दैनिक भास्कर, 11 मई 2011: इधर उसामा बिन लादेन का सफाया हुआ, उधर तीन विदेश-यात्रएँ एक साथ हो रही हैं| भारत के प्रधानमंत्री अफगानिस्तान जा रहे हैं| उन्हीं तिथियों में पाकिस्तान के राष्ट्रपति रूस में रहेंगे और अगले सप्ताह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री चीन जाएंगे| यों तो ये तीनों यात्राएँ पहले से तय हो चुकी थीं लेकिन अगर उसामा का खात्मा नहीं होता तो इन राजकीय-यात्रओं में तरह-तरह के आपसी और क्षेत्रीय मुद्दों पर बात होती, जो उचित भी होगी| लेकिन अब तो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल गया है| उसामा के बाद दक्षिण एशिया का भविष्य क्या होगा, यह मुद्दा ही इन यात्रओं का मुख्य विषय होगा|
पहले हम यह देखें कि उसामा-कांड के परिणाम क्या-क्या हुए? पहला, पाकिस्तानी फौज और सरकार की कलई खुल गई| अपने सबसे बड़े सरपरस्त अमेरिका और अपनी जनता की नज़रों में भी ये दोनों गिर गए| दूसरा, उसामा के उड़ जाने से अल-कायदा की कमर वैसे ही टूट सकती है, जैसे भिंडरावाला के सफाए से खालिस्तान और प्रभाकरन के सफाए से लिट्रटे की कमर टूट गई थी| तीसरा, अफगानिस्तान में अभी तीन साल तक टिके रहने की मजबूरी के कारण अमेरिका पाकिस्तान को अब नए टेके ढूंढने होंगे| चौथा, अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ती हुई खाई में भारत, चीन और रूस अपने-अपने लिए नई जगहें खोजने लगेंगे| पांचवां, इन बदलते हुए अंतरराष्ट्रीय समीकरणों की वेला में यह भी संभव है कि पाकिस्तान अपनी विदेश नीति में पहली बार बुनियादी परिवर्तन करने की बात सोचने लगे|
यदि इन यात्रओं को हम उक्त विश्लेषण के प्रकाश में देखें तो कई नए अर्थ और निष्कर्ष हमारे सामने आएंगे| सबसे पहले भारतीय प्रधानमंत्री की काबुल-यात्र को लें| यदि यह यात्र सिर्फ इसीलिए की जा रही है कि भारत 450 करोड़ का नया अनुदान अफगानिस्तान को दे आए तो इसका अर्थ यह हुआ कि पहले से बनी हुई काफी मीठी चाय में हमने चार चम्मच चीन और डाल दी ? इससे क्या फर्क पड़नेवाला है ? यदि हामिद करजई सरकार को हम सुदृढ़ नहीं बना सके और अमेरिकी फौजें वहॉं से वापस हो गई तो हमारी लगभग डेढ़-दो अरब डॉलर की मदद पर पानी फिर जाएगा| अमेरिकी छाते के बंद होते ही हम पर तालिबानी बारूद बरसना शुरू हो जाएगी| पाकिस्तान के लिए जबर्दस्त सामरिक पिछवाड़ा (स्ट्रेटजिक डेप्थ) उठ खड़ा होगा| भारत के लिए अपूर्व खतरा पैदा होगा| इससे अमेरिका को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा| इसीलिए अब अफगानिस्तान की सुरक्षा का जिम्मा भारत को अपने कंधे पर लेना होगा| हम वह गलती कभी न करें, जो अमेरिकियों ने की है| भारतीय जवानों को लड़ने के लिए अफगानिस्तान कभी न भेजा जाए| हम सिर्फ पांच लाख अफगान जवानों की फौज खड़ी करने का जिम्मा लें| इसका खर्च अमेरिका उठाए| यह फौज अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान को भी सीधा कर देगी|
भारत को चाहिए कि वह अमेरिका को ईरान के प्रति थोड़ा नरम करे ताकि ईरान-अफगानिस्तान सीमांत पर भारत ने जो सामरिक सड़क बनाई है, जरंज-दिलाराम सड़क-उसका इस्तेमाल भारत को मध्य-एशिया के मालदार गणतंत्रें से सीधा जोड़ने के लिए किया जा सके| चारों तरफ जमीन से घिरे अफगानिस्तान को अब तक पाकिस्तान जो ब्लेकमेल करता रहा है, वह अब बंद होना चाहिए|
इस लक्ष्य की प्राप्ति में रूस उत्साहपूर्वक हमारी सहायता करेगा| यों भी उसने अमेरिकी फौजों के लिए अपना माल अफगानिस्तान तक पहुंचाने के खातिर अपने हवाई मार्ग सहर्ष खोल दिए हैं| पिछले साल सोची में रूस, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और तजाकिस्तान के नेताओं ने आतंकवाद, मादक-द्रव्यों की तस्करी और बढ़ती हुई राजनीतिक बेचैनी के विरूद्घ एक संयुक्त अभियान का संकल्प किया था| रूस ने तेल, गैस और बिजली में मोटे विनिवेश का आश्वासन भी दिया था और शेष तीनों देशों ने प्राचीन ‘रेशम पथ’ को पुनर्जीवित करने की योजना बनाई थी| रूस उस गैस पाइपलाइन योजना को बढ़ाने पर भी राजी हो गया है, जो तुर्कमेनिस्तान से शुरू होकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक होती हुई भारत तक आएगी| रूस कराची की पुरानी स्टील मिलों का भी नवीकरण करने को तैयार है| उसने उसामा-कांड में पाकिस्तान की टांग-खिंचाई भी नहीं की है| ऐसे में यदि आसिफ ज़रदारी चाहे तो वे रूस के साथ सहयोग के नए आयाम खोल सकते हैं, जिनके साथ भारत को भी जुड़ने में कोई झिझक नहीं होगी|
जहां तक प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गिलानी की चीन-यात्रi का प्रश्न है, आज तक जितने भी पाकिस्तानी नेताओं की चीन-यात्रएँ हुई है, उनका एक मात्र् लक्ष्य रहा है, भारत-विरोध ! उसामा-कांड में चीनी सरकार ने पाकिस्तान की सिर्फ वाहवाही ही नहीं की है, चीनी अखबारों ने भारत पर कटु आक्षेप भी किए हैं| अमेरिका और भारत को उन्होंने एक ही डंडे से हांकने की कोशिश की है| चीन के सिंक्यांग प्राच के मुसलमानों के बीच चल रही जिहादी गतिविधियों को चीन सिर्फ इसलिए नज़रअदांज कर रहा है कि वह पाकिस्तान को भारत के विरोध में अपने मोहरे की तरह इस्तेमाल करता रहता है| चीन को यह डर भी है कि भारत कहीं अमेरिका के साथ मिलकर उसे चोट पहुंचाने की कोशिश न करे| चीन-पाक घनिष्टता की जड़ में भारत-भय ही है| इस भारत-भय के कारण चीन कहीं पाकिस्तान को भस्मासुर न बना दे| इस नाजुक मौके पर पाकिस्तान के नेता रूस और चीन के साथ अपने आर्थिक संबंध घनिष्ट बनाएं तो बहुत अच्छा है| वह भारत के लिए भी लाभप्रद होगा लेकिन यदि वे इन राष्ट्रों से बढ़ रहे अपने संबंधों का इस्तेमाल भारत के विरोध में करेंगे तो दक्षिण एशिया में अब जबर्दस्त कोहराम मचेगा, क्योंकि पाकिस्तान की फौज और सरकार अब पूरी तरह निवर्सन हो चुकी है| पाकिस्तान के प्रति नरम रवैए को न तो अब अमेरिकी जनता बर्दाश्त करेगी और न ही भारतीय जनता !
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