पूरा देश टकटकी लगाए देख रहा है कि अब कर्नाटक में क्या होगा ? भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें (103) मिली है लेकिन यह स्पष्ट बहुमत नहीं है जबकि कांग्रेस को सिर्फ 78 और जनता दल (स.) को 38 सीटें मिली है। कांग्रेस और जनता दल मिलकर 116 सीटें याने स्पष्ट बहुमत हो जाता है।
अब सवाल यही है कि राज्यपाल पहले किसे मौका देते हैं ? यदि वे भाजपा को सरकार बनाने के लिए पहले मौका देते हैं तो इसमें गैर-कानूनी या असंवैधानिक कुछ नहीं है लेकिन एक बात ध्यान में रखनी होगी कि भाजपा को चाहे सीटें कांग्रेस से ज्यादा मिली हैं लेकिन वोट उसे कांग्रेस से कम मिले है। उसे 36 प्रतिशत तो कांग्रेस को 38 से भी ज्यादा प्रतिशत ! इसका अर्थ क्या हुआ ?
क्या यह नहीं कि कर्नाटक की जनता में मोदी का जादू नहीं चला और कर्नाटक की ज्यादा जनता अभी भी भाजपा को पसंद नहीं करती ? ऐसे में उसे सरकार बनाने देना, खास तौर से जबकि उसे 112 सीटें नहीं मिल पाईं, क्या कर्नाटक के जनमत का अपमान नहीं होगा ? लेकिन हारी हुई कांग्रेस जनता दल के कंधे पर चढ़कर पिछले दरवाजे से फिर घुस आए, यह भी कहां तक ठीक है ?
क्या यहां यह संभव है कि कुमारस्वामी को गठबंधन सरकार बनाने दी जाए लेकिन हारी हुई कांग्रेस को उससे बाहर रखा जाए या वह स्वयं बाहर रहे। यदि ऐसा हो जाए तो यह लोकतंत्र की एक महान परंपरा कहलाएगी। चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस और जनता दल ने एक-दूसरे के विरुद्ध जितना कटु अभियान चलाया था, उसे क्या कर्नाटक की जनता भूल गई होगी ?
राज्यपाल को यह भी देखना होगा कि गोवा और मणिपुर में क्या हुआ था ? वहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी नहीं थी। मणिपुर में तो 60 सदस्यों की विधानसभा में उसे सिर्फ 2 सीटें मिली थीं लेकिन उसने गठबंधनों के जरिए वहां अपनी सरकार बना ली ? यदि अब कर्नाटक में राज्यपाल कांग्रेस+जद गठबंधन की सरकार नहीं बनने देंगे तो उन पर पक्षपात का आरोप तो लगेगा ही, केंद्र सरकार की छवि भी खराब होगी।
इसके अलावा 8-10 सदस्यों को तोड़ने के लिए भाजपा जो साम, दाम, दंड, भेद करेगी, क्या उसे सारा देश गौर से नहीं देखेगा ? यह बहस हमने तर्क और नैतिकता को आधार बनाकर चलाई है लेकिन आज की राजनीति में सत्ता ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
Leave a Reply