दैनिक भास्कर (नई दिल्ली), 25 जनवरी 2010 | बराक हुसैन ओबामा के एक साल में ऐसा क्या कर दिया कि उनकी लोकपि्रयता का ग्राफ 80 से गिरकर 50 के आस-पास आ गया है ? ऐसा तो प्राय: तभी होता है, जब कोई राष्ट्रपति वाटरगेट में फंस जाए या ल्यूंस्की मामले में उलझ जाए या वियतनाम और एराक़ में पटकनी खा जाए| ओबामा के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ है| फिर भी अमेरिका के कई राजनीतिक पंडित निराशाजनक भविष्यवाणियाँ कर रहे हैं| उनका मानना है कि ओबामा का पिछले एक साल का रेकार्ड इतना मटमैला है कि वे दुबारा राष्ट्रपति नहीं बन पाएँगे| दूसरे शब्दों में वे अगले तीन सालों में भी कुछ खास नहीं कर पाएँगे| मेसे चुसेठस की ताजा-ताजा हार ने ओबामा को जर्बदस्त झटका दिया है| 47 साल में यह सीट डेमाक्रेट टेड कैनेडी के पास थी| रिपब्लिकन स्काट ब्राउन की जीत को ओबामा की हार माना जा रहा है|
ओबामा को लेकर निराशा का यह माहौल खास तौर से इसलिए बन गया है कि चुनाव-अभियान के दौरान उन्होंने आशा की अपूर्व लहर उठा दी थी| इसी लहर पर सवार होकर पहले उन्होंने अपनी ही पार्टी की हिलैरी क्लिंटन को हराया और फिर रिपब्लिकन पार्टी के मेककैन को दिन में ही तारे दिखा दिए| बुश के कारनामों ने अमेरिका को मंदी के दौर में झोंक दिया था, एराक और अफगानिस्तान में एक साथ फंसा दिया था और सारी दुनिया में अमेरिका की छवि गिरा दी थी| अमेरिकी मतदाताओं को लगा कि यह 47 वर्षीय उम्मीदवाद अधिक उत्साही, अधिक सुसंस्कृत, अधिक पढ़ा-लिखा और अधिक जिम्मेदार राष्ट्रपति होगा| वह पहला अश्वेत राष्ट्रपति होगा| इसका असर अमेरिका के अल्पसंख्यकों पर तो होगा ही, सारे विश्व में भी अमेरिका की छवि सुधरेगी| अब एक साल बाद उन्हें निराशा हो रही है तो इसका कारण वे स्वयं हैं, क्योंकि उन्होंने ओबामा को ‘अतिमानव’ समझ लिया था|
ओबामा अगर वास्तव में ‘अतिमानव’ भी होते तो क्या कर लेते ? अमेरिका की आर्थिक दुखस्था इतनी गहरी है और विश्व राजनीति इतनी जटिल है कि ऐसी चीजें किसी जादू-टोने से ठीक नहीं की जा सकती हैं| यह क्या कम बड़ी बात है कि बुश जैसी अर्थ-व्यवस्था छोड़ गए थे, वह उससे नीचे नहीं गिरी है| बेरोजगारी 10 प्रतिशत पर टिकी हुई है, डॉलर का अवमूल्यन नहीं हुआ है, लोग अमेरिका छोड़कर भाग नहीं रहे हैं| पिछले साल जनवरी में शपथ लेते ही ओबामा ने 787 बिलियन डॉलर का प्रोत्साहन पैकेज काँग्रेस से पास करवाया ताकि आम लोगों को सीधी राहत मिले| बैंकों और मोटर कार कंपनियों को दीवालिया होने से बचाया, मकानों की मंदी को संभाला और नए रोजगार पैदा करने की कोशिश की| उन्होंने अमेरिका के इतिहास में पहली बार ऐसी पहल की है कि जिसके कारण अब कोई भी अमेरिकी नागरिक इलाज़ के अभाव में मरने को मजबूर नहीं होगा| अमेरिका की चिकित्सा इतनी मंहगी है कि लाखों गरीब और अश्वेत नागरिक उसका सपना तक नहीं देख सकते| इस पूजीवादी मरूस्थल में ओबामा ने करूणा के फूल खिलाए हैं| इन फूलों की खुशबू जब फैलेगी तो क्या निराशा के बादल छंटने नहीं लगेंगे ?
ओबामा कोई महात्मा गांधी नहीं हैं कि अमेरिकियों को सादगी और त्याग के लिए प्रेरित कर सकें लेकिन उसी भोगवादी संस्कृति की संतान होने के बावजूद ओबामा ऐसी नीतियॉं बना रहे हैं कि अमेरिका का प्रदूषण थोड़ा कम हो| जंगल कम कटें, मोटरें धुआं कम फेंकें, ऊर्जा का इस्तेमाल ठीक से हो और अमेरिका की सैन्य-औद्योगिक व्यवस्था भी न चरमराए| राष्ट्रपति के पद पर बैठने के बाद ओबामा को अपने वामपंथ को पतला जरूर करना पड़ा है लेकिन बुश की तरह उन्होंने अमेरिकी भोगवाद का खम नहीं ठोका है| बुश की तरह क्योतो प्रोटोकॉल को उन्होंने भी स्वीकार नहीं किया है लेकिन कोपेनहागेन में उन्होंने प्रदूषण से लड़ने के लिए विकासमान राष्ट्रों को 100 बिलियन डॉलर देने की घोषणा की है|
इसमें शक नहीं है कि विदेश नीति के क्षेत्र् में भी ओबामा को कोई चमत्कारी सफलता नहीं मिली है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि बुश की दुनिया से ओबामा की दुनिया काफी अलग है| दुनिया के मुसलमानों के नाम दिया गया ओबामा का काहिरा-भाषण अपने आप में एतिहासिक था| उसके बावजूद अल-क़ायदा, तालिबान, उसामा और मुल्ला उमर आदि ओबामा को गालियाँ देने से बाज़ नहीं आते लेकिन दुनिया के औसत मुसलमानों का रवैया उनके लिए वह नहीं है, जो बुश के लिए था| यह ठीक है कि अपने चुनावी वायदे के मुताबिक ओबामा ग्वांटेनामो का यंत्र्णा-केंद्र बंद नहीं करवा पाए लेकिन यंत्र्णा पर नियंत्र्ण अवश्य हुआ है| जहां तक एराक का सवाल है, अप्रैल 2009 में वे खुद अचानक वहां पहुंच गए और बाद में उन्होंने घोषणा की कि अगस्त 2010 में सारी अमेरिकी फौजों की वापसी हो जाएगी| हम जरा कल्पना करें कि अब से सात माह बाद अमेरिका में कैसी खुशी का माहौल होगा| इसी प्रकार जुलाई 2011 में अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें वापस होंगी| अगर सचमुच वैसा हो तो क्या ओबामा महानायक नहीं बन जाएंगे ? उन्हें जल्दबाजी में मिला नोबेल पुरस्कार क्या सार्थक नहीं हो जाएगा ? यह ठीक है कि अफगानिस्तान का मामला एराक के मुकाबले ज्यादा उलझा हुआ है और अमेरिकी वापसी के बाद वह और भी ज्यादा उलझ सकता है लेकिन डेढ़ साल का समय काफी होता है| इस दौरान ओबामा अफगानिस्तान और दक्षिण एशिया की भविष्य-योजना भी भली-भांति बना सकते हैं| ओबामा प्रशासन को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने पाकिस्तान को ब्लैंक चेक नहीं दिया है| पहली बार अमेरिकी सरकार ने उससे कहा है कि यदि वह तालिबान से लड़कर नहीं दिखाएगा तो उसकी मदद रोक दी जाएगी| भारत के साथ बुश के संबंध घनिष्टतम थे लेकिन ओबामा ने उन्हें विरल नहीं होने दिया है| चीन के साथ घनिष्टता स्थापित करना ओबामा की मजबूरी है लेकिन उसका असर भारत पर नहीं पड़ेगा, यह निश्चित है| यह ठीक है कि ईरान और उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम का मामला अभी भी उलझा हुआ है लेकिन बुश-काल के मुकाबले अभी तनाव कम है और संवाद जारी है| इस्राइल-फलस्तीन गांठ भी ढीली नहीं पड़ी है लेकिन अमेरिकी प्रयत्नों में ढील नहीं है| हैती में आए भूकंप पर ओबामा प्रशासन ने जो मुस्तैदी दिखाई है, उसके कारण दुनिया में अमेरिका की छवि बेहतर बनी है| रूस के साथ अभी तक परमाणु निरस्त्र्ीकरण की नई संधि पर ठोस प्रगति नहीं हुई है लेकिन अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका को उसका सहयोग मिल रहा है| कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ओबामा का यह पहला एक साल चमत्कारी चाहे न रहा हो, बुरा नहीं रहा ! अभी ओबामा से एकदम निराश क्यों हुआ जाए ?
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