नवभारत टाइम्स, 05 फरवरी 2004 : कहने को कह दिया जाता है कि बकरे की मॉं कब तक खैर मनाएगी लेकिन बकरीद के बावजूद हमारे दक्षिण एशियाई बकरे को घबराने की जरूरत नहीं है| अमेरिकी प्रशासन के प्रवक्ता ने कह दिया है कि बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय ! पाकिस्तान ने परमाणु-बम की तकनीक और कल-पुर्जे बेचने का जो गंभीर अन्तरराष्ट्रीय अपराध किया है, उसकी सजा इतनी भयंकर हो सकती थी कि उसके आगे तालिबान और सद्दाम भी पनाह मॉंगने लगते लेकिन बुश प्रशासन अपने बकरे को कुरबान करने के लिए तैयार नहीं है| अमेरिकी प्रशासन ने मुशर्रफ की तारीफ की है कि उन्होंने अपने ही वैज्ञानिकों और अफसरों के खिलाफ जॉंच बैठा दी है और जैसे वे तालिबान के उच्छेदन में जी-जान से अमेरिका का साथ दे रहे हैं, वैसे ही परमाणु-अप्रसार में भी वे सराहनीय भूमिका निभा रहे हैं| इस अमेरिकी रवैए का परिणाम क्या होगा? पहला, राजनीतिक दृष्टि से मुशर्रफ के हाथ मजबूत होंगे| दूसरा, कलंक का सारा टीका परमाणु-वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल क़दीर खान के माथे मढ़ दिया जाएगा| तीसरा, पाकिस्तान को कोई सजा नहीं मिलेगी|
मुशर्रफ और खान का भवितव्य जो भी हो, यह जरूरी है कि इस विश्व-अपराध के लिए पाकिस्तान को सजा मिले| ईरान, लीब्या और उत्तर कोरिया (तथा शायद एराक़ भी) को परमाणु-रहस्य बेचकर पाकिस्तान सारी दुनिया को बारूद के ढेर के ज्यादा नज़दीक खींच लाया है| बुश ने एराक़ समेत इन्हीं देशों को ‘शैतान की ऑंत’ कहा था| इन शैतानों को शैतान बनानेवाला महाशैतान कौन है? क्या पाकिस्तान नहीं, जिसने पहले हॉलैंड और यूरोप के अन्य देशों से परमाणु तकनीक चुराई, अपने वैज्ञानिकों को इस चोरी के लिए प्रोत्साहित किया और फिर अरबों रुपए खर्च करके तस्करी के जरिए अलग-अलग देशों से परमाणु-बम के कल-पुर्जे मॅंगवाए| यह रुपया कहॉं से आया? सउदी अरब, लीब्या, संयुक्त अरब अमारात और एराक़ से भी आया| क्यों आया? इस्लामी बम के नाम पर ! इस्राइल के संभावित बम की टक्कर में इस्लामी जगत को बम की जरूरत थी| पाकिस्तान ने इस्लाम को भी नहीं बख्शा| इस्लाम के नाम पर पहले उसने एक नकली राष्ट्र खड़ा कर लिया और अब उसी के नाम पर बम भी बना लिया| अगर इस्लाम ही बम की प्रेरणा था तो सद्दाम का एराक़ तो कभी इस्लामी नहीं रहा और उत्तर कोरिया का इस्लाम से क्या लेना-देना था? इन दोनों राष्ट्रों को उसने क्यों दुहा? सिर्फ इसलिए कि इन भोले राष्ट्रों से मिली धनराशि को वह पानी की तरह बहा सकता था| उसका असली निशाना तो भारत था| पाकिस्तान ने परमाणु-निगरानी रखनेवाली अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं की ऑंख में धूल झोंककर बम तो बना लिया लेकिन बम की तकनीक को फैलाने का जैसा संगीन गुनाह उसने किया, किसी भी अन्य परमाणु बमधारी राष्ट्र ने नहीं किया| परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं करना एक बात है और उसके परखचे उड़ा देना, दूसरी बात है| इस दूसरी बात की सजा अगर पाकिस्तान को नहीं मिली तो 21वीं सदी में इस दुनिया के खत्म होने का अंदेशा पैदा हो जाएगा| पैसों के लालच में पता नहीं कौन-कौन-सी परमाणु तकनीकें और रहस्य किन-किन देशों तक पहॅुंच जाऍंगे| पूर्व सोवियत संघ के गणतंत्रों में भंडारित परमाणु शस्त्रास्त्र और स्वयं पाकिस्तान जैसे अस्थिर देशों के परमाणु बम पता नहीं किन आतंकवादियों, किन तस्करों, किन गुण्डा-गिरोहों के हाथ में पड़ जाऍंगे और अगर उन्हें भूल से भी किसी तालिबान, किसी फलस्तीन, किसी कुर्द ने चला दिया तो हमारी वर्तमान सभ्यता राख के ढेर में बदल जाएगी| इसीलिए पाकिस्तानी जुर्म की जिम्मेदारी चाहे जिसकी हो और अमेरिका जिसे चाहे, उसे बचाने की कोशिश करे लेकिन संपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय समुदाय का यह कर्तव्य है कि वह पाकिस्तान से परमाणु तकनीक, परमाणु बम, परमाणु-ऊर्जा का नामो-निशान ही मिटा दे| संयुक्तराष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके पाकिस्तान के संपूर्ण परमाणु-संस्थान को अपने कब्जे में ले ले और यह देखे कि बन्दर के हाथ में उस्तरा दुबारा न लौटे| इतनी सज़ा काफी है| पाकिस्तान के विरुद्घ वैसे प्रतिबंध लगाने की जरूरत नहीं, जैसे सद्दाम या तालिबान के विरुद्घ लगाए थे|
यदि अमेरिका ऐसी पहल नहीं करता तो माना जाएगा कि उसका परमाणु-अप्रसार अभियान शुद्घ ढोंग था| कुछ हद तक वह ढोंग है, यह तो इसी से सिद्घ हो जाता है कि उसके अभिन्न मित्र-देशों की संस्थाओं ने पाकिस्तान को बम-बनाने की तकनीक और कल-पुर्जे चोरी-छिपे दिए और अमेरिका ने उनके विरुद्घ कोई कार्रवाई नहीं की| भारत सरकार ने अब से 15 साल पहले ही इस भयंकर अपराध में लिप्त पाकिस्तानी वैज्ञानिकोंें और सरकारों के बारे में शोर मचा दिया था| सी.आई.ए. ने भी अपनी रपट में वे तथ्य स्वीकार किए थे लेकिन तब अमेरिकियों को रूसियों के विरुद्घ अफगानिस्तान में लड़ने के लिए पाकिस्तानी मोहरे की जरूरत थी और अब उन्हें तालिबान के विरुद्घ उसकी जरूरत है| अमेरिका के लिए अपनी जरूरत बड़ी चीज़ है या विश्व-रक्षा, यह उसे स्वयं तय करना होगा|
जहॉं तक पाकिस्तान का सवाल है, वह अब दूसरी बार बड़ी मुसीबत में फॅंस गया है| जिन तालिबान को उसने निज़ामे-मुस्तफा का अलम बरदार बनाया था, उन पर अमेरिका की गाज़ गिरी और पाकिस्तान रातों-रात पल्टा खा गया| वह इस्लामी जगत का सबसे बड़ा जोकर बन गया| अब उसे अपने महानायक डॉ. अब्दुल कादिर खान का भुर्ता बनाना पड़ेगा| अपने परमाणु-अपराध का सारा ठीकरा डॉ. खान के माथे फोड़ा जा रहा है| प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार पद से उनका इस्तीफा तो हो ही चुका है, अब पाकिस्तानी अखबार और टी.वी. चैनल जनता को यह बता रहे हैं कि डॉ. खान ने करोड़ों-अरबों रु. की सम्पत्ति जमा कर ली है, अपनी डच पत्नी हेंडि्रना के नाम से अफ्रीका के टिम्बकटू में आलीशान होटल बनवाया है, लंदन में कई महल खड़े किए हैं और अपने पूर्व दामाद को अनेक अन्तरराष्ट्रीय ठेके दिलवाए हैं| पैसे के लालच में उन्होंने परमाणु तकनीक और कल-पुर्जे कई देशों में बेच दिए हैं| जिसकी तस्वीर क़ायदे-आज़म जिन्ना के समकक्ष लगने लगी थी, आज उसी पाकिस्तानी महानायक को अन्तरराष्ट्रीय अपराध की चौखट में जड़ दिया गया है| लेकिन खान साहब चुप बैठनेवाले नहीं हैं| उन्होंने जॉंचकर्ताओं से कहा है कि पाकिस्तानी फौज के सर्वोच्च सेनापति और प्रधानमंत्र्िागण भी पूरी तरह जिम्मेदार हैं| उन्होंने मिर्ज़ा असलम बेग, जहॉंगीर करामत और मुशर्रफ के अलावा बेनज़ीर भुट्टो का नाम भी लिया है| उनका कहना है कि इन सबको एक साथ बैठाया जाए और उनसे सवाल पूछे जाऍं| पाकिस्तानी सरकार की दुविधा यह है कि उसे अमेरिका और पाकिस्तान की जनता, दोनों को खुश करना है| यदि वह डॉ. खान को फॅंसाएगी और उनको सज़ा देगी तो अमेरिका चुप हो जाएगा लेकिन पाकिस्तान की जनता नाराज़ हो जाएगी| इस्लामी नेता काज़ी हुसैन अहमद ने डॉ. खान के पक्ष में आम हड़ताल का आह्रवान किया है और 10 लाख लोगों का जुलुस निकालने की धमकी भी दी है| पाकिस्तान अस्थिरता के नए दौर में प्रवेश कर रहा है| यदि अमेरिका उसे डगमगाने या धराशायी होने से बचाना चाहता है तो पाकिस्तानी परमाणु-संस्थान पर अन्तरराष्ट्रीय कब्जा सबसे बड़ा पेन-किलर है| यह महाऔषधि ज्यो ही पाकिस्तान की नसों में प्रविष्ट हुई कि वह अब्दुल क़दीर और मुशर्रफ के झगड़े को भूल जाएगा|
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