राष्ट्रीय सहारा, 31 मार्च 2009 : ओबामा की नई अफगानिस्तान-नीति में का स्वागत किया जाना चाहिए| इसके कई कारण हैं| पहला, जॉर्ज बुश के मुकाबले ओबामा की नीति अधिक व्यावहारिक है| जार्ज बुश ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमेरिकी खून और पैसे को जमकर बहाया लेकिन उसका कोई हिसाब नहीं माँगा| अपनी कुबार्नियों के बावजूद इन दोनों देशों में अमेरिका ज्यादा अलोकपि्रय हुआ| पाकिस्तान पर लगभग 12 अरब डॉलर और अफगानिस्तान पर करीब 125 अरब डॉलर खर्च (सैन्य और विकास) करने के बाद भी वहाँ आशा की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ रही है| बुश के सर्वोच्च अधिकारियों ने हमें यह बताया था कि अफगानिस्तान में वे लंबे समय तक टिके रहने को तैयार हैं| हमारे कुछ भोले पाक-अफगान विशेषज्ञों ने बुश की इस गोली को ज्यों का त्यों सटक लिया था| ओबामा ने इस नीति को उलट दिया है| उन्होंने कहा है कि हम अफगानिस्तान में आँख मींचकर पड़े नहीं रहेंगे याने अगर स्थिति नहीं सुधरी तो हमें उसे अपने हाल पर भी छोड़ सकते हैं| यह बहुत बड़ी चेतावनी है| इस चेतावनी से अफगानिस्तान और पाकिस्तान ही नहीं, भारत की भी नींद खुलनी चाहिए| ओबामा ने यह भी कहा है कि हम पाकिस्तान की गैर-फौजी सहायता को तिगुना कर देंगे याने डेढ़ अरब डॉलर प्रतिवर्ष लेकिन यह कोरा चेक नहीं है| इसमें डॉलर के साथ-साथ कुछ कठोर शर्ते भी भरी हुई हैं| मुख्य शर्त यह है कि अल-क़ायदा और तालिबान की कमर तोड़ने के लिए पाकिस्तान क्या कर रहा है ? यह यक्ष-प्रश्न है| इस प्रश्न पर बुश ने कभी डंडा नहीं फटकारा ! यदि आईएसआई और अल-क़ायदा की मिली-भगत को तोड़ दिया जाता तो आतंकवाद अफगानिस्तान और भारत में सिर नहीं उठा सकता था| अब ओबामा या तो इस मिली-भगत को भंग करवाएँगे या पाकिस्तान का हुक्का पानी बंद करेंगे|
ओबामा की नई अफगान-नीति का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यदि अल-क़ायदा और तालिबान के विरूद्घ जासूसी सुरागों के आधार पर पाकिस्तान कोई कार्रवाई नहीं करेगा तो अमेरिका सीधी कार्रवाई करेगा| ऐसी छोटी-मोटी कार्रवाई बुश प्रशासन के दौरान भी होती रही है लेकिन ओबामा ने इसे अपनी स्पष्ट नीति का जामा पहनाया है| दूसरे शब्दों में ओबामा ने उस ढोंग को चुनौती दी है, जिसे पाकिस्तानी नेता अपनी संप्रभुता कहते हैं| जिस देश में संप्रुभता उस देश के जासूसों और फौजियों के बूटों तले रौंदी जाती हो, उसे वास्तविक संप्रभु बनाने के लिए जरूरी है कि उसे हर क़ीमत पर आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाया जाए| यदि पाकिस्तान को आतंकवादियों और नक़ली भारत-भय से मुक्त कर दिया जाए तो वह अपने आप जासूसों और फौजियों के चंगुल से मुक्त हो जाएगा| उसकी संप्रभुता जनता और संसद में लौट जाएगी|
ओबामा ने पाकिस्तान को नक़ली भारत-भय से मुक्त होने की सलाह भी दी है| उन्होंने दोनों देशों के संबंध-सुधार को अफगानिस्तान के लिए जरूरी बताया है| यह उनकी अफगान-नीति का तीसरा बिंदु है| इसका एक अनकहा अर्थ यह भी है कि हे पाकिस्तानी नेताओं, आप ज्यादा बहानेबाजी मत कीजिए| भारत को भूलिए और अल-क़ायदा से भिडि़ए! अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्रों से पिछले 62 वर्षों में पाकिस्तान को जितनी भी सैन्य-सहायता मिली है, वह या तो साम्यवादी रूस या आतंकवादियों से लड़ने के लिए मिली है लेकिन उसका इस्तेमाल खास तौर से भारत के विरूद्घ किया गया है| क्या ओबामा इस पाक-नीति को उलटवा पाएँगे ?
ओबामा की अफगान-नीति का चौथा महत्वपूर्ण बिंदु है, क्षेत्रीय दृष्टिकोण ! बुश ने अब तक आतंकवाद के विरूद्घ पाकिस्तान को अपना मुख्य सिपहसालार बना रखा था| नाटो और अन्य देश तो काफी दूर-दराज़ के थे| पहली बार अमेरिका ने अफगानिस्तान के निकटवर्ती राष्ट्रों के महत्व को स्वीकार किया है| ओबामा ने रूस, चीन, भारत, मध्य एशियाई राष्ट्र, संयुक्त अरब अमारात और सउदी अरब का भी नाम लिया है| इनमें से कई राष्ट्र ऐसे हैं, जिन पर आतंकवाद का सीधा असर हो रहा है| लेकिन ये राष्ट्र अफगानिस्तान के लिए क्या करें, यह ओबामा ने नहीं बताया| जहाँ तक भारत का सवाल है, उसने अफगानिस्तान में जबर्दस्त सेवा-कार्य किया है| उसने अस्पताल, स्कूल, सड़कें, संचार-केन्द्र, बाँध – क्या-क्या नहीं बनाए हैं| वह संसद-भवन बना रहा है| उसने भूवेष्टित अफगानिस्तान को वैकल्पिक मार्ग दे दिया है, जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर| लगभग सवा अरब डॉलर खर्च कर दिए हैं| क्या ओबामा चाहते हैं कि अन्य निकटवर्ती राष्ट्र भी कुछ ऐसा ही करें ? जरूर करें लेकिन यह काफी नहीं है| जरूरी यह है कि अमेरिकी और नाटो फौजों को अफगानिस्तान से बिदा करने की भी ठोस योजना बनाई जाए| इसके दो हिस्से हो सकते हैं| एक तो निकटवर्ती राष्ट्रों की फौजे कुछ समय के लिए अफगानिस्तान में तैनात की जाएँ और दूसरा, अगले एक वर्ष में दो से तीन लाख जवानों की अफगान-फौज खड़ी कर दी जाए| क्या ओबामा इतनी दूरंदेशी दिखाएँगे ?
ओबामा का पाँचवाँ बिंदु है, अफगानिस्तान में अतिरिक्त 4000 अमेरिकी जवान तैनात करना ! 17000 कुछ दिन पहले किए थे अब चार हजार ! यह बहुत कम है| अमेरिकी कमांडरों ने 30 हजार जवान मांगे थे| सच्चाई तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय सेना (इसाफ) के पास इस समय कम से कम दो लाख जवान होने चाहिए ताकि वे आतंकवाद के हर स्रोत को रूंध दें| जब तक धुंआधार कार्रवाई नहीं होगी, तब तक आतंकवाद और आईएसआई के हौसले पस्त नहीं होंगे| ‘इसाफ’ की सेना में पड़ौसी राष्ट्रों के नए एक लाख सैनिक क्यों नहीं जोड़े जा सकते ? उन पर खर्च भी कम होगा और वे लड़ेंगे भी बेहतर ! इस सैन्य कार्रवाई की सफलता के लिए यह भी जरूरी है कि अफगान राष्ट्रपति ही उसका सर्वोच्च सेनापति हो| यह सैन्य कार्रवाई तभी सफल होगी, जब ओबामा अफगानिस्तान की आर्थिक सहायता को कम से कम 10 गुना बढ़ाएँ ! क्या यह विचित्र् नहीं कि पाकिस्तान की सहायता उन्होंने तीन गुना बढ़ा दी और अफगानिस्तान की सहायता जहाँ की तहाँ खड़ी है ? अफगानिस्तान के कमज़ोर राजनीतिक ढांचे को मजबूत बनाने के लिए कोई मौलिक दृष्टि ओबामा की नई घोषणा में होती तो बेहतर होता| ओबामा की नई अफगान-नीति में तात्कालिक व्यावहारिकता तो है लेकिन उसमें वह दूरंदेशी नहीं है, जिसके बूते पर अफगानिस्तान आत्मनिर्भर बन सकें और विदेशी फौजें वहां से कूच कर सकें|
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