Dainik Bhaskar, 31 Oct 2010 : ओबामा की भारत- यात्रा से किसका फायदा ज्यादा होगा, भारत का या अमेरिका का, यह कहना अभी कठिन है लेकिन भारत की सरकार और अखबार जरा ज्यादा ही उत्साहित मालूम पड़ते है| यह उत्साह अकारण नहीं है| पिछले 63 साल में लगभग आधा दर्जन अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आ चुके हैं लेकिन ओबामा ऐसे पहले राष्ट्रपति है, जो अपनी पहली अवधि के पहले हिस्से में ही भारत आ रहे हैं| अभी राष्ट्रपति बने, उन्हें दो साल भी नहीं हुए और उन्होंने भारत आने का निश्चय किया जबकि क्लिंटन और बुश अपने दूसरे कार्यकाल में ही भारत आए| ओबामा ने यह अच्छा ही किया, क्योंकि पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति चुने जाएंगे या नहीं ! आर्थिक मंदी और अफगानिस्तान, इन दो पाटों के बीच पिस्ती हुई ओबामा की लोकपि्रयता दो साल बाद उन्हें किस लायक छोड़ेगी, वे स्वयं नहीं जानते| भारत आते-आते उन्हें सीनेट और गर्वनरों के चुनाव में काफी धक्का लगनेवाला है| जो भी हो, भारत के प्रति ओबामा के हृदय में अदम्य आकर्षण रहा है| गांधी की प्रतिमा दीवाल पर और हनुमान की मूर्ति जेब में रखनेवाले ओबामा भारत न आते तो यह अजूबा ही होता|
वे सिर्फ भारत आ ही नहीं रहे हैं| वे यहां पूरे तीन दिन बिताएंगे| इतना समय उन्होंने चीन या किसी यूरोपीय देश में भी नहीं लगाया| वे मुंबई के ताज होटल में ठहरेंगे| इस घटना का संदेश सारी दुनिया में पहुंचेगा, खास तौर से पाकिस्तान में| अमेरिका आतंकवाद के कितना विरूद्घ है, यह संदेश ओबामा ताज़ होटल में ठहरकर देंगे| वे और उनकी पत्नी आगरा नहीं जाएंगे, यह थोड़ा अटपटा है लेकिन सुरक्षा का प्रश्न अपनी जगह है|
ओबामा की इस भारत-यात्र का सबसे अधिक ध्यातव्य पहलू यह है कि वे भारत के साथ-साथ पाकिस्तान नहीं जाएंगे, जैसा कि क्ंलिटन और बुश करते रहे हैं| शीतयुद्घ के दौरान भारत आनेवाले आइजनहावर आदि अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने पाकिस्तान को हमेशा विशेष महत्व दिया है| दक्षिण एशिया आते समय पाकिस्तान जाना उनके लिए तीर्थ-यात्र की तरह रहा है| सेंटो नामक सैनिक संधि के सदस्य पाकिस्तान को अमेरिका उन दिनों सोवियत संघ के विरूद्घ अपने चौकीदार की तरह इस्तेमाल करता रहा है| अब शीतयुद्घ खत्म हो चुका है लेकिन फिर भी पाकिस्तान की लॉटरी लगी हुई है| पहले अफगानिस्तान के कम्युनिस्ट शासन के विरूद्घ और अब आतंकवाद के विरूद्घ अमेरिका को पाकिस्तान की सख्त जरूरत है| इसके बावजूद ओबामा पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं| इस तथ्य के आधार पर बहुत-से विश्लेषक मान रहे हैं कि भारत-पाक बराबरी की पुरानी अमेरिकी नीति में पहली बार बदलाव आ रहा है| पहली बार अमेरिका भारत को पाकिस्तान के मुकाबले ऊँचे पायदान पर रख रहा है|
काश, सचमुच ऐसा होता ! अभी ओबामा भारत आए भी नहीं कि उधर वाशिंगटन से बार-बार घोषणा हो रही है कि वे अगले साल पाकिस्तान जरूर जाएंगें| एक साल पहले से यह डोंगी क्यों पीटी जा रही है ? यह बताने के लिए घबराओ मत ! हम तुम्हारे साथ है| अभी तो हम चार देशों में जा रहे हैं, उनमें से भारत एक है| हो सकता है कि अगले साल सिर्फ तुम्हारे खातिर ही हम दक्षिण एशिया में आएं, जैसे कि हम अफगानिस्तान गए थे| पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी अगले माह वाशिंगटन जा ही रहे हैं|
यों भी अभी पिछले सप्ताह ही वाशिंगटन में पाक-अमेरिकी सामरिक संवाद संपन्न हुआ है| इस संवाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्र्ी और सेनापति से ओबामा और उनके कई मंत्र्ी विस्तार से बात कर चुके हैं| पाकिस्तानी नेताओं को अमेरिकी नेताओं ने क्या कहा, इसके बारे में जो कुछ प्रकट हुआ है, उससे यही मालूम पड़ता है कि अमेरिका ने नरम और गरम बयारें एक साथ बहाई है| उन्होंने पाकिस्तानियों की पीठ भी ठोकी हैं और उन्हें चेतावनी भी दी है लेकिन ये तो सिर्फ बातें हैं| बातों का क्या ? असली बात तो यह है कि अमेरिका ने किया क्या ? उसने पाक प्रतिनिधि मंडल को लगभग तेरह हजार करोड़ रू. की नई मदद दे दी| लगभग 40 हजार करोड़ रू. की मदद की घोषणा पहले से की हुई है, अब यह नई मदद क्यों दी गई है ? आतंकवाद से लड़ने के लिए या पाकिस्तानी फौज का मुंह बंद करने के लिए ? खुद मुशर्रफ ने पिछले दिनों खुले-आम स्वीकार किया है कि विदेशों से मिली फौजी मदद का इस्तेमाल सिर्फ आतंकवाद से लड़ने के लिए ही नहीं, भारत से लड़ने के लिए भी किया गया है| अमेरिकी डॉलरों से जो हथियार, विमान, प्रक्षेपास्त्र् आदि खरीदे गए हैं, उनका इस्तेमाल आतंकवादियों के खिलाफ नहीं, सिर्फ भारत के खिलाफ ही हो सकता है| इसके अलावा अमेरिकी डॉलरोें पर पाकिस्तान के फौजी और जासूसी अफसरों ने जमकर हाथ साफ किया है| वे पाकिस्तानी लोकतंत्र् और भारत के साथ दुश्मनी एक साथ निभाते हैं| भारत और पाकिस्तान में आतंकवाद को हवा देनेवाले तत्व ये ही हैं|
क्या ओबामा की भारत-यात्र से इस स्थिति में कोई फर्क पड़ेगा ? जाहिर है कि बिल्कुल नहीं पड़ेगा| अमेरिकी नीति-निर्माता आज तक यह मूल बात नहीं समझ पाए कि पाकिस्तान अमेरिकी जूती को ही अमेरिका के सर पर मारता रहा है| तालिबान और आतंकवादियों के पास हथियार और पैसा कहां से आया ? पाकिस्तानी फौज के जरिए अमेरिका से आया ! क्या अमेरिका की इतनी हिम्मत है कि पाकिस्तान की फौजी मदद एकदम शून्य कर दे और अफगानिस्तान की राष्ट्रीय फौज एक साल में खड़ी कर दे ? पांच लाख जवानों की अफगान फौज पाकिस्तानी आतंकवादियों के छक्के छुड़ा सकती है| भूखी मरती पाकिस्तान फौज यदि आंतकवादियों की खुले-आम मदद करने लगे तो भी वह ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी| वह पाकिस्तानी जनता की भी कोप-भाजन बन जाएगी| फौज के कमजोर होने पर पाकिस्तानी लोकतंत्र् मजबूत होगा और भारत-पाक संबंध भी सुधरेंगे| अमेरिका चाहे तो आतंकवादी अड्रडों पर सीधे हमले बढ़ा दे और भारत को भी वैसा करने की छूट दे| ऐसी कठोर नीति बनाते समय अमेरिका और भारत दोनों को यह ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तानी जनता की मुसीबतें न बढं़े| पाकिस्तानी जनता को हर तरह की आर्थिक मदद देने के लिए अमेरिका और भारत को तत्पर रहना होगा|
जहां तक पाकिस्तानी आतंकवाद से निपटने का सवाल है, इसके अलावा कोई नीति काम नहीं करेगी| यही नीति अगले साल अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी को भी सफल बनाएगी| ओबामा के गले का यह सबसे कठोर फंदा है| तालिबान से बात करने से क्या फायदा है ? जब तक उनके सरपरस्तों की जड़ें नहीं उखाड़ी जाएंगी, तालिबानी सिरदर्द किसी न किसी रूप में कायम रहेगा| यह ठीक है कि ओबामा और उनके विशेष दूत कश्मीर का मसला उठाने के पक्ष में नहीं हैं लेकिन वे यह न भूलें कि कश्मीर का आतंकवाद और अफगानिस्तान का आतंकवाद एक ही पेड़ की दो शाखाएं हैं| अमेरिका को सिर्फ उस आतंकवाद की चिंता है, जो उसे तंग कर रहा है| उसकी नहीं, जो भारत को तंग कर रहा है| क्या भारत के नेता ओबामा से ऐसा कोई स्पष्ट आश्वासन मांगेंगे, जो दोनों आतंकवादों को एक साथ खत्म करने पर आमादा हो ?
ओबामा से यह भी साफ़-साफ़ पूछा जाना चाहिए कि सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सीट दिलाने के प्रश्न पर अमेरिका का रवैया क्या है ? फ्रांस और बि्रटेन की तरह अमेरिका अभी तक भारत के पक्ष में नहीं बोला है| चीन और रूस भारत का विरोध नहीं करेंगे लेकिन वे शायद अमेरिका की हरी झंडी की प्रतीक्षा कर रहे है| अगर अपनी भारत-यात्र के दौरान ओबामा स्पष्ट आश्वासन दे दें तो संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा का 2/3 बहुमत जुटाना मुश्किल नहीं होगा| संयुक्तराष्ट्र के संपूर्ण ढांचे में सुधार की प्रक्रिया शुरू हो सकती है| भारत के अलावा जापान, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि भी सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनना चाहते हैं| भारत का दावा सबसे मजबूत है लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिए यदि भारत को अमेरिका का पिछलग्गू बनना पड़ेगा तो यह शर्त उसे स्वीकार नहीं होगी|
जहां तक ओबामा का प्रश्न है, भारत की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ओबामा की प्राथमिकता नहीं है| हो सकता है कि वे इस प्रश्न को उठने ही न दें| उनकी प्राथमिकताएं कुछ और ही हैं| अमेरिका के उप-विदेश मंत्र्ी विलियम बर्न्स ने ओबामा का जो पत्र् प्रधानमंत्र्ी डॉ. मनमोहन सिंह को दिया है, उसमें वे सब मुद्दे हैं, जिनसे अमेरिका का हित-संधान होता है| अमेरिका चाहता है कि भारत अपने परमाणु हर्जाना कानून को ढीला करे ताकि अमेरिकी परमाणु सप्लायरों को सुविधा हो, सी-17 हवाई जहाजों की खरीदी में देरी न करे, अमेरिकी खाद्य-पदार्थों को भारत में बेचने की छूट दे, टेलीकॉम क्षेत्र् में ढील दे, रक्षा-समझौते जल्दी संपन्न करे और भारत-अमेरिका व्यापार में अपूर्व वृद्घि करे| जाहिर है कि क्ंलिटन और बुश की तरह ओबामा की नज़र भी भारत के 30-35 करोड़ मध्यमवर्गीय उपभोक्ताओं पर है| वे भारत को अमेरिकी परमाणु भटि्रठयॉं बेचने के लिए भी बेताब हैं|
लेकिन यह पता नहीं कि इस यात्र के दौरान ओबामा भारत के हितों का कितना ध्यान रखेंगे| उनके शासन-काल के दौरान ही अमेरिका जानेवाले भारतीय कर्मिकों की वीज़ा फीस में असाधारण वृद्घि हुई है| भारत के साथ अमेरिका ने परमाणु-सौदा तो सहर्ष कर लिया है लेकिन अभी तक उसने भारत को अन्य पांच परमाणु शक्तियों की तरह छठी परमाणु शक्ति स्वीकार नहीं किया है| वह चाहता है कि भारत इसी हैसियत में सीटीबीटी पर दस्तखत करे| भारत परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बने, इस प्रश्न पर भी अमेरिका मौन है| अमेरिका ने अभी तक भारत को दोहरे इस्तेमालवाली औद्योगिक तकनीकें देने का रास्ता नहीं खोला है| इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के इरादों के बारे में अमेरिका अभी तक आश्वस्त नहीं है| ओबामा-प्रशासन ने उन अमेरिकी कंपनियों पर भारी टैक्स लगा दिया है, जो भारत से करोड़ों-अरबों रूपया कमाकर अमेरिका भेजती है| उन पर ओरोप यह है कि वे हजारों भारतीय नौजवानों को रोजगार देती हैं और अमेरिकी बेरोजगार बढ़ाती हैं| यदि ये कंपनियां भारतीयों की जगह अमेरिकियों को लगा दे ंतो उनके मोटे वेतन इनका पूरा मुनाफा साफ कर देंगे| लगभग 25 लाख भारतवंशी अमेरिका को समृद्घ और संस्कारवान बना रहे हैं, यह तथ्य भी ओबामा की आंखों में ओझल नहीं होना चाहिए|
ओबामा चाहेंगे कि चीन का मुकाबला करने में भारत अमेरिका का साथ दे| यह तभी हो सकता है जबकि भारत और अमेरिका में पूर्ण सामरिक सहयोग हो| क्या अमेरिका पाक-चीन गठबंधन का स्पष्ट विरोध कर सकता है ? यदि नहीं तो भारत अपने राष्ट्रहित की हानि करके अमेरिका का पिछलग्गू क्यों बनेगा ? भारत-अमेरिकी संबंध घनिष्टता के नए धरातल पर तभी पहुंचेंगे, जबकि उनका संचालन समानता के आधार पर हो| ओबामा की भारत-यात्र का स्वागत तो होना ही चाहिए लेकिन यह मान बैठना शायद ठीक नहीं होगा कि भारत और अमेरिका के संबंधों में कोई युगांतरकारी परिवर्तन होनेवाला है|
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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