Dainik Bhaskar, 14 April 2010 : अमेरिका की अफ-पाक नीति इतनी दिग्भ्रमित है कि वॉशिंगटन सम्मेलन में उसे पाक को ससम्मान बुलाना पड़ा। जो आतंकवाद का गढ़ व परमाणु चोरी के लिए दुनिया में कुख्यात राष्ट्र है, उसके प्रधानमंत्री का ह्वाइट हाउस में स्वागत करना कितनी बड़ी मजबूरी है। ईरान और उत्तरी कोरिया को दुत्कारना और पाकिस्तान को पुचकारना ओबामा की नियति है, लेकिन क्या यह भारत की नीति हो सकती है?
बेचारे ओबामा क्या करें? उन्हें नट चाल चलनी पड़ती है। तनी हुई रस्सी पर वे कभी इधर झुकते हैं तो कभी उधर। गंगा गए तो गंगादास और जमना गए तो जमनादास। उन्हें भारत और पाकिस्तान, दोनों को पटाकर रखना है। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों से वॉशिंगटन में वे मिले और दोनों को चूसनियां थमा दीं। दोनों खुश हैं।
दोनों के चाटुकार अपनी-अपनी जनता को वरगलाने में जुट गए हैं। असलियत तो यह है कि आतंकवाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और अफगान संकट से बाहर निकलने की कोई शक्ल भी नहीं उभरी। भारत क्या करेगा, यह न तो हमारे नेताओं को पता है और न ही अमेरिकियों को! नीति का शून्य ज्यों-का-त्यों बरकरार है।
हमारे प्रधानमंत्री ने यदि ओबामा से यह कह दिया कि वे पाकिस्तानी सरकार पर दबाव डालें और भारत विरोधी आतंकवादियों को पकड़वाएं तो इसमें नया क्या है? यह बात तो भारत अनगिनत बार कह चुका है और पाकिस्तानी नेताओं से यही बात अमेरिकी सरकार कई बार दोहरा चुकी है। इस बार भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अपना रेडीमेड जवाब ओबामा को थमा दिया। उन्होंने कह दिया कि भारत जितना परेशान है, उससे कहीं ज्यादा पाकिस्तान लहूलुहान है, आतंकवाद से। यह सही भी है।
पाकिस्तान में सिर्फ पुलिस ही नहीं, फौज भी आतंकवाद से लड़ रही है, लेकिन वे बेकाबू हैं। सच्चई तो यह है कि पाकिस्तान की सरकार सिर्फ रबर का ठप्पा है। असली ताकत तो फौज और गुप्तचर विभाग के पास है। असली सरकार यही हैं। इनके कुछ हिस्से अमेरिकियों को खुश रखने की कला के विशारद हैं। वे अमेरिकियों की मांग पर वजीरिस्तान जैसी जगहों पर कुछ आधे-अधूरे अभियान चला देते हैं और कभी-कभी कुछ तालिबान नेताओं को पकड़कर उनके हवाले कर देते हैं। बदले में उन्हें हथियार और डॉलर मिल जाते हैं। उन्हें सबसे बड़ी छूट यह मिलती है कि वे भारत-विरोधी आतंकवाद को हवा देते रहें और अमेरिका अपनी आंख मींचे रहे।
अमेरिका को पाकिस्तान में अपना उल्लू सीधा करना है या भारत के लिए उल्लू बनना है? पाकिस्तान की फौज ने आतंकवाद को अपनी विदेश नीति का ब्रrास्त्र बना रखा है। उसने चार-चार युद्ध लड़कर देख लिए, घुसपैठ करके देख ली और परमाणु बम बनाकर देख लिया। भारत के विरुद्ध हर जादू-टोना नाकाम हो गया। अब सिर्फ आतंकवाद बचा है। यह भी खोखला साबित होगा, लेकिन जब तक नहीं होगा, कम-से-कम अमेरिका से डॉलर दुहने का काम तो देता रहेगा।
पाकिस्तानी आतंकवाद के इस पैंतरे का भारत और अमेरिका के पास क्या जवाब है? पहला जवाब तो यही है कि असली सत्ता फौज के हाथ से छीनकर नागरिक सरकार को दी जाए। यह कैसे होगा? जबर्दस्त जन-आंदोलन के बिना यह संभव नहीं है। जैसे इफ्तिखार चौधरी को दोबारा सर्वोच्च न्यायाधीश बनाने के लिए जन-आंदोलन हुआ और मुशर्रफ ने घुटने टेके, वैसे ही जनता फौज को सबक सिखाए। यह इसलिए संभव नहीं है कि पाकिस्तान के नागरिक आज भी भारत से डरे हुए हैं।
वे समझते हैं कि सिर्फ फौज ही वह ताकत है, जो उन्हें भारत से बचा सकती है। यदि फौज पीछे चली गई तो भारत उन्हें खा जाएगा। इस डर को दूर करने की कूवत भारत के किसी नेता में नहीं है। हमारे नेता सिर्फ भारत के नेता हैं। यदि उनमें संपूर्ण दक्षिण एशिया के नेतृत्व की क्षमता होती तो वे पाकिस्तान के जनमानस को बदलने की रणनीति और कूटनीति बनाते। ‘भारत का डर’ अपने आप भी दूर हो सकता है, लेकिन वैसी मनोदशा प्राप्त करने में पाकिस्तान को कम-से-कम 50 साल लगेंगे।
ऐसी स्थिति में अमेरिका यही कर सकता है कि पाकिस्तानी फौज और आईएसआई का हुक्का-पानी बंद कर दे। उसे इस लायक रहने दे कि वह सिर्फ आतंकवादियों से लड़ सके। भारतीय हमले की आशंका के विरुद्ध वह पाकिस्तान को अभय-वचन भी दे सकता है। यहां असली प्रश्न यह है कि अमेरिका इतना सिरदर्द क्यों मोल ले? सिरदर्द से बचने के लिए अमेरिका ने कमर-दर्द मोल ले रखा है। अफगानिस्तान में बह रहा अमेरिकी डॉलर और खून का नाला उसकी कमर तोड़ देगा, यह उसे पता है। इसीलिए वह जुलाई 2011 में अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाना चाहता है, लेकिन क्या यह संभव है?
क्या अमेरिका कभी चाहेगा कि अफगानिस्तान से उसकी वापसी के बाद भारत भी वहां से गायब हो जाए? यदि ऐसा हुआ तो अफगानिस्तान को पाकिस्तान का पांचवां प्रांत बनने से कौन रोक पाएगा? तब तालिबान पहले काबुल, फिर पेशावर और इस्लामाबाद और फिर दिल्ली पर खम ठोंकने लगेंगे। ऐसे में क्या वॉशिंगटन को बुखार नहीं चढ़ आएगा? इसीलिए अगर ओबामा ने कह दिया कि अफगानिस्तान में भारत का कार्य सराहनीय है तो इसमें बहुत उछलने-कूदने का औचित्य क्या है?
भारत का यह कहना सुनने में बहुत अच्छा लगता है कि अफगानिस्तान में अमेरिका रहे या न रहे, भारत होगा, क्योंकि भारत के अपने राष्ट्रहित हैं। लेकिन भारत के नेताओं को क्या यह पता है कि अमेरिका के बिना वह अफगानिस्तान में तीन घंटे भी नहीं रह सकता है? नाटो के फौजी साए के बिना क्या काबुल में भारत की दुकान चल सकती है? तालिबानी शासन के दौरान हमारे दूतावास पर ताले क्यों पड़ गए थे? जहां दूतावास चलाना दूभर हो, वहां छह हजार करोड़ की परियोजनाएं कैसे चलेंगी?
क्या हमने अपनी कोई फौजी तैयारी कर रखी है? हमारी हालत यह है कि हम खुलकर सामने नहीं आते और पांच लाख जवानों की अफगान फौज खड़ी करने के लिए भी पहल नहीं करते। हममें इतनी कूवत कहां कि हम अफगान-तालिबान से लड़ने के लिए पाकिस्तान के साथ संयुक्त मोर्चा बना लें। हम यह भूल गए कि अफगानिस्तान की जिम्मेदारी मूलत: हमारी है, अमेरिका की नहीं। पाकिस्तान को हमें या तो अपने साथ लेना होगा या उसे बिल्कुल पस्त कर देना होगा। क्या भारत अमेरिका पर कुछ इस तरह का दबाव डाल रहा है?
खुद अमेरिका की अफ-पाक नीति इतनी दिग्भ्रमित है कि अपने वॉशिंगटन सम्मेलन में उसे पाकिस्तान को ससम्मान बुलाना पड़ा है। जो राष्ट्र आतंकवाद का गढ़ है और परमाणु चोरी के लिए सारी दुनिया में कुख्यात है, उसके प्रधानमंत्री का ह्वाइट हाउस में स्वागत करना कितनी बड़ी मजबूरी है। ईरान और उत्तरी कोरिया को दुत्कारना और पाकिस्तान को पुचकारना ओबामा की नियति है, लेकिन क्या यह भारत की नीति हो सकती है?
डेविड कोलमेन हेडली से भारत ने सीधी पूछताछ भी कर ली तो उसके ठोस परिणाम क्या होंगे? मुंबई आतंक के अपराधी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं। क्या भारतीय पुलिस उन्हें वहां जाकर पकड़ सकती है? जब तक अमेरिका दुरंगी नीति चलाता रहेगा, भारत भी सिर्फ जबानी जमा-खर्च करता रहेगा। अफगानिस्तान से अपनी वापसी की वेला में यदि अमेरिका दो-टूक नीति अपनाए तो पाकिस्तान शायद सही लीक पर चलने को मजबूर हो जाए और क्षेत्रीय शक्ति के रूप में भारत को भी ज्यादा मुसीबतें न झेलनी पड़ें।
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
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