R Sahara, 09 July 2004 : भाजपा और कॉंग्रेस, दोनों ही गलत हैं| चार राज्यपालों की बर्खास्तगी जितनी गलत है, उतनी ही गलत है, भाजपा की हंगामेबाजी ! अगर इसी बात को उलटकर कहें तो यह भी कह सकते हैं कि राज्यपालों की बर्खास्तगी जितनी सही है, उतनी ही सही है, उसकी निंदा ! भारत में राज्यपालों का मामला इतना उलझ गया है कि उनके बारे में एकदम स्पष्ट राय बनाना बेहद कठिन हो गया है|
सीधा-सादा तर्क तो यों चलता है कि आप जिस रास्ते आए, उसी रास्ते चले गए| अब रोना क्या? राज्यपालों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है| रेवडि़यॉं अपने-अपनों को बॉंटी जाती हैं| जब बॉंटनेवाला ही चल बसा तो रेवडि़यों के बॅंटते रहने का सवाल ही क्या है? जिस सरकार ने आपको अपने मोहरे की तरह फिट किया था, वह खुद ही खिसक गई तो अब आप क्यों टिके हुए हैं? आप भी चुपचाप चलते बनिए| सारे राज्यपालों, सारे राजदूतों, सारे आयोगों के अध्यक्षों, यहॉं तक कि सारे नामजद सांसदों – सबको उसी दिन अपने इस्तीफे सौंप देने चाहिए, जिस दिन वह सरकार गिर जाए, जिसने उनको नियुक्त किया है| अगर सचमुच आप महामहिम या माननीय हैं तो आप यही करेंगे| योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री कृष्णचंद्र पंत ने यही किया और उन्होंने अपने व्यक्तिगत सम्मान की रक्षा की| उनके बाद दिल्ली के उप-राज्यपाल विजय कपूर और पांडिचेरी के एन.एन. झा ने उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किए| लेकिन भाजपा ने एक नई नज़ीर पेश की| उसने अपने नियुक्त किए हुए राज्यपालों से कहा कि वे इस्तीफा न दें| उन्होंने नहीं दिया| याने उन्होंने यह सिद्घ किया कि वे महामहिम नहीं हैं, महामान्य नहीं हैं, अनुकरणीय नहीं हैं, स्वविवेकसंपन्न स्वायत्त पुरुष नहीं हैं बल्कि किसी पार्टी के विनम्र कार्यकर्ता हैं| राज्यपाल होकर भी वे पार्टी-आदेश का पालन कर रहे हैं| वे राज्यपाल कम और पार्टी-कार्यकर्ता ज्यादा हैं| उन्होंने अपने आचरण से यह सिद्घ किया कि राज्यपाल बन जाने के बावजूद वे दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठे| वे स्वयं सोचें कि इतने कमजोर और परमुखापेक्षी चरित्रवाले लोगों को क्या राज्यपाल के पद पर बिठाया जाना चाहिए?
हमारा निवेदन है कि इस तरह के कमजोर और लिजलिजे लोगों को ही ढूंढ-ढूंढकर राज्यपाल बनाया जाता है| केंद्र में जो भी सरकार बनती है, वह क्या करती है? अपनी पार्टी के सबसे बूढ़े, सबसे ज्यादा थके-मॉंदे, सबसे ज्यादा आज्ञाकारी और सबसे ज्यादा खुर्राट (लेकिन चुके हुए) नेताओं को राज्यों पर थोप देती है| उनकी योग्यता या आयोग्यता का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता| उनमें से कई तो पद पर रहते हुए ही स्वर्ग-लोक सिधार जाते हैं और कई ऐसे होते हैं कि उन्हें चलने-फिरने में भी दिक्कत होती है| संविधान कहता है कि वे भारत के नागरिक होने चाहिए और 35 साल के होने चाहिए| इसके अलावा कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है| इसका मतलब यह नहीं कि अब तक जो राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं, वे अयोग्य थे| ऐसा नहीं है| बहुत योग्य और अनुभवी लोगों ने भी इस पद को सुशोभित किया है लेकिन योग्यता से भी बड़ा मानदंड यह होता है कि राज्यपाल बनकर जानेवाला व्यक्ति केंद्र की कठपुतली बनकर रहेगा या नहीं? इसी मानदंड पर कसकर कई पुराने अफसरों, फौजियों, गैर-राजनीतिक रिश्तेदारों आदि को राज्यपाल बना दिया जाता है| नतीजा क्या होता है? यदि राज्य-सरकार केंद्र के अनुकूल है तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल की खूब पटती है और नहीं है तो बराबर खटपट चलती रहती है| पहले का उदाहरण है – गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्यपाल सुंदरसिंह भंडारी की जुगलबंदी और दूसरे का उदाहरण है – म.प्र. के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह और राज्यपाल भाई महावीर का सतत दंगल| भंडारीजी को पता था कि मोदी के राज में बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं लेकिन उन्होंने राज्यपाल की रपट में क्या ईमान की बात लिखी? अगर वे राज्यपाल के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे होते तो मोदी को मार्च के पहले हफ्ते में ही बर्खास्त कर देते ! सच्चाई तो यह है कि हमारे संविधान में राष्ट्रपति को जितने अधिकार दिए गए हैं, उससे कहीं ज्यादा राज्य में राज्यपाल को दिए गए हैं लेकिन कौन राज्यपाल है, जो स्वविवेक का प्रयोग करता है? कौन राज्यपाल है, जिसे हम सचमुच महामहिम कहें? क्या कठपुतलियों को महामहिम कहा जा सकता है?
यह बात राज्यपाल ही नहीं, उन सब पदों पर लागू होती है, जो नामजदगी से भरे जाते हैं| इन पदों की सर्वोच्च अर्हता है, खुशामद, तिकड़मशीलता, मेरुदंडहीनता| यह बीमारी राज्यसभा के नामजद सदस्यों तक पहॅुंच गई है| विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों, आयोगों के अध्यक्षों, राजदूतों तथा अन्य सभी नामजद पदों के लिए योग्यता गौण हो गई है| राजनीतिज्ञ यों भी योग्य और ईमानदार लोगों से गहरा द्वेष रखते हैं| वे उनसे डरे रहते हैं| इसका दुष्परिणाम यह होता है कि योग्य और ईमानदार लोग भी पद पाने के लिए लार टपकाने और दुम हिलाने लगते हैं| सारा समाज ही कमजोर पड़ जाता है| ऐसी स्थिति में राज्यपालों की बर्खास्तगी के विरुद्घ यदि भाजपा आंदोलन चलाएगी तो उसे जन-समर्थन कैसे मिलेगा? केंद्र की कठपुतलियॉं अगर डूबती हैं तो उससे आम जनता को गम क्यों हो? क्या राज्यपालों को जनता के दुख-दर्दों से कोई लेना-देना होता है? राज्यपालों की जड़ें जनता में नहीं, केंद्र सरकार में होती हैं| जब केंद्र में सरकार ही उलट गई तो उनकी जड़ें उखड़ना तो स्वाभाविक ही है| क्या भाजपा इतना प्रचंड आंदोलन चला सकती है कि उसके राज्यपालों की नियुक्ति दुबारा हो जाए? दुबारा नियुक्त होकर भी वे क्या कर लेंगे? उन्हें केंद्र की कठपुतली बने रहना होगा| संघ के स्वयंसेवक होकर उन्हें कॉंग्रेसियों की गुलामी करनी पड़ेगी| क्या यह मरने से भी बदतर नहीं होगा? इससे तो कहीं अच्छा है, पदमुक्त होना|
लेकिन कॉंग्रेस जो कर रही है, क्या वह सही है? कॉंग्रेस ने यह नहीं बताया कि आखिर इन राज्यपालों का गुनाह क्या था? उन्होंने क्या कोई दुराचरण किया है, क्या संविधान का उल्लंघन किया है, क्या अपने पद की कहीं कोई मर्यादा भंग की है, क्या राजभवनों में वे संघ की शाखाऍं चला रहे हैं? इस तरह का कोई भी आरोप उन पर नहीं है| दूर-दूर तक नहीं है| फिर भी राष्ट्रपति का ‘प्रसाद’ अचानक कैसे समाप्त हो गया? राष्ट्रपति की कृपा या प्रसन्नता अचानक क्यों मुरझा गई? धारा 156 कहती है कि राज्यपाल पॉंच साल की अवधि के लिए नियुक्त किए जाऍंगे| चारों में से एक राज्यपाल के भी पॉंच साल पूरे हुए थे क्या? तो फिर उन्हें क्यों हटाया गया? गृह मंत्री शिवराज पाटील ने संघ का नाम तो नहीं लिया लेकिन कहा कि विचारधारा के कारण उन्हें हटाया गया| कौनसी विचारधारा? वह संघ की ही विचारधारा है| यदि संघ की विचारधारा के कारण राष्ट्रपति अप्रसन्न हो गए तो पहला प्रश्न तो यह है कि राष्ट्रपति को सबसे पहले स्वयं से अप्रसन्न होना चाहिए था| वे क्यों नहीं हुए? उन्हें संघी सरकार ने ही नियुक्त किया था| दूसरा प्रश्न यह कि संघी राज्यपालों को नियुक्त करते समय पूर्व राष्ट्रपति नारायणन (जो कि वामपंथी हैं) और वर्तमान राष्ट्रपति अप्रसन्न क्यों नहीं हुए? उन्होंने इन नियुक्तियों को रोका क्यों नहीं? तीसरा प्रश्न, क्या प्रधानमंत्री, उप-प्रधानमंत्री और मंत्रिगण संघ के सदस्य नहीं थे? आपने उन्हें क्यों मान्य किया और अब राज्यपालों को क्यों नहीं मान रहे? चौथा, आप संघी राज्यपालों को इसलिए हटा रहे हैं कि आप उन्हें हटा सकते हैं तो क्या अब आप संघी मुख्यमंत्रियों को भी हटाऍंगे? मुख्यमंत्रियों को हटाने का भी अधिकार केंद्र के पास है| आप उसका प्रयोग क्यों नहीं करेंगे? यदि करेंगे तो ‘संघ’ का यह तर्क आपको बहुत गहरे गड्रढे में उतार देगा| उच्चतम न्यायाधीश से लेकर हमारे अनेक वरिष्ठ सेनापति ढेर हो जाऍंगे| कॉंग्रेस के कई दिग्गज भी गुड़क जाऍंगे, क्योंकि बचपन में पता नहीं कौन-कौन किस-किस शाखा में जाता रहा है|
राज्यपालों के बर्खास्तगी के लिए संघी विचारधारा का तर्क कितना बोदा है, इसका प्रमाण यह तथ्य भी है कि राज्यस्थान से मदनलाल खुराना और बिहार से राम जोइस को बर्खास्त नहीं किया गया| क्या ये दोनों सज्जन संघ के स्वयंसेवक नहीं रहे हैं? इनके अलावा आधा दर्जन राज्यपाल ऐसे हैं जो या तो स्वयंसेवक रहे हैं या संघ के उत्कट समर्थक रहे हैं| आप एक ही झपट्टे में सबको साफ़ क्यों नहीं कर देते और संघ को अवैध घोषित क्यों नहीं कर देते? जाहिर है कि कॉंग्रेस के पास इतना दम-गुर्दा नहीं है| किसी वैचारिक लड़ाई के लिए कॉंग्रेस के पास न तो नेतृत्व है न संगठन ! यदि कॉंग्रेस की राजनीति किसी वैचारिक आधार पर चल रही होती तो वह मुलायमसिंह सरकार को रह-रहकर धमकियॉं क्यों देती? कॉंग्रेस की आत्मा का निवास विचार में नहीं, कुर्सी में है| कॉंग्रेस के बूढ़े शेर अब ज़मीन पर बैठने लायक नहीं रहे| उन्हें बैठने के लिए कुर्सियॉं चाहिए| सो कुर्सियॉं बॅंट रही हैं| जब तक छिनेगी नहीं, बॅंटेगी कैसे? बस गलती यही हुई है कि छीनने का सही बहाना बनाने में कॉंग्रेस चूक गई| सही बहाना बनाना भी बड़ी कला है| 1977 में जब जनता सरकार ने कॉंग्रेसी राज्य-सरकारें भंग करवाई तो बहाना यह बनाया कि इंदिरा गॉंधी को हराकर जनता ने कॉंग्रेसी सरकारों की वैधता समाप्त कर दी है| यही बहाना 1980 में इंदिराजी ने भी बनाया| उन्हाेने गैर-कॉंग्रेसी सरकारें भंग कर दीं| इन बहानों में थोड़ा-बहुत दम भी था लेकिन अभी जो ‘संघ’ का बहाना बनाया गया है, वह तो बिल्कुल ही बेदम है| इससे बेहतर तो यह होता कि साफ़-साफ़ कहा जाता कि राज्यपाल को केंद्र का प्रामाणिक प्रतिनिधि होना चाहिए और वर्तमान राज्यपालों को हम अपना प्रामाणिक प्रतिनिधि नहीं मानते, इसीलिए हटा रहे हैं| ऐसा कहना अलोकतांत्र्िाक नहीं है| अमेरिका में यही होता है| उसे ‘स्पॉइल सिस्टम’ कहते हैं| नए राष्ट्रपति के नियुक्त होते ही लगभग पॉंच हजार बड़े-बड़े पद अपने आप खाली हो जाते हैं| इस्तीफे मॉंगने नहीं पड़ते, वे खुद-ब-खुद दौड़े चले आते हैं| कॉंग्रेस चाहे तो अब यह परम्परा कायम कर सकती है| जिस रास्ते से लोग अपने पदों पर आते हैं, उसी रास्ते से वे वापस चले जाऍं तो किसी को बुरा क्यों लगेगा?
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