राष्ट्रीय सहारा, 19 मई 2011 : पाकिस्तान की बौखलाहट अब सीमा पार कर चुकी है| पहले पाकिस्तान के विदेश सचिव ने आक्रामक बयान दिया कि यदि भारत अमेरिका की तरह कोई कार्रवाई करेगा तो उसका मुँहतोड़ जवाब देंगे और अब आईएसआई के मुखिया शुजा पाशा ने कह दिया कि यदि भारत ने पाकिस्तान के विरूद्घ कोई दुस्साहस किया तो उसे पता होना चाहिए कि पाकिस्तान के पास कितने परमाणु बम हैं|
ये दोनों बयान बिल्कुल अनावश्यक और असंगत हैं| उसामा बिन लादेन के सफाए पर भारत के प्रधानमंत्री ने जितनी संतुलित प्रतिकि्रया की, अगर उनकी जगह इस्राइल के प्रधानमंत्री होते तो पता नहीं क्या-क्या कहते ? सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान की मिट्रटी पलीत करने का यह अनुपम अवसर भारत सरकार ने अपने हाथ से गंवा दिया| यदि भारत में कोई राजनीतिक प्रधानमंत्री होता तो पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करवाने के लिए कमर कस लेता| पाकिस्तान के विदेश सचिव सलमान बशीर को कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह से यह तो सीखना चाहिए था कि कोई नौकरशाह प्रधानमंत्री बन जाने पर भी कितना संयमित रहता है| बशीर ने दूसरी गलती यह की कि भारत के सेनाध्यक्ष को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मान लिया| भारत पाकिस्तान नहीं है| यदि भारतीय सेना-प्रमुख ने एक सवाल के जवाब में कह दिया कि एबटाबाद जैसी कार्रवाई करने की क्षमता भारत में भी है तो इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि भारत वैसी कार्रवाई करना चाहता है| अपनी काबुल-यात्र के दौरान प्रधानमंत्री ने ऐसी कार्रवाई की संभावना से साफ इंकार किया है|
जहाँ तक पाशा का सवाल है, या तो उनका दिमाग फिर गया है या वे अपनी खाल बचाने के लिए डींग मार रहे हैं| उसामा को लेकर जितनी बेइज्जती पाकिस्तानी फौज और गुप्तचर संगठन, आईएसआई की हुई है, उतनी पहले कभी नहीं हुई| इन दोनों संगठनों को हवा भी नहीं लगी और उसामा को मारकर अमेरिकी ले गए, इसका एक अर्थ यह भी है कि पाकिस्तान के परमाणु-भंडारों का भी किसी दिन यही हश्र हो सकता है| इसी घबराहट के कारण शुजा पाशा ने परमाणु-आक्रमण की धमकी भारत को दे दी| पाशा भूल गए कि जवाबी हमले में पाकिस्तान का नामो-निशान भी मिट सकता है| इतनी मूर्खतापूर्ण बात भारत में न तो कोई सोचता है और न ही आज तक किसी ने वैसा कहा है| यहाँ इसका उलटा है| भारत ने घोषणा की है कि वह आगे होकर परमाणु -आक्रमण कदापि नहीं करेगा| उचित तो यह होगा कि शुजा पाशा को अपने अतिवादी बयान के लिए पाकिस्तान की जनता से माफी मांगनी चाहिए, क्योंकि आखिरकार सबसे ज्यादा नुकसान उसका ही होगा|
इस तरह के बयान इसीलिए आ रहे हैं कि पाकिस्तान का सैन्य-सामंती प्रतिष्ठान अब पूरी तरह निवर्सन हो गया है| जिस अमेरिका को बुद्घू बनाकर उसने अपनी दुकान अब तक जमा रखी थी, अब उसकी आँखें खुल गई हैं| अमेरिकी नीति-निर्माताओं को पाकिस्तान की दोमुंही चालों का पता चल गया था लेकिन अमेरिकी करदाताओं की नज़र से वह पहली बार गिरा है| इसी का परिणाम है कि अमेरिकन काँग्रेस में दो-दो विधेयक पेश हो गए हैं, जिनका लक्ष्य उसामा को छिपाए रखने में पाकिस्तान की भूमिका का पता करना है और पाकिस्तान को दी जा रही मदद में कटौती करना है| फिलहाल इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि वास्तव में पाकिस्तान को मिल रही अमेरिकी रिश्वत में से कोई कटौती होगी या नहीं, क्योंकि अमेरिका अब भी पाकिस्तान पर निर्भर है| अब भी वह शायद यह नहीं मानता कि पाकिस्तान उसकी पीठ में छुरा भोंक रहा है| अब भी उसे पता नहीं चल रहा है कि आतंकवाद अब पाकिस्तान के लिए बाकायदा एक धंधा बन गया है| यदि आतंकवाद बरकरार रहता है तो पाकिस्तानी फौज का झंडा ऊँचा रहेगा और चरमराती हुई अर्थ-व्यवस्था को अमेरिका का टेका मिलता रहेगा|
पाकिस्तान के बारे में अमेरिकी विदेश नीति बिल्कुल दीवालिया सिद्घ हो गई है| अमेरिका अब भी तय नहीं कर पाया है कि वह अफगानिस्तान में क्या करेगा ? अपनी फौजें वह वहाँ से कैसे निकालेगा ? अमेरिकियों के निकल जाने के बाद हामिद करजई सरकार को कौन टिकाए रखेगा ! सीनेट के विदेशी संबंधों की कमेटी के अध्यक्ष जॉन केरी इस्लामाबाद और काबुल हो आए हैं| कुछ अन्य अफसर और कूटनीतिज्ञ भी वहां जा रहे हैं| विदेश मंत्र्ी हिलेरी क्लिंटन भी जाएंगी लेकिन होगा क्या ? अमेरिका की तरफ से शायद कुछ न हो| लेकिन पाकिस्तान अमेरिका से ज्यादा चतुर निकला| चीन की तरफ खुली हुई खिड़की को उसने दरवाजा बनाना उसामा-कांड के पहले से ही शुरू कर दिया था| अब से तीन हफ्ते पहले काबुल जाकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री, सैन्य-प्रमुख और गुप्तचर प्रमुख ने हामिद करज़ई को सलाह दी थी कि अब वे चीन का पल्ला पकड़ लें, क्योंकि अमेरिका तो पिंड छुड़ाकर भागनेवाला ही है| चीन से पूछे बिना यह सलाह नहीं दी जा सकती थी| यों भी चीन ने अफगानिस्तान में तीन बिलियन डॉलर लगाकर तांबे की खदान खरीदी है| इस समय पाकिस्तानी प्रधानमंत्री चीन में हैं और कह रहे हैं कि उसामा-कांड पर चीन ने जो मैत्रीपूर्ण प्रतिक्रिया की है, वह अद्वितीय है| चीन की प्रतिकि्रया ने अमेरिकी घावों पर नमक छिड़क दिया है, इसकी चिंता पाकिस्तान को जरा भी नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान सिर्फ एक ही खूंटे से बंधा है, जिसका नाम है, भारत-भय ! उसे डर है कि अमेरिकी-वापसी की वेला में काबुल में कहीं भारत का वर्चस्व न हो जाए| नवाज शरीफ ने यह कहकर बड़ी बहादुरी दिखाई है कि पाकिस्तान भारत को अपना दुश्मन नम्बर एक समझना बंद करे|
पाकिस्तान के नेताओं को अगर यह बुनियादी बात अब समझ में आ रही है तो मानना पड़ेगा कि अब पाकिस्तान के दिन फिरेंगे| असली सत्ता फौज के हाथ से खिसककर सरकार और संसद के पास आ सकती है| यदि ऐसा हुआ तो पाकिस्तान के सैन्य-सामंती प्रतिष्ठान का रूतबा घटेगा और भारत-भय की गांठ भी खुलेगी| यह तभी होगा, जब अमेरिका की नींद खुलेगी| यदि अमेरिका अब भी पाकिस्तान को अपना पि्रय दलाल मानता रहेगा तो यह निश्चित जानिए कि जैसे वह आज जिहादी आतंकवाद के मूल पिता के रूप में जाना जाता है, वैसे ही वह कभी परमाणु-सर्वनाश के पोषक और संरक्षक के रूप में जाना जाएगा|
(लेखक, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के जाने-माने विशेषज्ञ हैं)
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