ लोगों को नहीं देख पाती, जो 20 रु. रोज़ पर गुज़ारा कर रहे हैं। डर यही है कि कटौती प्रस्ताव की नौटंकी में महंगाई की सुरसा कहीं नेपथ्य में न खिसक जाए और सारा नाटक सरकार के रहने या गिरने के शोर में ही समाप्त न हो जाए।
कटौती प्रस्ताव के कारण चाहे केन्द्र की सरकार न गिर पायी हो लेकिन झारखंड की सरकार तो गिर ही रही है। क्या इसके कारण झारखंड के लोगों को महंगाई से राहत मिलेगी? बैठे-बिठाए भाजपा की जेब कट गई। इस नौटंकी में सब दुलत्ती खा गए। सब मसखरे बन गए।
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