मूल प्रश्न यह नहीं है कि भारत के प्रति अमेरिका के नए राष्ट्रपति ओबामा की नीति क्या होगी ? बल्कि यह है कि पाकिस्तान के प्रति उनकी नीति क्या होगी ? क्या ओबामा 60 साल से चले आ रहे भारत-पाक नकली शक्ति-संतुलन को खत्म कर सकेंगे ? भारत और अमेरिका के बीच कभी कोई सीधा अन्तर्विरोध कभी रहा ही नहीं| ये दोनों राष्ट्र एक-दूसरे के सबसे गहरे मित्र् होकर रह सकते थे लेकिन इस मैत्री के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा पाकिस्तान बन गया| शीत-युद्घ की मजबूरियों के कारण अमेरिका को उस पाकिस्तान को गले लगाना पड़ा, जो सोवियत संघ के दक्षिणी द्वार पर बैठा हुआ था| अमेरिका-जैसे लोकतांत्रिक देश ने एक सामंती, तानाशाही और पीछेदेखू देश को अपना मोहरा इसीलिए बनाया कि उसे सोवियत संघ को घेरना था| तुर्की, ईरान और पाकिस्तान को मिलाकर उसने अपने लिए एक रक्षा-कचव खड़ा कर लिया| पाकिस्तान-जैसे छोटे-से देश में डॉलरों और हथियारों का अंबार लगाकर अमेरिका ने उसे भारत जैसे विशाल राष्ट्र के मुकाबले खम ठोकने के लिए खड़ा कर दिया| दक्षिण एशिया में शुरू हुए इस नकली शक्ति-संतुलन का खेल अब तक चल रहा है| सोवियत संघ के विघटन के बाद इसे खत्म हो जाना चाहिए था| यह वाकई दम तोड़ने लगा था लेकिन इसी दौर में अफगानिस्तान में तालिबान आ गए| तालिबान काबुल से भागे और ‘आतंकवाद के विरूद्घ’ युद्घ आ गया| पाकिस्तान को छोड़ते-छोड़ते अमेरिका ने फिर पकड़ लिया| फिर से डॉलरों और हथियारों की वर्षा होने लगी| पिछले आठ साल में पाकिस्तान 70 हजार करोड़ रू. की अमेरिकी मदद डकार गया| अरबों रू. के हथियार उसे आतंकवादियों से लड़ने के लिए मिलते रहे| ऐसे हथियार, जिनका प्रयोग आतंकवादियों के विरूद्घ हो नहीं सकता| कुल मिलाकर शीत युद्घ के ज़माने का नकली शक्ति-संतुलन दक्षिण एशिया में फिर लौट आया| इसे 1998 के परमाणु-विस्फोट ने ज्यादा मजबूत बनाया| पाकिस्तान का परमाणु-विस्फोट भी अमेरिका और चीन की अवैध संतान ही है| भारत कहता है कि वह आगे होकर परमाणु शस्त्र् नहीं चलाएगा लेकिन पाकिस्तान के नेता और फौजी बात-बात में परमाणु-हमले की धमकी देते हैं| ओबामा लाख कहें कि भारत को आत्म-रक्षा का पूरा अधिकार है और कबाइली छापामारों को अमेरिकी फौजें अंदर घुसकर मारेंगी लेकिन असलियत क्या है ? असलियत यह है कि पाकिस्तान निश्चिंत है| पाकिस्तान को पता है कि केनेडी हो या निक्सन, क्लिंटन हो या बुश, रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, अमेरिका का हर राष्ट्रपति उसके सिर पर छतरी ताने रहता है| ओबामा इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं ? 1971 में निक्सन ने भारत को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपना युद्घपोत ‘एंटरप्राइज़’ भेज दिया था और करगिल युद्घ के दिनों में भारत की लगाम खींचने में क्लिंटन ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी| और बुश ने अपने आठ साल में क्या किया ? वह लगातार मुशर्रफ से ठगाते रहे| अमेरिकी करदाताओं के अरबों डॉलर उन्होंने पाकिस्तान और अफगानिस्तान में डुबो दिए| फौज का तुष्टिकरण करते रहे और तालिबान को मजबूत बनाते गए| अब जबकि मुंबई हमला हो गया, बुश प्रशासन ने क्या किया ? जाते-जाते बुश की विदेश मंत्री कंडोलीज़ा राइस भारत के विदेश मंत्री को बोल रही हैं कि ज़रा अपनी सहनशीलता बनाए रखिए| ये बात राइस ने ओबामा से सलाह करने के बाद ही कही है| ओबामा के तदर्थ प्रशासन ने पाकिस्तान की गैर-फौजी मदद को तीन-गुना बढ़ाने की घोषणा की है| ओबामा भी बुश की फिसलपट्टी पर चढ़ गए हैं| मुंबई-कांड हुए पौने दो माह बीत गए लेकिन पाकिस्तान का रवैया क्या है ? कभी हॉं, कभी ना और सदा टालमटोल का ! यदि पाकिस्तान की पीठ पर अमेरिका हाथ नहीं होता तो क्या पाकिस्तान की फौज और नेतागण ऐसी हिमाकत कर सकते थे ?
यदि अमेरिका आज भी पाकिस्तान को अपने हाल पर छोड़ दे तो पाकिस्तान को एक सभ्य और संयत राष्ट्र की तरह बर्ताव करने में ज़रा भी देर नहीं लगेगी| पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारें अक्सर महज़ कठपुतलियां साबित क्यों होती हैं ? पाकिस्तान का प्रखर नागरिक समाज हमेशा गूंगा-बहरा क्यों सिद्घ होता है ? सरकार और जनता की छाती पर फौज हमेशा क्यों सवार रहती है ? इसीलिए कि अमेरिका दक्षिण एशिया में नकली शक्ति-संतुलन बनाए रखना चाहता है| फौज की मांसपेशियों को फुलाए बिना इस नकली खेल को चलाए रखना असंभव है| फौज ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दो स्थायी भूत खड़े कर रखे हैं| एक कश्मीर का और दूसरा ‘इस्लाम खतरे में है’ का ! अब दूसरे भूत की कोई परवाह नहीं करता लेकिन हमारे भौंदू अमेरिकी नीति-निर्माता कश्मीरी भूत को अभी तक पकड़े हुए हैं| ओबामा भी चाहते हैं कि कश्मीर के लिए कोई मध्यस्थ नियुक्त कर दें| इसी बात से आप समझ सकते हैं कि भारत-पाक मामलों में ओबामा की पकड़ कैसी है ? ओबामा के विचारों की प्रतिध्वनि बि्रटेन के विदेशमंत्री डेविड मिलिबन्ड के अफलातूनी बयानों में भी हुई हैं| यदि ओबामा भी उसी रास्ते पर चले तो भारत की प्रतिकि्रया क्या होगी, यह बताने की जरूरत नहीं है| वर्तमान भारत सरकार कितनी ही अमेरिकापरस्त हो, भारत की जनता उसे अमेरिका या किसी भी महाशक्ति का दुमछल्ला नहीं बनने देगी| भारत पाकिस्तान नहीं है|
अफगानिस्तान में भी अमेरिकी फौजियों की संख्या बढ़ाकर ओबामा तालिबान का हल ढूंढ रहे हैं| उनसे ज्यादा व्यावहारिक सोच तो नाटो कमांडर जनरल डेविड पेटे्रयस का है, जो अफगानिस्तान के क्षेत्रीय समाधान की बात कर रहे हैं| क्या दक्षिण एशिया में कोई क्षेत्रीय समाधान भारत की अगुवाई के बिना हो सकता है ? क्षेत्रीय महाशक्ति होने के नाते भारत की जो स्वाभाविक भूमिका है, उसे तब तक मान्यता नहीं मिल सकती, जब तक कि पाकिस्तान का नक़ली फुगावा पंचर नहीं किया जाए| यदि अमेरिका दक्षिण एशिया में अपनी भूमिका सिर्फ आर्थिक सहयोग तक सीमित कर ले तो न केवल पाकिस्तान में लोकतंत्र् की स्थापना हो जाएगी बल्कि भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मिलकर आतंकवाद को भी उखाड़ फकेंगे| यदि ओबामा पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तरह नकली शक्ति-संतुलन का खेल खेलते रहे तो भारत के साथ उनके संबंध सहज नहीं रह पाएंगे और पाकिस्तान की ठग-विद्या अमेरिका को रसातल में पहुंचा देगी|
Leave a Reply