नवभारत टाइम्स, 28 अप्रैल, 2005 : किसे पता था कि भारत सरकार इतनी जल्दी पल्टा खा जाएगी| पल्टा खाने पर सरकारें अक्सर झेंपने लगती हैं लेकिन यहॉं झेंपने लायक कुछ नहीं है| जकार्ता में नेपाल और बांग्लादेश के प्रति भारत ने अपनी नीति में जो परिवर्तन किया है, वह भारत की कमजोरी नहीं, समझदारी है| कमजोरी तब मानी जाती जबकि भारत इन देशों के विरुद्घ कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं होता| दोनों पड़ौसी इतने छोटे और कमज़ोर हैं कि यदि भारत उन पर अन्याय भी करना चाहे तो कर सकता है| यदि भारत अपनी टेक पर अड़ा रहता याने नेपाल-नरेश का घेराव और दक्षेस का बहिष्कार किए रहता तो यह मामला इतना तूल पकड़ सकता था कि भारतीय विदेश नीति अपनी पटरी से ही उतर जाती| नेपाल और बांग्लादेश छोटे और कमजोर देश जरूर हैं लेकिन वास्तव में वे कैसे हैं, यह उनकी जन्मपत्री देखने से पता चलता है| नेपाल हमारी तरह कभी किसी अंग्रेज या अरब का गुलाम नहीं रहा और बांग्लादेश तो पाकिस्तान की गुलामी को चीरकर पैदा हुआ है| ऐसे स्वाभिमानी राष्ट्रों को क्या कोरी घुड़कियों से डराया जा सकता है? जो रास्ता पिछले तीन माह में भारत सरकार ने अपना लिया था, अगर वह उसी पर चलती रहती तो लेने के देने पड़ जाते| नेपाल-नरेश को हटाने और नेपाल की सामरिक घेराबंदी करने का मतलब होता, नेपाल को अपने मत्थे मढ़ लेना| कश्मीर को काबू करने के लिए हमें जितनी फौज लगानी पड़ रही है, उससे दुगुनी हमें नेपाल में लगानी पड़ती| तीसरी दुनिया में भारत की बदनामी होती सो अलग ! भारतीय फौज में काम कर रहे हजारों गुरखा जवानों के दिल में दुविधा खड़ी हो जाती| नेपाल में बसे भारतीय नागरिकों और लाखों मधेशियाई कहे जानेवाले नेपालियों का जीवन खतरे में पड़ जाता| लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर भारत को नेपाल में वह करना पड़ता, जो सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में किया था| न लोकतंत्र बचता और न नेपाल ! क्या यह समझदारी होती? नहीं होती ! यह बात हमारे विदेश मंत्रालय को इतनी जल्दी समझ में आ गई, इसके लिए वह बधाई का पात्र है|
आश्चर्य है कि इस नाजुक मुद्दे पर हमारे अनेक नेपाल-विशेषज्ञ कैसे फिसल गए? शायद दिमाग का काम उन्होंने दिल से लिया| हर भारतीय का दिल तो यही चाहेगा कि लोकतंत्र पर ज़रा-सी ऑंच भी नहीं आए| नेपाल-नरेश ने सिर्फ राजनीतिक दलों को ही अवरुद्घ नहीं किया, देश के सभी प्रमुख नेताओं, अनेक पत्रकारों और स्वतंत्र विद्वानों को भी जेल में डाल दिया| यह गलत काम था, इसमें रत्ती भर भी शक नहीं है लेकिन इसका समाधान यह तो नहीं कि नरेश को ही अपदस्थ कर दिया जाए| हमारे विशेषज्ञ भारत सरकार को यही सलाह देते रहे| वे भूल गए कि माओवादियों का खतरा जितना नेपाल के लिए चिंतास्पद है, उतना ही हमारे लिए भी है| फरवरी के पहले हफ्ते में जब नरेश ने आपातकाल घोषित किया था, ऐसा लग रहा था कि भारत के विदेश मंत्रालय ने नेपाल नरेश के विरुद्घ अघोषित युद्घ छेड़ दिया है| आशंका थी कि यूरोपी-संघ, बि्रटेन और अमेरिका की हां में हां मिलाते हुए भारत नेपाल का हुक्का-पानी बंद कर देगा| वह अपने राष्ट्रहितों के प्रति भी अचेत हो जाएगा| ये सब संकेत तब मिल रहे थे जबकि हमारे वर्तमान विदेश सचिव अपने पद पर आने के पहले नेपाल में हमारे राजदूत रह चुके थे| उनसे ज्यादा वर्तमान सरकार में नेपाल को कौन जानता है? अच्छा हुआ कि विदेश मंत्रालय विशेष्ज्ञों की राय के आधार पर बहका नहीं और उसने नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र से सीधी बातचीत का रास्ता खोल लिया| विदेश मंत्री नटवरसिंह अपने प्रारंभिक रवैए पर अड़े नहीं रहे और उन्होंने जकार्ता में नरेश से बात करके वह ज़मीन तैयार कर दी, जिस पर खड़े होकर प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और नेपाल-नरेश के बीच सौहार्दपूर्ण सम्वाद संभव हो सका| नेपाल-नरेश ने संचार-माध्यमों से कहा है कि भारतीय सैन्य सहायता शीघ्र ही दुबारा शुरू होने का आश्वासन मिला है| जाहिर है कि भारत सरकार इस दावे की एक दम पुष्टि नहीं कर सकती| पुष्टि के पहले ही उसके वामपंथी सहयोगियों ने उस पर प्रहार शुरू कर दिया है| सरकार फिलहाल अपनी अंदरूनी आग बुझाने में लगी हुई है| उसे यह भय भी है कि संसद के चलते हुए सत्र में उसे विपक्ष की ठोकरें भी खानी पड़ेंगी| उसकी मज़ाक उड़ाई जाएगी| जो भी हो, सरकार से ज्यादा हास्यास्पद स्थिति उन विशेषज्ञों और राजनीतिक दलों की हो गई है, जो बिना सोच-विचारे नेपाल पर दहाड़े चले जा रहे थे| इससे यह भी पता चलता है कि ज्यादातर विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों की किसी भी मसले पर अपनी सुचिन्तित राय नहीं होती| जैसी बयार बहती है, वे वैसी ही पीठ दे देते हैं|
भारत सरकार ने नेपाल और दक्षेस-सम्मेलन के प्रति अपना जो रवैया बदला है, उसके पीछे अनेक ठोस कारण हैं| पहला, भारत सरकार ने यह देख लिया कि पिछले 10-12 हफ्तों में नेपाल में कोई भी जनोत्थान नहीं हुआ| बड़े नेताओं की रिहाई के बावजूद नेपाल-नरेश के विरुद्घ साधारण जन-प्रदर्शन तक नहीं हुए| अर्थात्र नेपाल-नरेश की कार्रवाई अलोकपि्रय नहीं है| दूसरा, नेपाल के राजनीतिक दलों ने कुछ भारतीय विशेषज्ञों की तरह अतिवादी घोषणाऍं नहीं की| उन्होंने राजवंश की समाप्ति का नारा नहीं दिया| भारत सरकार की तरह वे भी मानते रहे कि सीमित राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र – ये दो तत्व नेपाली व्यवस्था के आधार-स्तंभ हैं| तीसरा, नेपाल से भारत आए छोटे-मोटे नेतागण ने दिल्ली में एक मंच बनाने की कोशिश जरूर की लेकिन काठमांडों में वे एकता का परिचय नहीं दे सके| दूसरे दलों को जाने दें, अभी नेपाली कॉंग्रेस भी आपस में जुड़ नहीं पाई है| भारत इन विभाजित और विश्रृंखलित दलों का ऑंख मींचकर साथ नहीं दे सकता| वह अपने विरुद्घ दो-दो मार्चे क्यों खोले? माओवादी तो उसके विरुद्घ हैं ही, नरेशवादी फौज और सामान्य लोगों से भी वह वैर मोल क्यों ले? चौथा, नेपाल-नरेश की वैधता पर शंका की अफवाहें जरूर फेली हुई हैं, इसके बावजूद भारत ने उनका मनोबल सुदृढ़ पाया| भारतीय राजदूत से ज्ञानेंद्र ने आसानी से मुलाकात नहीं की| वे हमेशा यह भी कहते रहे कि नेपाल हर प्रतिबंध का डटकर मुकाबला करेगा| इसके अलावा माओवादियों से लड़ने के लिए उन्होंने फौज को भी जमकर प्रेरित किया| पॉंचवा, इस नए नेपाल-नरेश ने राजतंत्र का पुराना दॉंव भी चल दिया याने चीन और पाकिस्तान की तरफ पींगे बढ़ाना शुरू कर दिया| पहले उन्होंने ल्हासा-काठमांडो सड़क खोली और फिर काठमांडों में चल रहे तिब्बती सूचना केंद्र को बंद कर दिया| इस बीच चीनी विदेश मंत्री भी नेपाल हो आए| चीन ने नेपाली घटना-क्रम को उसका आंतरिक मामला बताया और घोषित किया कि माओवादियों से उसका कुछ लेना-देना नहीं है| इस समय खुद नेपाल-नरेश चीन पहुंचे हुए हैं| पाकिस्तानी सरकार ने तो नरेश का खुला समर्थन किया और वांछित हथियार देने की भी पेशकश कर दी| यह ठीक है कि चीन और पाकिस्तान को लोकतंत्र की वैसी परवाह नहीं है, जैसी कि भारत को है लेकिन भारत को क्या अपने राष्ट रहितों की भी परवाह नहीं है? यदि भारत बर्मा के फौजी गिरोह और पाकिस्तान के फौजी राष्ट्रपति से बात कर सकता है तो वह नेपाल के आत्ममुग्ध और शक्तिकामी नरेश से बात क्यों नहीं कर सकता? बात होती रहे तो मनोवांछित दबाव भी डाला जा सकता है| आशा है कि जकार्ता में हुई बातचीत के फलस्वरूप लोकतंत्र के टिमटिमाते हुए दीप नेपाल में दुबारा रोशन हो सकेंगे|
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