टि्रब्यून, 06 फरवरी, 2006 : कर्नाटक में ह.डो. कुमारस्वामी का मुख्यमंत्री बनना भारतीय राजनीति की असाधारण घटना है| कर्नाटक का नाटक यद्यपि बेंगलूर में खेला गया है लेकिन उसकी प्रतिध्वनि सारे भारत में हुई है| कर्नाटक के नाटक को सारा भारत पिछले दो हफ्ते से एकटक देख रहा है| कर्नाटक ही नहीं, पूरे दक्षिण भारत और केंद्र की राजनीति पर भी इस नाटक का असर पड़े बिना नहीं रहेगा| कर्नाटक की राजनीति में कुमारस्वामी का कल तक अपना कोई स्थान नहीं था| वे अपने पिता की छाया-मात्र् थे| अपने बड़े भाई रेवण्णा की तुलना में भी वे कुछ फीके ही थे लेकिन उनके दोहरे तख्ता-पलट ने उन्हें सारे कन्नडिगाओं का महानायक बना दिया है| दोहरा तख्ता-पलट याने पहले तो अपने पिता के विरुद्घ बगावत और फिर भाजपा से गठबंधन| जनता दल के नाम जो सेक्यूलर शब्द जुड़ा हुआ है, उसे कुमारस्वामी ने शीर्षासन की मुद्रा में ला दिया है| जो लोग अब तक यह समझ रहे थे कि यह पिता-पुत्र् की मिलीभगत है, उनका संशय दूर हो गया है| यह आरोप भी निराधार सिद्घ हो गया है कि पिता-पुत्र् मिलकर काँग्रेस को ब्लेकमेल कर रहे हैं|
वास्तव में पिछले 20 माह के गठबंधन-काल में काँग्रेस और जद (से.) के संबंध इतने तनावपूर्ण हो गए थे कि दिल्ली आकर जद-अध्यक्ष देवेगौड़ा को कहना पड़ा कि वे 8 फरवरी तक काँग्रेस से अपना समर्थन वापस ले सकते हैं| पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा काँग्रेस की ज्यादतियों को कुछ समय और बर्दाश्त कर लेते लेकिन जिस बात ने उनका पारा चढ़ा दिया, वह थी, उनकी पार्टी के बागियों से काँग्रेस का हाथ मिलाना| उनके उप-मुख्यमंत्र्ी सिद्घरमैया और इब्राहीम आदि नेताओं से सांठ-गाँठ करके काँग्रेस ने पंचायत चुनावों में जनता दल को जो झटका दिया, उसने सारे जनता दल को हिला दिया लेकिन किसी के भी दिमाग में यह विकल्प नहीं था कि भाजपा के सहयोग से नई सरकार बना ली जाए| जब विधायकों को पता चला कि केंद्र का काँग्रेस-नेतृत्व देवेगौड़ाजी की अवहेलना कर रहा है और देवेगौड़ाजी गठबंधन सरकार को गिराकर मध्यावधि चुनाव करवाना चाहते हैं तो उनके कान खड़े हो गए| कोई भी विधायक सिर्फ 20 माह बाद चुनाव के मैदान में नहीं कूदना चाहता है| खास तौर से इसलिए भी कि देवेगौड़ा ने इन्फोसिस पर हमला बोल करके कर्नाटक के शिक्षित वर्ग को रुष्ट कर दिया था| इसके अलावा सिद्घरमैया और इब्राहीम मिलकर कुरुबा और मुसलमानों के 20 प्रतिशत वोटों को भी प्रभावित कर सकते थे| ये दोनों वर्ग वोक्कलिगा जाति के साथ मिलकर देवेगौड़ा की पार्टी को जिताया करते थे| पंचायत-चुनाव में भविष्य के संकेत मिल ही चुके थे| बड़े बेटे को मंत्र्ी और छोटे बेटे को पार्टी का कार्यवाहक अध्यक्ष बनाकर देवेगौड़ाजी ने अपनी छवि परिवारवादी बना ली थी| चुनाव उन्हें बहुत भारी पड़ता| ऐसे में विधायकों ने पलटा खाया| देवेगौड़ाजी का साथ देने के बजाय वे कुमारस्वामी के साथ हो लिये| मरता, क्या न करता ? चुनाव में जाने के बजाय भाजपा के साथ जाना उन्होंने बेहतर समझा| यों भी काँग्रेस की धर्मसिंह सरकार ने कोई नाम नहीं कमाया था| जहाँ तक धर्म-निरपेक्षता का सवाल है, यह कोरा नारा है| स्वयं काँग्रेस ने ही राम मंदिर का शिलान्यास करवाया था और शाह बानो के मुँह पर ताला जड़वाया था| भाजपा के लोगों ने जनता दल के विधायकों को यह भी समझाया कि जिस पार्टी ने केंद्र की सत्ता छह साल तक सम्हाली हो, उसे आप अछूत कैसे कह सकते हैं ? क्या देवेगौड़ाजी का जनता दल फारूक अब्दुल्ला, ममता बनर्जी, जॉर्ज फर्नांडीज़ और शरद यादव से भी अधिक सेक्यूलर है ? जब ये लोग भाजपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर रह सकते हैं तो कर्नाटक का जनता दल क्यों नहीं रह सकता ? यदि विश्वनाथ प्रतापसिंह जैसे प्रखर सेक्यूलर नेता की सरकार भाजपा के समर्थन से चलती रही तो कुमारस्वामी की क्यों नहीं चल सकती ? 1967 में कई प्रांतीय सरकारों में जनसंघ, संसोपा और कम्युनिस्ट पार्टी ने साथ-साथ काम किया था या नहीं ? आपात्काल में इन सभी दलों ने मिल-जुलकर काम किया था या नहीं ? तो फिर अब क्यों नाक-भौं सिकोड़ी जा रही है ? इन तर्कों के आगे देवेगौड़ाजी का रुदन-क्रंदन फीका पड़ गया| वे अकेले ही रह़ गए| कुमारस्वामी यदि अपने पिता के दबाव में आकर फिसल जाते और भाजपा के साथ सरकार नहीं बनाते तो कर्नाटक से जनता दल का नामो-निशान ही साफ हो जाता| कुमारस्वामी की पहल ने यह सिद्घ कर दिया है कि वे साहसी हैं, जो कि किसी भी नेता का पहला गुण है|
कुमारस्वामी की पहल ने दक्षिण भारत में दक्षिण पंथ का खाता खोल दिया है| यह खाता पहली बार खुला है और अगर यह गठबंधन-सरकार ठीक से काम करती रही तो भाजपा का पाट न केवल कर्नाटक में चौड़ा हो जाएगा बल्कि आंध्र, तमिलनाडु और केरल भी भगवा लहरों से भीगना शुरू कर देंगे| केरल के स्थानीय चुनावों में भाजपा की बढ़त के संकेत काफी स्पष्ट हैं| लगता ऐसा है कि भाजपा की बढ़त से प्रांतीय दलों को उतना नुक्सान नहीं होगा, जितना काँग्रेस को ! यदि भाजपा अल्पसंख्यकों की शुभ-चिंतक होने की छवि पैदा कर सके तो वह दक्षिण भारत में अब तेजी से फैल सकती है| कर्नाटक में जो परिवर्तन हुआ है, उससे अखिल भारतीयता भी मजबूत हुई है| एक अखिल भारतीय पार्टी के बदले एक दूसरी अखिल भारतीय पार्टी आ खड़ी हुई है| भाजपा का राष्ट्रीय रूप तो निखरा है, लेकिन क्षेत्र्ीयता का दायरा चौड़ा नहीं हुआ है| कर्नाटक का प्रयोग देश के अन्य क्षेत्र्ीय दलों को केंद्र में वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की प्रेरणा भी दे सकता है| अब भाजपा को भी बदलना होगा और यह बदलाव केंद्र की राजनीति को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगा| यदि देवेगौड़ाजी ने अब अपने पुत्र् को शांतिपूर्वक काम करने दिया तो कुछ ही दिनों में वे महसूस करेंगे कि उनके लिए केंद्र की बंद गली के दरवाज़े दुबारा खुल गए हैं| यदि उनकी इच्छानुसार कर्नाटक विधानसभा भंग हो जाती तो भी उन्हें भाजपा के साथ खुला या गुप्त समझौता करना पड़ता| वे अकेले दम सरकार नहीं बना सकते थे| वे छह माह बाद जो करते, उनके बेटे ने अभी ही कर दिया| कर्नाटक के नाटक का मंच-प्रवेश धमाकेदार अवश्य हुआ है लेकिन इसके अनेक अंक अभी धीरे-धीरे खेले जाने हैं| इस नाटक के अर्थ खुलते-खुलते ही खुलेंगे|
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