NavBharat Times, 06 Oct 2007 : भारत क्या करे? अपने राष्ट्रहितों की रक्षा करे या पड़ोसी देशों में लोकतंत्र की रक्षा करे? अपना राष्ट्रहित बड़ा है या दूसरों कालोकतंत्र? भारत के चारों तरफ लोकतंत्र लहूलुहान हुआ पड़ा है और भारत ने अपने होंठ सिले हुए हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का दुखड़ा यह है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा जैसे बड़े पड़ोसियों की छाती पर सेना सवार है और नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान जैसे देशों में लोकतंत्र तो है, लेकिन वह अधर में लटका हुआ है। अफगानिस्तान से अगर अन्तरराष्ट्रीय फौजें हट जाएं तो वहां का लोकतंत्र तालिबानतंत्र में बदल सकता है। भारत के पड़ोस की इस स्थिति को देखकर क्या यह भी नहीं लगता कि दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र भी अपने पड़ोसियों पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता? क्या दीये तले अंधेरा नहीं हो रहा है?
इसका मूल कारण है हमारा पंचशील का सिद्धांत! दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे, यह हमारी विदेश-नीति का प्रमुख स्तम्भ है। इसीलिए बर्मा में बेकसूर बौद्ध भिक्षु मर रहे हैं या जी रहे हैं, पाकिस्तान में नवाज शरीफ को घुसने दिया जा रहा है या नहीं, नेपाल में माओवादी ब्लैकमेल कर रहे हैं या नही, श्रीलंका में लिट्टे सरकार को चैन लेने दे रहा है या नहीं, इन सवालों से हमें कोई मतलब नहीं, हमारी सरकार ‘आ बैल सींग मार’ क्यों करे? हमारी बयानबाजी से बर्मा के फौजी गिरोह के दिल में दया का दरिया बहने लगेगा या मुशर्रफ पसीज जाएंगे या माओवादी शराफत से पेश आएंगे, यह सोचना बालू में से तेल निकालना है। बल्कि उलटा ही होगा। यदि हमने टांग अड़ाई तो इन देशों की सरकारों के साथ भारत सरकार के जो सहज संबंध हैं, वे भी खटाई में पड़ जाएंगे। जरा याद करें, 1993 में जब बर्मा की नेता सू की को नेहरू सम्मान दिया गया तो क्या हुआ? बर्मी फौज ने हमारे बागियों पर से अपना शिकंजा एकदम ढीला कर दिया। इंदिरा गांधी ने नेपाल के लोकतंत्रवादियों के प्रति ज्यों ही सहानुभूति दिखाई, नेपाल के तत्कालीन नरेश ने भारत-विरोधी कूटनीति शुरू कर दी। श्रीलंका के तमिलों की सरकार ने थोड़ी मदद शुरू की तो तत्कालीन जयवर्धने सरकार ने अमेरिका, पाकिस्तान और इसाइल को रियायतें देनी शुरू कर दीं। पड़ोसी देशों की सरकारें कितनी ही कमजोर हों, यदि उन्हें भारतीय हस्तक्षेप का जरा सा भी संदेह हो जाए तो वे सारी दुनिया में शोर मचाना शुरू कर देती हैं। तब दुनिया भी यह नहीं सोचती कि भारत अपने पड़ोसी देशों में लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है। उसका सोच केवल शक्ति-गणित पर आधरित हो जाता है। लोकतंत्र की सिद्धांतवादिता कातत्व गायब हो जाता है। वे भी कहने लगते हैं, ताकतवर भारत अपने कमजोर पड़ोसियों का गला दबा रहा है। फिजूल की बदनामी न हो, इसीलिए भारत चुप रहना पसंद करता है।
कभी-कभी जब भारत चुप रहता है, दूर बसे हुए बड़े राष्ट्र काफी शोर मचाते हैं। जैसे आजकल बर्मा को लेकर अमेरिका और यूरोप के राष्ट्र मचा रहे हैं। उनका क्या बिगड़ता है? कुछ नहीं। लेकिन भारत के राष्ट्रहित तो दांव पर लग जाते हैं। बर्मा के साथ भारत की सीमा 1300 किलोमीटर लंबी है। भारत की नजर बर्मा के तेल और गैस के भंडारों पर है। बर्मी सीमांत पर सक्रिय नगा और मिजो बागियों से निपटने के लिए भारत को बर्मी फौज की सहायता चाहिए। इसके अलावा बर्मा की सरकार को नाराज करने का मतलब है, भारत की नाक के नीचे चीनी और पाकिस्तानी घोंसले उगा लेना। भारतीय सुरक्षा को यह सीधा खतरा है। ऐसे में भारत क्या करें?
यहां भारत का अर्थ केवल सरकार नहीं है। सरकार का संकोच समझ में आता है। उसे हर कदम फूंक-फूंककर रखना होगा। काठमांडू, थिम्पू, इस्लामाबाद, ढाका वगैरह में जो भी काबिज होगा, उससे उसे बात करनी पड़ेगी और जब तक उसके हितों को चोट नहीं पहुंचती, बातें भी मीठी-मीठी ही करनी पड़ेंगी। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि पड़ोसी राष्ट्रों की जनता के हितों की उपेक्षा वह कब तक कर सकती है? क्या बांग्लादेश इसी उपेक्षा का परिणाम नहीं था? 24 साल तक हम पूर्वी पाकिस्तान की जनता पर किए गए अत्याचारों की उपेक्षा करते रहे। नतीजा क्या हुआ? 1971 में हमें युद्ध लड़ना पड़ा, लाखों शरणार्थियों काबोझ झेलना पड़ा और पड़ोसियों की नजर में ‘खूंखार’ दिखना पड़ा। हम हस्तक्षेप करने से बराबर बचते रहते हैं, लेकिन आखिरकार हमें खुद को झोंकना ही पड़ता है। यह भारत की नियति है। नेपाल-नरेश त्रिभुवन को काठमांडू से निकालने के लिए हमें फौजी इंतजाम करना पड़ा, श्रीमावो भंडारनायक को 1971 में फौजी तख्ता-पलट से बचाने के लिए हेलिकॉप्टर भेजने पड़े, 1998 में गय्यूम के तख्ता-पलट को सुलटाने के लिए सीधा फौजी हस्तक्षेप करना पड़ा, श्रीलंका में जयवर्धने के अनुरोध पर तथाकथित ‘शांति सेना’ भेजनी पड़ी। आज भी अगर बर्मा और पाकिस्तान में जन-आंदोलन बेकाबू हो जाएं तो लाखों लोग भागकर भारत ही आएंगे। भारतीय विदेश नीति की यह शाश्वत विवशता है। भारत के पड़ोसी यूरोप या अमेरिका के पड़ोसियों की तरह नहीं हैं। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक लगभग वे सभी भारत के अभिन्न अंग थे। वे अब भी सांस्कृतिक, आर्थिक और भौगोलिक रूप से बृहत भारत परिवार के अंग ही हैं। इन अंगों की बीमारियों का अगर वह अपनी बीमारी समझकर इलाज नहीं करेगा तो किसी न किसी दिन उसे अपनी शल्य चिकित्सा के लिए तैयार रहना होगा।
इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत सरकार उसी तरह के मूर्खतापूर्ण सैन्य हस्तक्षेप शुरू कर दे, जैसे वियतनाम और इराक में अमेरिकी सरकार ने किए हैं। लेकिन वह कम से कम यह तो कर सकती है कि भारत में उन तत्वों को बढ़ावा दे, जो पड़ोसी देशों में लोकतंत्र के पक्षधर हैं। सरकार अपना काम करे लेकिन वह देश को अपना काम करने दे। पड़ोसी देशों की जनता हमारी सरकार की मजबूरियां समझ सकती है, लेकिन वह यह भी जाने कि भारत की सरकार उनकी सरकार के साथ है, तो भारत की जनता उनकी जनता के साथ है। पड़ोसी देशों के लोकतांत्रिक दलों को यदि भारत सरकार गुपचुप बढ़ावा दे, तो यह सोने में सुहागा होगा। इन देशों में लोकतंत्र जितना मजबूत होगा, वहां शांति, स्थिरता और प्रगति उतनी ही तेज होगी। भारत के राष्ट्रहितों की रक्षा स्वत: होती रहेगी।
( लेखक विदेश मामलों के विशेषज्ञ हैं)
Leave a Reply